GEOGRAPHY
SEMESTER – I
A110101T
UNIT 6
Table of Contents
इकाई -6(I) वायुराशियाँ तथा वाताग्र
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. वायुराशियों से क्या आशय है? वायुराशियों की विशेषताओं की व्याख्या कीजिये तथा विश्व की वायुराशियों का वर्गीकरण कीजिए।
अथवा
वायुराशि क्या है? उसका वर्गीकरण प्रस्तुत कीजिए।
अथवा
वायुराशि को परिभाषित कीजिये। वायुराशियों के उत्पत्ति क्षेत्र तथा विश्व की प्रमुख वायुराशियों की व्याख्या कीजिए।
वायुराशि से कार्य:-
किसी स्थान विशेष पर वायुमण्डल की गतियों, तापक्रम, वायुदाब तथा आर्द्रता आदि की दशाओं के कारण वायु की एक ऐसी विश विशाल राशि इकट्ठी हो जाती है जिसकी तापक्रम एवं आर्द्रता सम्बन्धी विशेषताएं काफी ऊंचाई तक लगभग समान होती हैं। इस प्रकार के वृहद् राशि समूह को वायुराशि के रूप में जाना जाता है।
पीटरसन महोदय के अनुसार, “एक वायुराशि वायु का एक वृहद् आकार है जिसकी तापक्रम तथा आर्द्रता सम्बन्धी भौतिक विशेषताएँ क्षैतिज रूप में एक समान होती हैं।“ फिंच एवं दिवार्था महोदय के अनुसार, “वायुराशि वायुमण्डल का एक मोटा व विस्तृत भाग है जिसकी तापक्रम एवं आर्द्रता सम्बन्धी विशेषताएँ विभिन्न स्तरों पर क्षैतिज दिशा में लगभग एक समान रहती हैं।“
वायुराशि की विशेषताएँ:-
वायुराशि की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1.वायुराशियों में विभिन्न ऊँचाई पर आर्द्रता एवं तापमान सम्बन्धी दशाएँ लगभग समान होती हैं।
2.किसी एक वायुराशि का विस्तार हजारों वर्ग किमी तक मिल सकता है। एक विस्तृत वायुराशि में 160 किमी या इससे अधिक दूरी तक तापमान तथा आर्द्रता में बहुत कम अन्तर मिलता है।
3.जब दो विपरीत गुणों वाली वायुराशियाँ आपस में मिलती हैं तो उनके मिलन क्षेत्र अर्थात् सीमान्त क्षेत्र में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर तापमान एवं आर्द्रता सम्बन्धी दशाओं में पर्याप्त अन्तर देखने को मिलता है।
4.वायुराशि में तापमान एवं आर्द्रता के लम्बवत् विवरण में अन्तर मिलता है। किसी वायुराशि में तापमान व आर्द्रता के लम्बवत् विवरण पर संघनन के विविध स्वरूप तथा वर्षा की मात्रा निर्भर करती है।
5.वायुराशियाँ अपने उद्गम क्षेत्र पर स्थित न रहकर आगे की ओर प्रवाहित होती रहती हैं। वायुराशियों की यह विशेषता होती है कि उनका स्थानान्तरण चाहे जिस स्थान की ओर उनके मौलिक स्वरूप में अति मन्द गति से (प्रति चक्रवाती रूप में) परिवर्तन होता है अथवा मौलिक स्वरूप पूर्ववत् बना रहता है।
6.समस्त वायुराशियाँ किसी न किसी घरातलीय पवन तन्त्र से सम्बन्धित होती हैं।
7.किसी वायुराशि को उष्ण वायुराशि उस दशा में कहा जाता है, जबकि उस गतिशील वायुराशि के धरातल का तापमान धरातल के ऊपर प्रवाहित वायुराशि के तापमान से अधिक हो। इसी प्रकार किसी वायुराशि को शीतल वायुराशि उस दशा में कहा जाता है, जबकि उस गतिशील वायुराशि के धरातल का तापमान धरातल के ऊपर प्रवाहित वायुराशि के तापमान से कम हो।
वायुराशियों के उत्पत्ति क्षेत्र:-
जिस धरातलीय भाग पर वायुराशियों का निर्माण होता है वह उस वायुराशि का उत्पत्ति क्षेत्र माना जाता है। किसी वायुराशि के आदर्श उत्पत्ति क्षेत्र में निम्नलिखित चार दशाओं का पाया जाना आवश्यक है-
- वह क्षेत्र विस्तृत होने के साथ-साथ समांगी तल (स्थलीय या सागरीय) का होना चाहिए जिस पर लम्बे समय तक वायु का विशाल आकार स्थिर रह सके। इसी क्षेत्र पर यह वायुराशि (स्थिर रहकर) उस क्षेत्र के धरातल के सम्पर्क में रहकर निश्चित तापक्रम एवं आर्द्रता प्राप्त करती है।
- वायुराशि की उत्पत्ति के सम्पर्क में रहकर स्थिर रह सकें। इसी क्षेत्र पर यह वायुराशि (स्थिर रहकर) धरातल वायुराशियों के विकास के लिए उपयुक्त नहीं होते, क्योंकि विषम धरातल पर तापक्रम एवं आर्द्रता सम्बन्धी विषमताएँ मिलती हैं।
- वायुराशि के उत्पत्ति क्षेत्र में धरातलीय पवन प्रवाह अति मन्द होने के साथ-साथ प्रति चक्रवाती होना चाहिए।
- जिन क्षेत्रों में वायु का अभिसरण (Covergence) मिलता है उनके वायुमण्डल की निचली परतों में तापमान प्रवणता तीव्र होने के कारण वायुराशि का विकास सम्भव नहीं होता, लेकिन दूसरी ओर जिन क्षेत्रों में वायु का क्षैतिज अपसरण (Horizontal Divergence) होता है। उन क्षेत्रों के वायुमण्डल की क्षैतिज परतों में समानता मिलती है जिसके कारण ऐसे क्षेत्र वायुराशियों के उद्गम के लिए आदर्श होते हैं।
विश्व में वायुराशियों की उत्पत्ति के मुख्य क्षेत्र निम्नलिखित हैं-
1.भूमध्यरेखीय क्षेत्र के सागरीय भाग- भूमध्यरेखीय पेटी के कुछ सागरीय भागों में स्थिर वायु के डोलड्रम प्रदेश विकसित हो जाते हैं जो वायुराशियों के उत्पत्ति क्षेत्र के रूप में कार्य करते हैं।
2.उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र-उत्तरी गोलार्द्ध में कर्क रेखा के समीपवर्ती भागों तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में मकर रेखा के समीपवर्ती भागों पर वायुराशियों के उत्पत्ति क्षेत्र हैं। इन दोनों क्षेत्रों में वृहद् उष्ण कटिबन्धीय मरुस्थल मिलते हैं। उत्तरी प्रशान्त का दक्षिणी भाग संयुक्त राज्य अमेरिका की दक्षिणी-पश्चिमी भाग (केवल ग्रीष्मकाल में), उत्तरी मैक्सिको (ग्रीष्मकाल), उत्तरी अटलांटिक का दक्षिणी भाग तथा अफ्रीका महाद्वीप का उत्तरी मुख्य भू-भाग उष्ण कटिबन्धीय वायुराशियों के प्रमुख उत्पत्ति क्षेत्र हैं।
3.उप-ध्रुवीय क्षेत्र-उप-ध्रुवीय क्षेत्रों में वायुराशियों के उत्पत्ति क्षेत्र दोनों गोलार्द्ध में 550 से 650 अक्षांश रेखाओं के मध्य मिलते हैं। इनमें उत्तरी गोलार्द्ध में साइबेरिया, अलास्का खाड़ी, उत्तर कनाडा, उत्तरी प्रशान्त क्षेत्र में एल्यूतियन के दक्षिण में, अटलांटिक का उत्तरी-पश्चिमी भाग तथा ब्रिटिश द्वीप समूह के पश्चिम में उत्तरी अटलांटिक क्षेत्र वायुराशियों के प्रमुख उत्पत्ति क्षेत्र हैं।
4.आर्कटिक क्षेत्र-दोनों गोलार्द्ध में ध्रुवों के समीपवर्ती बर्फाच्छादित क्षेत्रों पर वायुराशियों के उत्पत्ति क्षेत्र मिलते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में दिसम्बर से मार्च तक तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में जून से सितम्बर के मध्य त्वरित गति से ध्रुवीय क्षेत्रों पर वृहद् वायुराशियों का निर्माण होता है।
वायुराशियों का वर्गीकरण:-
किसी वायुराशि के लक्षण मुख्यतया उसके उत्पत्ति क्षेत्र द्वारा निर्धारित होते हैं तथा जब वह वायुराशि अन्य क्षेत्रों की ओर प्रवाहित होती है तो इन क्षेत्रों की वायुमण्डलीय दशाओं में अनेक परिवर्तन हो जाते हैं। अतः अधिकांश विद्वानों ने वायुराशियों का वर्गीकरण उनके उत्पत्ति क्षेत्रों व धरातल की प्रकृति के आधार पर किया है।
वायुराशियों का ऊष्मागतिक परिवर्तन:-
प्रत्येक वायुराशि अपने उत्पत्ति क्षेत्र की तापीय विशेषताओं को ग्रहण करने के बाद आगे की ओर प्रवाहित होने लगती है। यह वायुराशि अपने प्रवाह मार्ग के क्षेत्र में मौसमीय दशाओं को प्रभावित एवं परिवर्तित करती है। यह परिवर्तन घरातल की प्रकृति, वायुराशि के मार्ग एवं उसके प्रभावित क्षेत्र तक पहुँचने में लगे कुल समय पर निर्भर करता है।
यदि कोई ठण्डी वायुराशि किसी ऐसे भू-भाग पर पहुँचती है जिसका तापमान वायुराशि से अपेक्षाकृत अधिक होता है तो उस ठण्डी वायुराशि की निचली परत गर्म होने लगती है जिसके फलस्वरूप उस भू भाग के तापमान की कमी की दर अधिक हो जाती है तथा मौसम में परिवर्तनशीलता होने लगती है। दूसरी ओर यदि गर्म वायुराशि अपेक्षाकृत ठण्डे धरातल से होकर प्रवाहित होती है तो धरातलीय वायुराशि की निचली परत में तापक्रम गिरने के कारण तापमान प्रतिलोमन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तथा वायुमण्डल में स्थायित्व स्थापित हो जाता है।
प्रश्न 2. वाताग्र-उत्पत्ति से क्या आशय है? वाताग्र-उत्पत्ति के लिए आवश्यक भौगोलिक दशाओं का वर्णन कीजिए तथा वाताग्रों को उनकी विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत कीजिये।
अथवा
वाताग्र की उत्पत्ति तथा प्रकारों का वर्णन कीजिए।
वाताग्र तथा वाताग्र-उत्पत्ति से आशय:-
जब दो विभिन्न गुणों की वायुराशियाँ एक सीमा प्रदेश पर मिलती हैं, यही सीमा प्रदेश बाताग्र कहलाता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि दो परस्पर विरोधी वायुराशियों के मध्य निर्मित बालू सीमा सतह वाताग्र कहलाती है। वायुराशियों को ऊर्ध्वाधर तल से अलग करने वाली बालू सतह वाताग्र सतह कहलाता है।
फिंच दिवार्था के अनुसार, “वे बलुआ सीमा पृष्ठ जो भिन्न वायुराशियों को अलग करते हैं. असांतत्य पृष्ठ अथवा वाताग्र कहलाते हैं।“
स्पष्ट है वाताम्र के निर्माण में दो भिन्न विशेषता रखने वाली वायुराशियों का योगदान रहता है। उन दोनों वायुराशियों के तापमान, आर्द्रता व वायु दाब में जितना अधिक अन्तर होता है उतना ही इन वायुराशियों के मिलन से बना संक्रमण क्षेत्र छोटा होता है। सामान्यतया वाताग्र के संक्रमण क्षेत्र की पेटियों की चौड़ाई 5 से 80 किमी० तक मिलती है। वाताम्र कभी सीधे-सीधे नहीं होते, वरन् हवाओं के संचलन से प्रायः लहरदार हो जाते हैं।
वाताम्र के निर्माण को बाताग्र-उत्पत्ति या वाताग्र-जनन या फ्रोण्टोजेनेसिस कहा जाता है। फ्रोण्टोजेनेसिस लैटिन तथा ग्रीक शब्दों से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है, ‘वाताग्र-निर्माण’। कुछ विद्वान वाताग्र जनन में नये वाताओं के निर्माण के साथ-साथ कमजोर हुए वाताओं के पुनः बलवान हो जाने को भी सम्मिलित करते हैं। वाताम्र निर्माण के कुछ समय बाद वाताग्र या तो कमजोर पड़ जाता है या विघटित हो जाता है। वाताग्रों के कमजोर अथवा विघटित होने की प्रक्रिया वाताग्रक्षय कहलाती है।
वाताग्र-उत्पत्ति के लिए आवश्यक दशाएँ:-
वाताम्र उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित दो दशाओं का पाया जाना आवश्यक होता है-
1.विभिन्न तापक्रम एवं घनत्व वाली वायुराशियाँ-वाताम्र-जनन के लिए यह आवश्यक है कि प्रचलित हवाओं द्वारा दो विभिन्न तापमानों वाली वायुराशियाँ एक-दूसरे के समीप आयें। साथ ही यह भी आवश्यक है कि ये दोनों वायुराशियाँ विभिन्न घनत्व की होनी चाहिए (अर्थात् एक वायुराशि यदि भारी, ठण्डी तथा शुष्क है तो दूसरी वायुराशि हल्की गर्म तथा आर्द्र होनी चाहिए)। ऐसी अवस्था में जब यह तापक्रम व घनत्व की विभिन्नता रखने वाली वायुराशियाँ परस्पर मिलती हैं तो ठण्डी, भारी एवं शुष्क हवा हल्की तथा आर्द्र हवा के नीचे आकर उसे उठा देती हैं तथा शीघ्र ही वाताम्र का निर्माण हो जाता है।
2.विपरीत दिशा से आकर मिलने वाली वायुराशियाँ-वाताग्र-जनन के लिए यह भी एक आवश्यक प्रक्रिया है कि दो विभिन्न घनत्व व तापक्रम वाली वायुराशियाँ विपरीत दिशाओं से आकर आमने-सामने से मिलनी चाहिए। यदि दो विभिन्न वायुराशियों का प्रवाह आमने-सामने से न होकर एक- दूसरे से हटकर होता है तो वाताग्र-जनन नहीं हो पाता।
बायर्स महोदय का कहना है कि वाताग्र-जनन के लिए उपर्युक्त दोनों दशाओं को एक साथ क्रियाशील होना आवश्यक है अन्यथा वाताग्र-जनन की प्रक्रिया सम्पन्न नहीं हो पाती। दूसरे शब्दों में, संक्षेप में यह भी कहा जा सकता है कि वाताग्र-जनन में वायुराशियों का प्रवाह इस प्रकार होता है कि समताप रेखाएँ एक-दूसरे के अधिक समीप आती चली जाती हैं।
पीटरसन महोदय ने बताया कि वाताग्र-जनन के लिए वायुराशियों के विरूपणी प्रवाह की स्थिति सर्वाधिक अनुकूल होती है। इस स्थिति में दो विभिन्न घनत्व व तापक्रम वाली वायुराशियाँ विपरीत दिशा से मिलने के बाद एक रेखा के सहारे क्षैतिज दिशा में बाहर की ओर फैलती जाती हैं। वे रेखा को जिस पर यह विभिन्न वायुराशियाँ आकर बाहर की ओर फैलती जाती हैं, बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा कहलाती हैं। ऐसी अवस्था में वायुराशियों की समताप रेखाओं तथा बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा के मध्य यदि 450 से कम का कोण बनता है तभी वाताग्र-जनन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो पाती है। विभिन्न वायुराशियों की समताप रेखाओं तथा बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा के मध्य बनने वाला कोण धीरे-धीरे कम हो जाता है तथा समताप रेखाएँ बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा के जैसे-जैसे समानान्तर होती जाती हैं, वैसे-वैसे वाताम्र-जनन प्रक्रिया अधिक सक्रिय होती जाती है तथा यह विभिन्न वायुराशियाँ दो विपरीत दिशाओं में बाह्य प्रवाह अक्ष रेखा के ठीक समानान्तर बहने लगती हैं, जिसमें ऊपर ठण्डी वायुराशि होती है तथा नीचे गर्म वायुराशि। नीचे की गर्म वायुराशि ऊपर उठने का प्रयास करती है जिससे दो विपरीत वायुराशियों को अलग करने वाली सीमा रेखा ढलुआ हो जाती है।
सामान्यतया शीत वाताग्री (असांतत्य पृष्ठ) का ढाल 1: 30 से 1: 100 तथा उष्ण वाताग्रों का ढाल 1: 100 से 1: 400 तक होता है। वस्तुतः शीत वाताम्र धरातलीय घर्षण के कारण अपेक्षाकृत अधिक तीव्र ढाल रखते हैं।
विशेषताओं के आधार पर वाताग्रों का वर्गीकरण:-
पीटरसन महोदय ने वाताओं का एक ऊष्मागतिक वर्गीकरण प्रस्तुत किया जिसमें वाताग्र को विभिन्न विशेषताओं के आधार पर अग्रलिखित चार प्रकारों में विभक्त किया-
1.उष्ण वाताग्र-उष्ण वाताम्र में गर्म वायु तीव्रता से वाताम्र के सहारे ठण्डी वायु के ऊपर चढ़ती जाती है। इस प्रकार के वाताग्र मध्य अक्षांशीय भागों में पश्चिम से पूर्व की ओर चलने वाली उष्ण कटिबन्धीय वायुराशि द्वारा प्रमुख रूप से निर्मित होते हैं। इन वाताग्रों का ढाल अपेक्षाकृत धीमा होता है। उष्ण वाताग्र के निचले भाग में मिलने वाली ठण्डी वायुाशि में स्थायित्व होने पर स्तरी व स्तरी कपासी मेघ तथा अस्थायित्व होने पर कपासी या कपास वर्षी मेघ होते हैं। वाताग्र की ठण्डी वायुराशि में निहित मेघों के प्रकार तथा जल वाष्प की मात्रा से वर्षा की मात्रा का निर्धारण होता है।
2.शीत बाताग्र-इस वाताग्र में ठण्डी वायुराशि आक्रामक होकर गर्म वायुराशि को ऊपर की ओर धकेल देती है। इस प्रकार गर्म वायुराशि का ठण्डी वायुराशि के ऊपर निष्क्रिय आरोहण होता है। शीत वाताम्र का ढाल उष्ण वाताम्र की अपेक्षा ढालू होता है। शीत वाताग्र से प्रभावित क्षेत्रों का मौसमी तूफानी हो जाता है तथा तापमान में एकाएक गिरावट आ जाती है।
3.स्थिरवत् वाताग्र-जब दो विपरीत स्वभाव की वायुराशियाँ एक वाताग्र से समान्तर रूप में अलग होती हैं तथा कोई वायुराशि आक्रामक न हो स्थिर हो समानान्तर रूप से स्थिर वायुराशियों के मध्य स्थिर वाताम्र निर्मित हो जाता है। इस प्रकार के वाताम्र में जितने समय तक वाताग्र किसी क्षेत्र में स्थिर रहता है, उतने समय तक उस क्षेत्र में बादल छाये रहते हैं तथा हल्की वर्षा होती है।
4.अधिविष्ट वाताग्र-कभी-कभी शीत वाताग्र तीव्र गति से उष्ण वाताग्र तक चलते हुए उष्ण वाताग्र से मिल जाते हैं तो अधिविष्ट वाताग्र का निर्माण होता है। इस दशा में गर्म वायु ऊपर उठ जाती है तथा ठण्डी वायु नीचे रहती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 3. वायुराशि की परिभाषा दीजिए।
उत्तर- “वायुराशियाँ वायुमण्डल का एक सघन एवं सुविस्तृत अंश है, जिसकी माप एवं आर्द्रता सम्बन्धी विशेषताएँ विभिन्न स्तरों पर क्षैतिज दिशा में लगभग समान रहती हैं।“ “वायु का वह वृहद् समूह जो धरातल के प्रत्येक स्थान पर कम या अधिक आर्द्रता रखता है, वायु राशि कहलाता है।“
प्रश्न 4. वायुराशियों की उत्पत्ति की आवश्यक दशाएँ बताइये।
उत्तर-वायुराशियों की उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित दशाएँ आवश्यक हैं-
1.विस्तृत क्षेत्र में तापमान एवं आर्द्रता सम्बन्धी समानताएँ होनी चाहिये।
2.वायुमण्डलीय दशाएँ लम्बे समय तक स्थिर रहनी चाहिए।
3.उत्पत्ति क्षेत्र पूर्णतः स्थलीय या जलीय होना चाहिए।
4.वायु की क्षैतिज गति यदि है तो उसका अपसरण होना चाहिए।
5.वायु का अभिसरण नहीं होना चाहिये। इससे वायु में तापीय विषमताएँ पैदा हो जाती हैं।
प्रश्न 5. वाताग्र से क्या अभिप्राय है?
उत्तर– ‘वाताग्र’ वह ढलुवा सीमा होती है, जिसके सहारे दो विपरीत स्वभाव वाली हवाएँ मिलती हैं। जब अभिसरण करने वाली हवाओं के बीच में विस्तृत संक्रमणीय प्रदेश रह जाता है तो उसे वाताग्र प्रदेश कहते हैं। वार्ताम्र न वाताम्र न तो धरातलीय सतह से समानान्तर होता ना है और न लम्बवत् होता है, अपितु वह कुछ कोण पर झुका होता है। वाताम्र की उत्पत्ति से सम्बन्धित प्रक्रिया को वाताग्र उत्पत्ति कहते हैं। ट्रिवार्था महोदय के अनुसार, “वे क्षेत्र जहाँ पर विरोधी स्वभाव वाली हवाएँ अभिसरित होती हैं, ‘वाताग्र उत्पत्ति के क्षेत्र’ कहे जाते हैं।“ कुछ विशेष दशाओं में वाताग्र नष्ट हो जाते हैं। इस प्रक्रिया को वाताग्र क्षय कहते हैं।
प्रश्न 6. वाताग्रों के प्रमुख लक्षण बताइये।
उत्तर-वाताग्रों के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-
1.वाताग्र की गति-वाताम्र गति करते हैं, लेकिन मौसम के मानचित्रों पर वाताग्र चलते नजर नहीं पड़ते हैं। इनकी गति 50 से 80 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। वाताग्र एक दिन और रात के निश्चित समय में बहुत बड़े भाग को पार कर जाते हैं।
2.वाताग्रों की ऊर्ध्वाधर ऊँचाई-वाताग्र में ठण्डी वायुराशियाँ गर्म वायुराशियों पर चढ़ जाती हैं तो उष्ण और आर्द्र वायु से बादलों की रचना हो जाती है तथा वर्षा भी होती है।
3.वाताग्रों की गहराई-वाताग्रों में गहराई का एक विशेष गुण पाया जाता है। इनके लिए वायुराशियों की गति नीचे के तलों (धरातल) पर अधिक पायी जाती है।
इकाई -6(II) चक्रवात और प्रतिचक्रवात
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की उत्पत्ति की विवेचना कीजिए तथा उनसे सम्बन्धित मौसमी चक्रवात का वर्णन कीजिए।
अथवा
चक्रवात किसे कहते हैं? इसकी उत्पत्ति कैसे होती है? व्याख्या कीजिए।
चक्रवात गोलाकार हवाएँ हैं जो अण्डाकार आकृति की होती हैं, जिनके मध्य में वायु दाब कम तथा चारों ओर क्रमशः अधिक रहता है। वायु सदैव एक ही दिशा में नहीं बहती है। इनमें भँवर पैदा होते हैं जो कभी-कभी बवण्डर का रूप धारण कर लेते हैं। चक्रवात में वायु की गति उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत दिशा में होती है और दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों की दिशा में होती है।
चक्रवात की उत्पत्ति-पिजराय महोदय ने 1863 ई० में बताया कि दो भिन्न लक्षणों की वायुराशियों के संगम से अवदाब की उत्पत्ति होती है। उष्णार्द्र वायुराशि उष्ण कटिबन्ध की ओर शुष्क सर्द वायुराशि ध्रुवीय प्रदेशों से आती हैं। सीमान्त भाग में चक्रवातों की उत्पत्ति होती है।
लैम्पट एवं शॉ के मतानुसार, “भिन्न-भिन्न वायुपुंजों की तापमान की विभिन्नता के कारण चक्रवाती गति उत्पन्न होती है। जब उठती गरम हवाएँ सर्द वायुधाराओं में मिलती हैं और भँवर पैदा हो जाते हैं तो हवायें नीचे को उतरने लगती हैं। अतः चक्रवात शंकु के आकार का होता है जिसका संकीर्ण भाग ऊपर होता है। इसीलिए इसको भँवर सिद्धान्त भी कहते हैं।“
ध्रुवीय वाताग्र पछुवा तथा संमार्गी हवाओं और पछुवा एवं ध्रुवीय हवाओं के संगम पर मिलता है। इन्हीं संगमों पर चक्रवात पैदा होते हैं। उष्ण वायु को पीछे से ढकेलने वाली शीत वायु इन विक्षोभों को आगे बढ़ा देती है और उष्ण वायु की भीषण आँधी पैदा हो जाती है। वायु के फैलने तथा सर्द हो जाने पर वर्षा होती है। इस सिद्धान्त का अनुसंधान नार्वे के बर्जेन नगर में हुआ है। अतः इसको बर्जेन सिद्धान्त भी कहते हैं।
चक्रवातों के आगमन की झाँकी-वायुदाबमापी का दाब सूचकांक निरन्तर कम हो जाता है। आकाश में ऊँचाई पर पक्षाभ मेघ दिखाई देते हैं। वायु शान्त होती है और धीरे-धीरे अपनी दिशा बदलने लगती है। हल्की रिमझिम वर्षा हो जाती है।
उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात:-
ये चक्रवात विषुवत् रेखा के निकट होते हैं। इसका कारण विषुवतीय अधिक उष्ण वायु होती है जो हल्की, शान्त, संतृप्त तथा अनिश्चित हुआ करती है। इन पर तापीय प्रभाव अधिक होता है।
ये चक्रवात चक्राकार हवाएँ होती हैं। गोलाकार समदाबी रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किये जाते हैं। ये आकार एवं विस्तार में छोटे होते हैं। उत्पत्ति के स्थान पर इनका व्यास 80 किमी होता है। अधिक विकसित चक्रवात अधिक व्यास के भी होते हैं। केन्द्र में मौसम अच्छा तथा स्वच्छ होता है। इसकी उत्पत्ति 6° से 15° अक्षांशों के मध्य होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी उत्पत्ति अधिक होती है। उष्ण चक्रवातों की गति 16 से 26 किमी प्रति घण्टा होती है। स्थल पर पहुँचते ही ये शक्तिशाली हो जाते हैं, क्योंकि जलवाष्प शीघ्र बादल का रूप धारण कर लेता है और वर्षा हो जाती हैं। इनसे तटीय भागों में भारी क्षति होती है।
मार्ग एवं प्रवाह-उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात घुमावदार मार्ग से जाते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में पहले पश्चिम की ओर फिर उत्तर-पूरब की ओर मुड़ जाते हैं, 20° से 25° अक्षांशों के मध्य उत्तर की ओर मुड़ जाते हैं। विषुवत् रेखा से 15° अक्षांश तक संमार्गी वायु से ये चक्रवात पश्चिम को जाते हैं और 15° से 30° अक्षांश तक इनका मार्ग अनिश्चित रहता है, किन्तु उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण की ओर रहता है। 30° अक्षांश पार करने पर ये पूरब की ओर मुड़ जाते हैं।
मौसम की दशाएँ- उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात के पहुँचने पर आकाश मेघों से आच्छादित होता है। वे बादल भेड़ सदृश प्रतीत होते हैं। मौसम शान्त एवं गर्म रहता है। धीरे-धीरे उग्र भाग में झोंके की हवा चलने लगती है। तीव्र गर्जन के साथ घनघोर वृष्टि होती है। चक्रवात के पीछे का भाग आता है तो तीव्र वायु गहरा बादल एवं विपुल वृष्टि हो जाती है और कभी-कभी ओले भी पड़ते हैं। फिर मौसम स्वच्छ एवं सुन्दर हो जाता है। ओलों के गिरते समय बादल में गर्जन तथा बिजली की चमक होती है। फिर सुखद मौसम हो जाता है।
प्रश्न 2. शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात पर एक लेख लिखिए।
शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात:-
शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात 300 से 600 अक्षांशों के मध्य चलते हैं। वायुमण्डल में इनकी उत्पत्ति का कारण ताप की विभिन्नता के कारण स्थिर तथा अस्थिर वायुपुंज का सृजन है। स्थिर वायुपुंज कम गर्म तथा अधिक आर्द्र होता है। अतः इसमें कम सक्रियता होती है, किन्तु अस्थिर वायुपुंज अधिक गरम तथा अधिक आर्द्र होता है। अतः इसमें अधिक सक्रियता रहती है। स्थिर एवं अस्थिर या ध्रुवीय एवं कटिबन्धीय वायु एक-दूसरे के विपरीत दिशा में चला करती हैं। इनकी सीमा पर तापमान भिन्न हो जाता है, जिसके आदान-प्रदान से वायु भँवर पैदा हो जाते हैं। इनको ध्रुवीय वाताग्र या असांतत्य तापमान रेखा कहते हैं। ध्रुवीय वाताग्र पर अनेक भँवरों का पैदा होना चक्रवात की उत्पत्ति का कारण होती है। इस क्रिया को वाताग्र कहते हैं।
आकार एवं विस्तार-शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों का व्यास 500 किमी0 से 650 किमी0 तक होता है। इनकी ऊँचाई 8 से 11 किमी0 होता है। ये द्विवेणी आकार होता है। इनका क्षेत्रफल कई लाख वर्ग किमी होता है।
गति-शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात के विभिन्न भागों की वायुगति में अन्तर मिलता है। ये दक्षिण- पूर्वी भाग में वेगशील होते हैं। इनकी गति धीमी होने पर वर्षा प्रारम्भ हो जाती है।
मार्ग एवं प्रवाह-ये चक्रवात 300 से 600 अक्षांशों के मध्य पछुवा हवा के साथ चला करते हैं। इनका सामान्य मार्ग पश्चिम से पूरब को होता है, किन्तु उत्तरी गोलार्द्ध में समुद्री भाग में उत्तर की ओर तथा स्थली भाग में दक्षिण को मुड़ जाया करते हैं।
ब्रिटिश वैज्ञानिक हम्फ्री ने शीतोष्ण चक्रवातों के तीन वर्ग बताये हैं–
1.सूर्यातापी चक्रवात-सूर्यातापी चक्रवातों की उत्पत्ति स्थल पर होती है। ग्रीष्म ऋतु में थल भाग पर गर्मी के कारण अल्प वायुदाब के केन्द्र बन जाते हैं और निकटवर्ती हवाएँ अपेक्षाकृत ठण्डी होती हैं। इस प्रकार उत्पन्न चक्रवात गोलाकार होते हैं।
2.तापीय चक्रवात-तापीय चक्रवात की उत्पत्ति उष्ण जल भागों जैसे-समुद्र, खाड़ी एवं झीलों में होती है। इनकी उत्पत्ति प्रायः शीत ऋतु में होती है।
3.प्रवासी चक्रवात-प्रवासी चक्रवात सूर्यातप के कारण उत्पन्न संवहनीय धाराओं के द्वारा पैदा होता । इनका समय अनिश्चित होता है।
संसार में शीतोष्ण चक्रवातों के प्रदेश-संसार में 300 से 400 अक्षांशों के मध्य महाद्वीपों के पश्चिमी भाग में चक्रवात केवल जाड़े की ऋतु में चला करते हैं, परन्तु 400 से 600 अक्षांशों के बीच में चक्रवात वर्ष भर पछुवा हवा की पेटी में उसके साथ चलते हैं। ये चक्रवात भी पश्चिम से पूरब की ओर चलते हैं, किन्तु उत्तरी गोलार्द्ध के महाद्वीपों पर दक्षिण की ओर और समुद्रों पर उत्तर की ओर मुड़ जाते हैं। पश्चिमी यूरोप में बसन्त ऋतु में इनकी शक्ति कम होती है।
शीतोष्ण चक्रवात का मौसम पर प्रभाव:-
चक्रवाती दशा में वातावरण मेघाच्छादित हो जाता है। इसके बाद तापमान बढ़ जाता है और हल्की वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। चक्रवात के केन्द्र के आते ही बड़ी जोर से वर्षा होती है जिससे कभी-कभी गंभीर क्षति हो जाती है।
चक्रवाती काल में प्रारम्भ से अंत तक भिन्न-भिन्न प्रकार के बादल आकाश में छा जाते हैं। प्रारम्भ में पक्षाभ मेघ से आकाश घिर जाता है जो क्रमशः पक्षाभ-स्तरी मेघ तथा इसके पश्चात् स्तरी मेघ बन जाते हैं और अन्त में वर्षा स्तरी मेघ को आकाश ढक देता है। वायु का वेग भी बढ़ जाता है। केन्द्र से तनिक आगे प्रचण्ड वर्षा होती है। हवाएँ बड़ी तीव्र होती हैं। अन्त में आकाश दूधिया हो जाता है। इस समय रात्रि में चन्द्रमा तथा दिन में सूर्य का चतुर्दिक प्रभामण्डल दिखाई देता है। यह प्रभा मण्डल प्रायः श्वेत और कभी रंगीन होता है।
प्रश्न 3.प्रतिचक्रवात के निर्माण की व्याख्या कीजिए तथा उनके प्रकार का वर्णन कीजिये तथा मौसम पर इसका प्रभाव बताइये।
प्रतिचक्रवात अपने गुण, स्वभाव, प्रभाव तथा वायु-व्यवस्था में चक्रवातों के विपरीत होता है। यह समदाब रेखाओं की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें उच्चदाब केन्द्र में होता है। केन्द्र के बाहर दाब क्रमशः कम हो जाता है। मध्य में वायु शान्त एवं शीतल होता है। इसमें पवन केन्द्र से बाहर को प्रभाव होती है। ये उत्तरी गोलार्द्ध में दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर मुड़ जाती हैं। फलतः प्रतिचक्रवात के पूर्वी भाग में वायु उत्तर से, पश्चिमी भाग में दक्षिण से, उत्तरी भाग में पश्चिम से तथा दक्षिणी भाग में पूरब से चलने लगती है। उत्तरी गोलार्द्ध में वायु की दिशा दक्षिणावर्त तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में वामवर्त होता है।
प्रतिचक्रवात की समदाब रेखाएँ दूर-दूर होती हैं। इनका कारण पवनें मन्द होती हैं। इसमें जल एवं स्थल की समीर और पर्वत घाटी समीर का अनुभव होता है। प्रतिचक्रवात में स्थानीय प्रभाव मिलता है जो प्रचण्ड चक्रवातों में नहीं होता है।
प्रतिचक्रवात प्रायः दो चक्रवातों के मध्य स्थित होते हैं जिनका पथ अनिश्चित होता है। ये किसी भी दिशा की ओर बढ़ जाते हैं। इनका प्रवाह भी अनिश्चित होता है। कभी-कभी एक ही स्थान पर कई दिनों तक रह जाते हैं। ये बहुत विस्तृत होते हैं और इनकी गति 30 से 48 किमी प्रति घण्टा होती है। प्रतिचक्रवात से स्थानीय वर्षा होती है। मौसम स्वच्छ एवं अच्छा होता है। आकाश नीला एवं अच्छा होता है। दिन में सूर्य की प्रचण्ड किरणें गर्मी पैदाकर देती हैं, किन्तु रात्रि में गर्मी निकल जाती है और प्रातःकाल कुहरा एवं धुन्ध छा जाती है। शीतकाल में सूर्य से कम गर्मी मिलती है, क्योंकि सूर्य कम समय के लिए क्षितिज से ऊपर आता है, रात्रि लम्बी होती है और कुहरा पड़ता है।
प्रति चक्रवातों के प्रकार:-
गेड्स ने प्रतिचक्रवातों को तीन भागों में बाँटा है-
1.जब विशाल क्षेत्र में ऊँचाई तथा स्वतंत्र विकिरण के कारण तापमान अधिक नीचा हो जाता है, सर्दी पड़ने लगती है तथा उस विशाल क्षेत्र का वायुदाब अधिक हो जाता है तो पवन विशाल प्रतिचक्रवात का रूप धारण कर लेता है। ऐसा अक्सर शीत ऋतु में होता है। ग्रीष्म ऋतु में ऐसा देखने को नहीं मिलता है। इस प्रकार प्रतिचक्रवात के नमूने अटलांटिक प्रदेश, ग्रीनलैण्ड और मध्य एशिया में मिलते हैं।
2.दूसरे प्रकार का प्रतिचक्रवात वह है जो जाड़े की ऋतु का रूप ग्रीष्म ऋतु में भी विकास अवस्था में दिखलाता है। इसका भी विस्तार बड़ा होता है। इसका औसत व्यास 3,200 किलोमीटर माना जाता है। इस प्रकार प्रतिचक्रवात धीरे-धीरे समाप्त होते हैं। पश्चिमी यूरोप में इसके उदाहरण मिलते हैं।
3.तीसरे प्रकार का प्रतिचक्रवात वह है जो दो चक्रवात अथवा अल्प वायुदाब प्रदेश के बीच स्थिर होता है। इस अवस्था को कन्नी के नाम से पुकारते हैं। ये कभी छोटे तथा कभी बड़े रूप में होते हैं। ऐसे चक्रवात गुजरात तट पर मिलते हैं।
इसमें से प्रथम प्रकार के चक्रवात पीछे रहते हैं। इनकी गति तथा दिशा अनिश्चित होती है, किन्तु दूसरे प्रकार के प्रतिचक्रवात धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं और कई दिनों तक स्थाई रहते हैं। तीसरे प्रकार के अपूर्ण प्रतिचक्रवात हैं जिनकी दिशा तथा गति समीपवर्ती चक्रवातों पर निर्भर करती है।
प्रतिचक्रवातों की विशेषता:-
1.इनकी गति 30 से 50 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है तथा इनका विस्तार चक्रवात से अधिक होता है।
2.इनमें वर्षा स्थानीय होती है। केन्द्र में शुष्क वायु के फलस्वरूप वर्षा नहीं होती।
3.इनके विभिन्न भागों में तापमान में भिन्नता रहती है तथा समदाब रेखाएँ केन्द्र से दूर-दूर रहती हैं।
4.हवाएँ हल्की और धीमी होती हैं, क्योंकि दाब-प्रणवता कम होती है। स्थलीय और समुद्री समीर का प्रभाव रहता है, अतः कभी भयंकर नहीं होते हैं। केन्द्र में अस्थिर तथा शान्त हवाएँ रहती हैं। इनके साथ ही साथ शीतल और गरम तापीय तरंगों का भी अनुभव होता है।
5इनकी स्थिति दो चक्रवातों के मध्य रहती है जिनकी दिशा अनिश्चित रहती है। इनका प्रवाह भी अनिश्चित होता है। ये कभी तो एक ही स्थान पर काफी समय तक रहते हैं और कभी आगे-पीछे चलते हैं।
6.उत्तरी गोलार्द्ध में दक्षिणावर्त और दक्षिणी गोलार्द्ध में वामावर्त दिशा में वायु रहती है।
7.प्रतिचक्रवात में मौसम साफ रहता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 4. चक्रवात से आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– “चक्रवात वायु की वह राशि है जिसकी समदाब रेखाएँ गोलाकार या अण्डाकार होती हैं एवं जिसके मध्य में न्यून वायु दाब होता है तथा बाहर की ओर यह वायु दबाव बढ़ता जाता है।“ पी० लेक के अनुसार, “चक्रवात उस कम भार वाले क्षेत्र का नाम है जो चारों ओर से सामान्यतया अण्डाकार आकृति की समभार रेखाओं से घिरा होता है।“ “जब कोई वायुराशि किसी न्यून वायु दाब क्षेत्र की ओर चक्राकार रूप से प्रवाहित होती है तो वह चक्रवात के रूप में जानी जाती है।“
प्रश्न 5. शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात।
अथवा
शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवात दोनों गोलाद्धों में 30° से 35° अक्षांशों के मध्य स्थित भू-भागों पर उत्पन्न होते हैं। यह चक्रवात उक्त अक्षांशों में गर्म तथा ठण्डी वायुराशियों के मिलने से बनते. हैं। चूंकि मौसम मानचित्रों पर इन चक्रवातों को वृत्ताकार या अण्डाकार समदाब रेखाओं से घिरे न्यूनदाब क्षेत्रों से प्रदर्शित किया जाता है अतः इन चक्रवातों को निम्न दाब क्षेत्र या वायुगर्त भी कहते हैं। जब शीतोष्ण चक्रवात दीर्घाकार होते हैं तब इन्हें द्रोणिका कहा जाता है। इसके अलावा शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों को मध्य-अक्षांशीय चक्रवात या उष्ण कटिबन्धीय अतिरिक्त चक्रवात भी कहा जाता है।
प्रश्न 6. शीतोष्ण चक्रवातों की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
शीतोष्ण चक्रवात में मौसम की स्थिति स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-चक्रवात के आगमन पर आकाश में सर्वप्रथम सिरस बादल छा जाते हैं तथा ये बादल घने होकर बौछार के रूप में हल्की वर्षा करने लगते हैं। इस समय धरातल के ऊपर उष्ण वाताम्र होता है। उष्ण वाताम्र के आगे बढ़ने पर आसमान साफ हो जाता है, वायु दबाव कम हो जाता है तथा तापमान बढ़ने लगता है। इस समय आकाश में चक्रवात का उष्ण वृत्तांश होता है। है। उष्ण वृत्तांश के आगे बढ़ने पर शीत वाताम्र धरातल के ऊपर आ जाता है जिससे आकाश में पुनः बादल छाने लगते हैं और मूसलधार वर्षा होने लगती है। उष्ण वाताग्र तथा शीत वृत्तांश के मध्य भाग में धरातल ऊपर आता है। आसमान साफ होकर वर्षा रुक जाती है। चक्रवात के इस प्रकार चले जाने पर तापक्रम कम होने तथा वायु दबाव में वृद्धि के साथ ही सभी पूर्ववर्ती दशाएँ पुनः स्थापित हो जाती हैं। गर्म सागरों पर चक्रवात के जाने के बाद उपचक्रवात बनते हैं। ये चक्रवात के पीछे की ठण्डी हवा तथा सागर की गर्म हवा के मिलने से अल्पकालीन समय के लिए बनते हैं।
प्रश्न 7. ध्रुवीय वाताग्र सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
उत्तर-ध्रुवीय वाताग्र सिद्धान्त-सन् 1914 ई० व सन् 1918 ई० में बी० बर्कनीज महोदय ने शीतोष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों की उत्पत्ति के संदर्भ में ध्रुवीय वाताग्र सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनके इस सिद्धान्त के अनुसार चक्रवातों की उत्पत्ति वाताम्र के निर्माण पर निर्भर करती है।
जब ये दोनों वायुराशियां एक-दूसरे से घर्षण करती हैं तो वाताम्र क्षेत्र में लहरें उत्पन्न हो जाती हैं जिससे दोनों वायुराशियों के मध्य का वाताम्र लहरनुमा हो जाता है जिसे ध्रुवीय वाताग्र कहते हैं। जब गर्म हवा ध्रुवीय वाताम्र के सहारे ठण्डी वायु के प्रदेश में प्रवेश करती है तो वह हल्की होने के कारण ऊपर उठने लगती है, जिससे कम दबाव का क्षेत्र निर्मित होता है। इस कम वायु दबाव क्षेत्र की ओर चारों ओर से हवाएं दौड़ती हैं और चक्रवात बनते हैं। चक्रवात के दक्षिणी पूर्वी भाग में उष्ण वाताग्र तथा उत्तरी पश्चिमी भाग में शीत वाताग्र बनता है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 8. प्रतिचक्रवात किसे कहते हैं?
उत्तर– चक्रवातों के विपरीत प्रतिचक्रवात वृत्ताकार समदाब रेखाओं द्वारा घिरा हुआ वायु परिसंचरण का ऐसा क्रम होता है जिसके केन्द्र में उच्चतम वायुदाब तथा परिधि में न्यूनतम वायुदाब होता है, जिस कारण हवाएँ केन्द्र से बाहर की ओर उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के अनुकूल तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के प्रतिकूल दिशा में प्रवाहित होती हैं।
प्रश्न 9.चक्रवात जनन।
उत्तर– वाताओं की उत्पत्ति के द्वारा चक्रवातों की उत्पत्ति एवं विकास की प्रतिक्रिया को चक्रवात जनन कहते हैं।
प्रश्न 10. चक्रवात किसे कहते हैं?
उत्तर– सामान्य रूप से चक्रवात न्यून वायुदाब के केन्द्र होते हैं, जिनके चारों तरफ लगभग सकेन्द्री समदाब रेखाएँ विस्तृत होती हैं तथा केन्द्र से बाहर की ओर वायुदाब बढ़ता जाता है, परिणामस्वरूप परिधि से केन्द्र की ओर हवाएँ चलने लगती हैं, जिनकी दिशा उत्तरी गोलार्द्ध में घड़ी की सुइयों के विपरीत तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अनुकूल होती है। चक्रवात इस तरह अभिसारी वायु परिसंचरण के तंत्र होते हैं।
प्रश्न 11. शीतल प्रतिचक्रवात।
उत्तर– आर्कटिक क्षेत्रों में उत्पन्न होकर शीतल प्रतिचक्रवात पूर्व तथा दक्षिण-पूर्व दिशा में आगे बढ़ते हैं। आकार में ये गर्म प्रतिचक्रवातों से छोटे होते हैं परन्तु अपेक्षाकृत तेजी से आगे बढ़ते हैं। इनकी गहराई भी कम होती है। बहुत कम शीतल प्रतिचक्रवात 3000 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं, क्योंकि अधिक ऊँचाई पर कम दाब विकसित होने लगता है।
प्रश्न 12. अर्ध-स्थायी प्रतिचक्रवात।
उत्तर– इनका मार्ग लम्बा होता है तथा ये अधिक सक्रिय होते हैं। शीतल प्रतिचक्रवातों की उत्पत्ति तापीय होती है, क्योंकि इनका उच्च्च दाब वायु के उतरने के कारण न होकर तापीय कारणों से होता है। आर्कटिक क्षेत्रों में शीतकाल में विकिरण द्वारा अत्यधिक ताप ह्रास होने तथा कम सूर्यताप मिलने के कारण उच्च दाब बन जाता है तथा प्रतिचक्रवात उत्पन्न हो जाते हैं।
प्रश्न 13. गर्म प्रतिचक्रवात।
उत्तर– इन प्रतिचक्रवातों की उत्पत्ति उपोष्ण उच्च वायुदाब की पेटी में होती है। यहाँ पर हवाओं का अपसरण होता है। इस तरह गर्म प्रतिचक्रवातों की उत्पत्ति गतिक या यांत्रिक होती है। आकार में ये विशालकाय होते हैं। ये कम सक्रिय होते हैं तथा अपने उत्पत्ति स्थान से बाहर निकलने का कम प्रयास करते हैं। इनकी आगे बढ़ने की गति इतनी मंद होती है कि कभी-कभी सप्ताह भर एक स्थान पर स्थिर रहते हैं। इनमें हवा मंद होती है, आकाश मेघरहित होते हैं तथा मौसम साफ रहता है।
प्रश्न 14. अवरोधी प्रतिचक्रवात।
उत्तर– ये चक्रवात क्षोभमण्डल के ऊपरी भाग में वायुसंचार में रुकावट या अवरोध के कारण उत्पन्न होते हैं। इसी कारण से इन्हें ‘अवरोधी प्रतिचक्रवात’ कहते हैं। वायु प्रणाली, वायुदाब तथा मौसम सम्बन्धी विशेषताओं में ये गर्म प्रतिचक्रवातों से मिलते-जुलते हैं परन्तु आकार में छोटे होते हैं तथा मंद गति से चलते हैं। इनके उत्पत्ति क्षेत्र उत्तर पश्चिम यूरोप तथा समीपी अटलांटिक महासागर का भाग तथा 140°-170° पश्चिमी देशान्तर के मध्य उत्तरी प्रशान्त महासागर के पश्चिमी भाग हैं।
प्रश्न 15. उष्ण कटिबन्धीय विक्षोभ।
उत्तर– इन चक्रवातों में एक या दो घिरी समदाब रेखाएँ रहती हैं। हवाएँ क्षीण गति से केन्द्र की ओर प्रवाहित होती हैं तथा यह चक्रवात मंद गति से आगे बढ़ता है, परन्तु उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों में सर्वाधिक विस्तृत तथा व्यापक होता है एवं उष्ण, उपोष्ण, दोनों कटिबन्धों को प्रभावित करता है। इनकी गति इतनी मन्द होती है कि कभी-कभी एक ही स्थान पर कई दिन तक टिके रहते हैं। इसी श्रेणी में पूर्वी तरंग को भी सम्मिलित किया जाता है। ये तरंगें पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर चलती हैं, जिससे कहीं-कहीं पर हल्की वर्षा हो जाती है।
प्रश्न 16- उष्ण कटिबन्धीय अवदाब।
उत्तर– एक से अधिक समदाब रेखाओं वाले छोटे आकार के उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात को ‘अवदाब’ कहते हैं। इनके अंदर हवाएँ 40-50 किमी. प्रति घण्टे की चाल से प्रवाहित होती हैं। इनकी दिशा तथा गति अनियमित होती है। कभी-कभी एक ही स्थान पर कई दिन तक स्थिर रहते हैं। इनका आविर्भाव अन्तरा उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण के साथ होता है न कि व्यापारिक पवनों के साथ। ये चक्रवात मुख्य रूप से भारत तथा उत्तरी ऑस्ट्रेलिया को गर्मियों में प्रभावित करते हैं।
प्रश्न 17. उष्ण कटिबन्धीय तूफान।
उत्तर-उष्ण कटिबन्धीय तूफान न्यून वायुदाब के केन्द्र होते हैं तथा समदाब रेखाओं से घिरे होते हैं। बाहर से हवाएँ केन्द्र की ओर 40 से 120 किमी. प्रति घण्टा की गति से प्रवाहित होती हैं। ये अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी में गर्मियों में विकसित होते हैं। उष्ण कटिबन्धीय तूफान कैरेबियन सागर तथा फिलीपीन्स के आस-पास उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न 18. हरिकेन या टाइफून।
उत्तर-अनेक घिरी समदाब रेखाओं वाले विस्तृत उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात को ‘हरिकेन’ (संयुक्त राज्य अमेरिका) या ‘टाइफून’ (चीन) कहते हैं। हरिकेन प्रति घण्टे में 120 किमी. की गति से चलते हैं। यद्यपि हरिकेन अत्यधिक विशालकाय तथा प्रचण्ड होते हैं; परन्तु इनका जलवायु सम्बन्धी महत्त्व नगण्य होता है क्योंकि इनकी संख्या बहुत कम होती है तथा ये कभी-कभार आते हैं।
प्रश्न 19. हरिकेन लहर।
उत्तर– हरिकेन के साथ सागरों में तरंगें उठती हैं जिन्हें हरिकेन लहर कहते हैं। इनकी ऊँचाई 3 से 6 मीटर तक होती है। इन तरंगों से सागर का जल तटीय भागों में अन्दर तक प्रविष्ट हो जाता है जिससे मानव आवास तथा फसलों को पर्याप्त क्षति उठानी पड़ती है। हरिकेन के प्रभाव से सागर तल में सामयिक परिवर्तन के कारण ज्वार आते हैं।
प्रश्न 20. टारनैडो से आप क्या समझते हैं?
उत्तर– टारनैडो फलनी की आकृति वाले प्रचण्ड स्थानीय तूफान होते हैं, जिनका ऊपरी भाग छत्तरीनुमा होता है तथा मध्यवर्ती एवं निचला भाग पाइप जैसा होता है जो धरातलीय सतह का स्पर्श करती रहती हैं। टारनैडो चक्रवातों की तुलना में छोटे होते हैं परन्तु अत्यन्त विस्फोटक, भयानक तथा विनाशकारी होते हैं। टारनैडो सभी प्रकार के वायुमण्डलीय तूफानों में प्रबलतम तथा विध्वंशक होते हैं। वास्तव में टारनैडो अत्यन्त भयावह एवं उग्र रूप से घूर्णन करती वायु के स्तंभ होते हैं जिनका ऊपरी भाग कपासी वर्षा बादलों द्वारा आवृत्त होता है।
प्रश्न 21. अभिसारी परिसंचरण।
उत्तर– जब सभी दिशाओं से वायु प्रवाहित होकर न्यूनतम वायुदाब वाले केन्द्र में आकर मिलती है तो वायु के ऐसे परिसंचरण को अभिसारी परिसंचरण कहते हैं।
प्रश्न 22. गतिक चक्रवात क्या है?
उत्तर– वास्तविक सामान्य शीतोष्ण कटिबन्धी चक्रवातों को गतिक चक्रवात इसलिए कहते हैं क्योंकि इनका निर्माण गतिमान ठण्डी ध्रुवीय वायुराशियों तथा गर्म एवं आर्द्र सागरीय उष्णकटिबन्धीय वायुराशियों के अभिसरण के कारण होता है।
इकाई –6(III) आर्द्रता और वर्षा
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. आर्द्रता से क्या तात्पर्य है? यह किन-किन रूपों में मिलती है? अथवा वर्षा के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए तथा उनकी विशेषताओं को समझाइये।
आर्द्रता:-
वायु में उपस्थित जलवायु की मात्रा ही आर्द्रता या नमी कहलाती है। आर्द्रता दो प्रकार की होती है- (1) सापेक्षिक आर्द्रता-सापेक्षिक आर्द्रता वह अनुपात है, जो कि निश्चित ताप पर वायु के दिये हुए आयतन में वास्तविक वाष्प भार और उसी तापक्रम और आयतन पर वायु में वाष्प रखने की क्षमता के मध्य में पाया जाता है। सापेक्षिक आर्द्रता, वास्तविक वाष्प भार और सम्पृक्त वाष्प भार के अनुपात को कहते हैं। यह अनुपात प्रतिशत में व्यक्त किया जाता है। यदि किसी वायु का तापक्रम 800F है और वह 101 ग्रेन वाष्प धारण कर सकती है, परन्तु निरीक्षण के समय वायु में 5 ग्रेन वाष्प थी तो सापेक्षिक आर्द्रता को प्रतिशत में निम्न प्रकार व्यक्त किया जायेगा-
सापेक्षिक आर्द्रता = 5x100/10 = 50%
सापेक्षिक आर्द्रता तापक्रम पर निर्भर करती है। तापमान के घटने-बढ़ने से हवा में वाष्प धारण करने की क्षमता भी बदलती रहती है। सापेक्षिक आर्द्रता की अधिकता से मौसम में नमी पायी जाती है।
किसी एक निश्चित परिमाण वाली वायु में जलवाष्प की मात्रा का अनुपात, विशिष्ट आर्द्रता कहलाता है। यदि किसी 1000 ग्राम वायु में 12 ग्राम जलवाष्प निहित है तो विशिष्ट आर्द्रता 12 ग्राम प्रति किग्रा० होगी। वायु और जलवाष्प को अलग-अलग मानते हुए आर्द्रता व्यक्त करने की एक विधि वाष्प दाब है। वाष्प दाब वायुमण्डल का वह आंशिक दाब है जो अन्य गैसों से स्वतन्त्र रूप में केवल जलवाष्प द्वारा डाला जाता है। जब किसी निश्चित तापमान पर वायु में आर्द्रता की मात्रा उसकी क्षमता के बराबर हो जाती है तो उस वायु को संतृप्त कहते हैं। इस अवस्था का वाष्प दाब संतृप्त वाष्प दाब होता है। इस अवस्था में वायु अपने ओसांक ताप पर होती है।
3.निरपेक्ष आर्द्रता-किसी दिये गये आयतन की वायु में जलवाष्प की वास्तविक मात्रा को प्रकट करने की विधि को निरपेक्ष आर्द्रता कहते हैं। आयतन की इकाई घन फुट या घन मीटर हो सकती है। वायु के प्रकार व संकुचन के साथ ही निरपेक्ष आर्द्रता में परिवर्तन हो जाता है। निरपेक्ष आर्द्रता विषुवत रेखीय प्रदेशों से ध्रुवों की ओर धीरे-धीरे कम होती जाती है। इसी प्रकार समुद्रों की अपेक्षा महाद्वीपों पर, ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा शीत ऋतु में, दिन की अपेक्षा रात में निरपेक्ष आर्द्रता कम मिलती है। निरपेक्ष आर्द्रता के ऊपर वर्षा का कम या अधिक होना भी निर्भर करता है। वायुमण्डल में तापमान के कम या अधिक होने से निरपेक्ष आर्द्रता पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता है। इसमें तो केवल वाष्पीकरण से प्राप्त निरपेक्ष आर्द्रता को ही दर्शाते हैं। वायुमण्डल में निरपेक्ष आर्द्रता कभी स्थिर नहीं रहती क्योंकि कभी वायु गर्म होकर ऊपर उठती है तथा ऊपर से ठंडी होकर नीचे उतरती है। वायु के चढ़ने-उतरने से नमी की मात्रा में पर्याप्त अन्तर आता रहता है।
दोनों प्रकार की आर्द्रता में सापेक्षिक आर्द्रता का महत्त्व अधिक है। जब सापेक्षिक आर्द्रता 100 प्रतिशत हो जाती है, तब वायु संतृप्त होती है। सापेक्षिक आर्द्रता के द्वारा वाष्पीकरण की मात्रा तथा उसकी दर निर्धारित होती है।
सापेक्षिक आर्द्रता का प्रादेशिक वितरण-धरातल पर भूमध्य रेखा के निकटवर्ती भागों में अधिकतम सापेक्षिक आर्द्रता पायी जाती है। यहाँ से उत्तर तथा दक्षिण उपोष्ण उच्च वायु भार पेटी की ओर सापेक्षिक आर्द्रता क्रमशः कम होती जाती है। कर्क और मकर रेखाओं के निकट सापेक्षिक आर्द्रता न्यूनतम हो जाती है। तापमान में कमी होने के कारण उपोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में ध्रुवों की ओर सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ती जाती है। उत्तरी गोलार्द्ध में 60° उत्तरी अक्षांश से ऊपर की ओर सापेक्षिक आर्द्रता पुनः घटती हुई दिखाई देती है। जल की अपेक्षा स्थल पर सापेक्षिक आर्द्रता कम होती है। उत्तरी गोलार्द्ध में उच्च अक्षांशीय प्रदेशों में दक्षिणी गोलार्द्ध की अपेक्षा इसका प्रतिशत अपेक्षाकृत कम होता है।
आर्द्रता का मापन-वायुमण्डल में उपस्थित आर्द्रता के अध्ययन तथा मापन के विज्ञान को आर्द्रतामिति कहते हैं। आर्द्रता मापन के लिये ‘आर्द्रतामापी’ का प्रयोग किया जाता है।
जलवाष्प का संघनन:-
किसी वाष्प या गैस का द्रव में परिवर्तन होना संघनन कहलाता है। यह वाष्पीकरण की उल्टी प्रक्रिया होती है। वाष्पीकरण की प्रक्रिया में जो ऊष्मा अवशोषित हो जाती है वह संघनन के फलस्वरूप वायुमण्डल में पुनः वापस मिल जाती है। इस अवमुक्त ताप की संघनन की गुप्त ऊष्मा कहते हैं। इस प्रक्रिया से प्राप्त ऊष्मा के कारण वायु के शीतलन की प्रक्रिया मन्द पड़ जाती है।
शीतलन के कारण जिस तापमान पर वायु संतृप्त हो जाती है, उसे उसका ओसांक कहते हैं। यही वह बिन्दु है जहाँ से संघनन की प्रक्रिया का आरम्भ हो जाता है। वैज्ञानिकों का ऐसा मत है कि जब तक वायु संतृप्त नहीं हो जाती, तब तक उसकी सम्पूर्ण आर्द्रता वाष्प रूप में ही पायी जाती है। संतृप्त वायु का तापमान ज्यों ही नीचे गिरने लगता है, उसके जलवाष्प का कुछ अंश जल या हिम के रूप में संघनित हो जाता है। वायुमण्डल में संघनन होने के लिये आवश्यक है कि अति सूक्ष्म जलग्राही नाभिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हों जिनके इर्द-गिर्द वाष्प जल के सूक्ष्म कणों में परिवर्तित हो सके। पहले वैज्ञानिकों का विचार था कि संघनन के लिये वायु में धूल के अति सूक्ष्म कण पर्याप्त होते हैं, परन्तु आगे चलकर यह स्पष्ट हो गया है कि सामान्य धूल कणों पर संघनन क्रिया सम्पादित नहीं होती। वायुमण्डल में निम्नलिखित जलग्राही नाभिक होते हैं-
(i).समुद्री लवण-इसमें सोडियम क्लोराइड तथा मैग्नीशियम क्लोराइड सम्मिलित हैं।
(ii).सल्फर डाई-ऑक्साइड।
(iii).नाइट्रिक ऑक्साइड।
समुद्र के जल में विद्यमान नमक के अति सूक्ष्म कण वायु द्वारा उड़ाकर महाद्वीपों पर पहुँचाये जाते हैं। चिमनियों से निकला धुआँ भी जलग्राही नाभिकों की आपूर्ति करता है।
डी० ब्रन्ट के अनुसार, “वायुमण्डल की प्रति घन सेमी० वायु में 2000 से 50000 की संख्या में जलग्राही नाभिक मिलते हैं।“ टेलर के अनुसार, “इन नाभिकों का व्यास 0.01 से 50 माइक्रान (µ) तक होता है। जलग्राही नाभिकों का आकार जितना ही छोटा होगा संघनन के लिये उतनी ही अधिक अति संतृप्तता की अपेक्षा होगी। ऐसी वायु, जिसमें संघनन क्रिया का प्रारम्भ ओसांक से कई अंश नीचे तापमान पर होता है, ‘अति संतृप्त’ कही जाती है।“ ओवेन्स के अनुसार, “कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जब 74% सापेक्षिक आर्द्रता पर आर्द्रताग्राही नाभिकों पर संघनन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। जलग्राही नाभिकों पर संघनन एक सतत प्रक्रिया है। इससे जल की बूँदें निर्मित हो जाती हैं। जब सापेक्षिक आर्द्रता 100% हो जाती है तो बूँदें तीव्र गति से बड़ी होने लगती हैं। इस प्रकार वायुमण्डल में पहले धुन्ध, फिर कोहरा या मेघों का निर्माण होता है।
संघनन के विविध रूप:-
वायुमण्डल में संघनित जलवाष्प के निम्न रूप हैं-:
(i).ओस-प्रातःकाल घासों एवं छोटे-छोटे पेड़-पौधों की पत्तियों पर पड़े हुए मोती के समान नन्हीं-नन्हीं बूंदों को ओस कहते हैं। ओस का निर्माण 00 सेग्रे० तापमान पर होता है। एटकिन का मत है कि “ओस का निर्माण वायु में उपस्थित वाष्प के घनी भवन से नहीं, बल्कि रात्रि में पेड़-पौधों से निकली वाष्प के घनी भवन से होता है जो ओस के रूप में उन पर बैठ जाती है।“
(ii) कोहरा-धरातल के निकट आई वायु का तापमान जब ओसांक प्राप्त कर लेता है, तब वायु ठंडी हो जाती है तो उसकी आर्द्रता के कण वायुमण्डल में व्याप्त धूल व धुएँ के कणों के ऊपर बैठ जाते हैं। ये संघनित होकर सूक्ष्म जल बिन्दुओं के रूप में लटक जाते हैं। इससे वायुमण्डल में अन्तर्दृश्यता कम हो जाती है। कोहरा सतह के निकट पाया जाता है। इसकी उत्पत्ति सागरीय सतह पर भी होती है।
(iii) पाला या तुषार-कभी-कभी धरातल पर पौधों, घासों तथा पत्तियों का तापमान हिमांक से भी नीचे गिर जाता है। ऐसी स्थिति में उन पर ओस की बूँदों के स्थान पर हिम के कण जम जाते हैं, जिसे तुषार या पाला कहते हैं।
(iv) बादल या मेघ-पृथ्वी की सतह से ऊपर विभिन्न ऊँचाइयों पर वायुमण्डल में जलवाष्प के संघनन से निर्मित हिमकणों या जल सीकरों की राशि को मेघ कहते हैं। मेघों की रचना जल के वाष्पीकरण द्वारा होती है। धरातल से जल का निरन्तर वाष्पीकरण होता रहता है। मेघों में जल कण लटके रहते हैं। प्राचीन विद्वान अरस्तू ने लिखा था कि “मेघों में जल के कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे धूल कणों की भाँति हवा में उड़ सकते हैं।“ डिस्कार्टिस ने मेघों की संरचना का वर्णन करते हुए बताया कि “जलकणों का समूह उसकी मात्रा की अपेक्षा अधिक आयतन वाला होता है, अतः वायु अवरोध की शक्ति उनके भार से अधिक होती है और वे तैरते हैं।“ ग्यूरिक्स ने यह सिद्ध किया कि “सूक्ष्म जल के कण आयतन की अधिकता के कारण वायु में निलम्बित रह सकते हैं क्योंकि प्रत्येक जलकण भीतर से बुलबुले जैसा खोखला होता है।“ हैली ने प्रतिपादित किया कि “अदृश्य जलवाष्प जब घनीभूत होकर सूक्ष्म बुलबुले का रूप धारण करती है तो निलम्बित मेघ बनते हैं।“
प्रश्न 2. पृथ्वी पर वर्षा के वितरण का वर्णन कीजिए।
अथवा
भूमण्डल पर वर्षा के वितरण की विवेचना कीजिए।
अथवा
वर्षा के विभिन्न प्रकारों को विस्तार से समझाइए।
विश्व में वर्षा का प्रादेशिक वितरण:-
विश्व में वर्षा का वितरण तापमान व वायुदाब की अपेक्षा अधिक जटिल है क्योंकि इसे प्रभावित करने वाले कारक बहुत भिन्न तथा जटिल हैं। क्षेत्रीय दृष्टि से भूमध्य रेखा के निकटवर्ती भाग में सर्वाधिक वर्षा, उपोष्ण कटिबन्ध में कम वर्षा तथा शीत कटिबन्ध में अत्यल्प वर्षा होती है। उष्ण कटिबन्ध में महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों की अपेक्षा पूर्वी किनारों पर अधिक वर्षा तथा आन्तरिक भागों की तुलना में समुद्रतटीय भागों में अधिक वर्षा होती है। पर्वतीय भागों के पवनाभिमुखी ढालों पर अधिक वर्षा तथा पवन विमुख ढालों पर कम वर्षा होती है।
वर्षा के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक:-
वर्षा के जटिल व असमान वितरण के लिए निम्न कारण उत्तरदायी हैं–
1.अक्षांश-जिन अक्षांशों में पवनों का क्षैतिज अभिसरण होता है, वहीं पर वायुराशियों का आरोहण सम्भव है। इसीलिये अभिसरण पेटियाँ अधिकतम वर्षा की पेटियाँ होती हैं। इसके विपरीत उन अक्षांशों में, जहाँ वायु का अवतलन तथा पवनों का अपसरण होता है, कम वर्षा वाले या वृष्टि रहित क्षेत्र होते हैं। वायु के अभिसरण के कारण भूमध्य रेखा के आस-पास अधिकतम वृष्टि की एक पेटी मिलती है। विषुवत् रेखा के दोनों ओर 10° अक्षांशों में एक चौड़ी पेटी में धरातल पर सर्वाधिक वर्षा होती है।
2.जल एवं थल का वितरण-धरातल पर वर्षा के वितरण को प्रभावित करने वाला दूसरा महत्त्वपूर्ण कारक जल एवं थल का वितरण है। स्थल से आने वाली वायु शुष्क होती है, जबकि महासागरों से चलने वाली वायु आर्द्रता युक्त होती है। वार्षिक वर्षा का 19% स्थल भाग पर तथा शेष 81 % महासागरों पर गिरता है। जो स्थान समुद्र से निकट होते हैं वे अधिक वर्षा प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत महाद्वीपों के आन्तरिक भाग समुद्र से दूर होने के कारण बहुत कम वर्षा प्राप्त कर पाते हैं। वर्षा के वितरण पर स्थल भाग का स्पष्ट प्रभाव एशिया महाद्वीप में दिखाई देता है जहाँ ईरान, अफगानिस्तान तथा अरब मरुप्रदेश में नाममात्र की ही वर्षा होती है।
3.पर्वतीय अवरोध-वर्षा के वितरण पर पर्वतों तथा पठारों की अवस्थिति का भी प्रभाव पड़ता है। ऊँचे पर्वत तथा पठार वाष्प युक्त पवनों के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं। अवरोध के कारण पवनें ऊपर उठती हैं और ऊँचाई पर जाकर संघनन क्रिया को प्राप्त होती हैं जिससे वर्षा होने लगती है। इन भौतिक अवरोधों के कारण वायु सम्मुख ढालों पर वर्षा अधिक तथा विमुख ढालों पर कम वर्षा होती है। पवन विमुख ढालों को ‘वृष्टि छाया प्रदेश’ कहा जाता है।
पृथ्वी पर वर्षा का कटिबन्धीय वितरण:-
पीटरसन के अनुसार पृथ्वी तल पर वर्षा की सात प्रमुख पेटियाँ पायी जाती हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
(i).भूमध्य रेखीय पेटी-इस पेटी का विस्तार भूमध्य रेखा के उत्तर एवं दक्षिण 10° अक्षांशों तक है। वर्षा की यह पेटी वर्ष भर में विषुवत् रेखा के दोनों ओर स्थानान्तरित होती रहती है।
भूमध्य रेखीय पेटी अन्य सभी पेटियों की अपेक्षा अधिक वर्षा प्राप्त करती है। अधिकांश क्षेत्रों में वर्षा का औसत 200 सेमी से अधिक रहती है। प्रतिदिन दोपहर के बाद संवाहनीय धाराओं से वर्षा होती है। वर्षा की प्रकृति मूसलधार होती है। वृष्टि मेघ गर्जन तथा विद्युत चमक के साथ होती है। रात्रि में आकाश स्वच्छ हो जाता है तथा तारे दिखाई पड़ते हैं।
(ii).व्यापारिक या सन्मार्गी पवनों की पेटी-उपोष्ण कटिबन्धीय उच्च वायुभार पेटी में उत्पन्न पवनें प्रायः शुष्क रहती हैं। इन अक्षांशों में धरातल से वायु का आरोहण उस ऊँचाई तक नहीं हो पाता जहाँ संघनन प्रारम्भ हो सके। व्यापारिक पवनें जब भूमध्य रेखा की ओर चलती हैं तो निरन्तर अधिक गर्म प्रदेशों की ओर जाने से उनकी शुष्कता में वृद्धि होती जाती है। विश्व के अधिकांश गर्म मरुस्थल सन्मार्गी पवनों की पेटी में स्थित हैं।
(iii).मानसूनी पवनों की पेटी-इस पेटी का विस्तार 20° से 40° अक्षांशों के मध्य मिलता है। मानसून हवाओं की पेटी में ग्रीष्मकाल के 4-5 महीनों में वर्षा होती है, जबकि शीत ऋतु शुष्क रहती है। मुम्बई में वर्षा का जून से सितम्बर तक का औसत 190 सेमी तथा दिसम्बर से मार्च तक का औसत 5 सेमी रहता है। मानसूनी पवनों की पेटी में वर्षा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वर्षा की मात्रा व समय में अनिश्चितता है। कभी-कभी लम्बी अवधि वाली अतिवृष्टि या अनावृष्टि से घोर संकट उत्पन्न हो जाता है। कभी बाढ़ से अपार क्षति तथा कभी अवर्षण या सूखे से अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
(iv).पछुआ पवनों की पेटी-पछुआ पवनों की पेटी (40°-65° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलाद्धौँ) में वर्ष भर प्रत्येक माह में वर्षा होती है। शीतकाल में चक्रवातों की संख्या अधिक होने से चक्रवातीय अथवा वाताग्री वर्षा होती है, जिसका प्रभाव महासागरों एवं महाद्वीपों के पश्चिमी तटवर्ती क्षेत्रों पर अधिक पड़ता है। ग्रीष्मकाल में धरातल के ऊष्मा से वायु की परतों में जलवाष्प ग्रहण करने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है जिससे ग्रीष्म ऋतु में भारी वर्षा होती है।
(v).भूमध्यसागरीय प्रदेश- इस प्रदेश की स्थिति 30° से 45° अक्षांशों के मध्य दोनों गोलाद्धों में है। भूमध्यसागर के निकटवर्ती भाग, कैलिफोर्निया, मध्य चिली, दक्षिणी अफ्रीका का दक्षिणी-पश्चिमी भाग तथा पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया का दक्षिणी-पश्चिमी भाग इसमें सम्मिलित हैं। ये क्षेत्र शीत ऋतु में पछुआ पवनों की पेटी तथा ग्रीष्म ऋतु में व्यापारिक पवनों की पेटी में आ जाते हैं। शीत ऋतु में चक्रवातों द्वारा साधारण वर्षा होती है। आकाश में मेधाच्छादन कम होता है। मौसम प्रायः स्वच्छ तथा धूपदार होता है। भूमध्यसागरीय प्रदेश में वर्ष भर में केवल तीन महीने वर्षा होती है। ग्रीष्मकाल में सन्मार्गी पवनें चलने के कारण वर्षा नहीं होती है।
(vi) स्टेप्स प्रदेश- इस प्रदेश के अन्तर्गत भूमध्यसागर के निकट स्थित दक्षिणी-पूर्वी रूस, तूरान, टर्की तथा उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी प्रदेश आते हैं। इन प्रदेशों में ग्रीष्म ऋतु शुष्क होती है तथा बसन्त ऋतु एवं ग्रीष्मकाल के प्रारम्भ में वर्षा होती है।
(vii) ध्रुवीय प्रदेश-66° से 90° अक्षांशों तक दोनों गोलाद्धों में ध्रुव प्रदेश स्थित हैं। इस क्षेत्र में वर्ष भर तापमान कम रहता है तथा प्रतिचक्रवातीय दशाएँ पायी जाती हैं। थोड़ी वर्षा हिम के रूप में होती है। क्रिचफील्ड के अनुसार ध्रुव प्रदेश में वर्षा का वार्षिक औसत 35 सेमी से कम रहता है। ग्रीष्मकाल में यहाँ तूफानों के द्वारा वायु में जलवाष्प की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक हो जाती है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 3. वर्षा का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-किसी माध्यम से ऊपर उठी हुई वायु के शीत होने से वाष्प, जलकणों के रूप में बदल जाते हैं तथा बादलों का रूप धारण कर लेते हैं। जब बादलों में भारी जल कणों की अधिकता हो जाती है तब वायु उन्हें रोक नहीं पाती है और वहीं जल-कण वर्षा के रूप में बरसने लगते हैं। साधारणतया ‘वर्षा’ का तात्पर्य जल-वर्षा से ही निकाला जाता है। वर्षा होने के लिए निम्न दो बातें अत्यन्त आवश्यक हैं-
(i) वायु में जल-वाष्प की अधिकता होनी चाहिए।
(ii) ऐसे साधन उपलब्ध होना, जिससे वायु ऊपर उठ सके तथा यही वाष्पयुक्त वायु शीत होकर घनीभूत हो सके। वाष्पयुक्त वायु निम्नलिखित विधियों में शीत हो सकती हैं-
1.गर्म वायु हल्की होकर ऊपर उठती है तथा ऊपर जाकर फैल जाती है।
2.गर्म वायु का उच्च पर्वत-श्रेणियों से टकराना तथा उनके ऊपर चढ़ना एवं ऊँचाई पर जाकर बर्फ से ढके हुए भाग के सम्पर्क में आकर ठण्डा हो जाना।
3.गर्म वायु ठण्डे अक्षांशों की ओर अग्रसर हो जाना।
4.गर्म वायु का शीत वायु अथवा शीत-जलधारा के सम्पर्क में शीत होना।
प्रश्न 4. वर्षा के प्रमुख प्रकार बताइए तथा संवहन वर्षा की विशेषताएँ लिखिए।
अथवा
वर्षा के विभिन्न प्रभावों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-वर्षा का प्रकार-वर्षा मुख्यतः तीन प्रकार की होती है-
(1)संवहन वर्षा, (2) पर्वतीय वर्षा, (3) चक्रवातीय वर्षा।
(1) संवहन वर्षा-इस प्रकार की वर्षा, भूमध्यरेखीय प्रदेशों में होती है जहाँ कि अत्यधिक गर्मी पड़ने के कारण वायु ऊष्मा ग्रहण कर ऊपर जाती है तथा समुद्री जल तीव्रता से वाष्प रूप में बदलकर ऊपर जाना शुरू कर देता है। इस सम्पूर्ण क्रिया को ‘संवहन’ नाम दिया गया है अर्थात् गर्म प्रदेशों में वायु गर्म होकर हल्की हो जाती है और ऊपर जाने लगती है, वहाँ शीत हो जाती है तथा वाष्प के द्रवीभूत होने के कारण वर्षा प्रारम्भ हो जाती है।
(2).पर्वतीय वर्षा-विश्व में अत्यधिक वर्षा इसी प्रकार होती है। पर्वतीय वर्षा वाष्पयुक्त वायु पर्वतों से टकराकर, ऊपर उठ जाती है और वहाँ ठण्डी होकर घनीभूत हो जाती है तथा वर्षा कर देती है।
(3) चक्रवातीय वर्षा-इस प्रकार की वर्षा उन क्षेत्रों में होती है जहाँ (शीतोष्ण क्षेत्र में) पछुआ हवायें चलती हैं। इसमें वर्षा चक्रवातों के माध्यम से होती है। जब अधिक दबाव वाले क्षेत्र में कम दबाव वाला क्षेत्र उत्पन्न हो जाता है तो आस-पास की वायु केन्द्र की ओर दौड़ती है तथा विवश होकर ऊपर की ओर बहने लगती है। इस भाँति शीत हो जाने पर वाष्प जल कणों में परिवर्तित हो जाती है और वर्षा करने लगती है। उत्तरी भारत में शीत ऋतु में इस प्रकार की चक्रवातीय वर्षा छुट-पुट होती है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 5. आर्द्रता किसे कहते हैं?
उत्तर– वायु में स्थित जल या गैसीय रूप (वाष्प) ही वायुमण्डल की आर्द्रता या नमी होती है। यह आर्द्रता पृथ्वी से वाष्पीकरण के विभिन्न रूपों से वायुमण्डल में पहुँचती है। आर्द्रता पर ही जलवर्षा तथा वर्षण के विभिन्न रूप, वायुमण्डलीय तूफान तथा विक्षोभ आदि आधारित होते हैं।
प्रश्न 6. निरपेक्ष आर्द्रता।
उत्तर– वायु के निश्चित आयतन पर उसमें उपस्थित कुल नमी की मात्रा को ‘निरपेक्ष आर्द्रता’ कहते हैं। यह आर्द्रता वायु के निश्चित आयतन पर जलवाष्प के भार को प्रदर्शित करती है। भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर तथा सागर तट से महाद्वीपों के आंतरिक भागों की ओर निरपेक्ष आर्द्रता की मात्रा घटती जाती है। शीतकाल की अपेक्षा ग्रीष्मकाल में तथा रात की अपेक्षा दिन में निरपेक्ष आर्द्रता अधिक होती है। निरपेक्ष आर्द्रता की मात्रा पर वर्षा की संभावना निर्भर होती है।
प्रश्न 7. सापेक्षिक आर्द्रता।
उत्तर– किसी निश्चित तापमान पर निश्चित आयतन वाली हवा की आर्द्रता सामर्थ्य तथा उसमें मौजूद आर्द्रता की वास्तविक मात्रा के अनुपात को सापेक्षिक आर्द्रता कहते हैं। तापमान बढ़ने पर सापेक्षिक आर्द्रता कम हो जाती है तथा घटने पर बढ़ने लगती है क्योंकि निरपेक्ष आर्द्रता तो स्थिर रहती है, जबकि सामर्थ्य में अन्तर आता रहता है।
प्रश्न 8. संघनन क्या है?
उत्तर– जल के गैसीय रूप का जल में रूपांतरण ही संघनन कहा जाता है। इस तरह संघनन वाष्पीकरण का विलोम रूप होता है। संघनन की क्रिया वायुमण्डल में स्थित सापेक्षिक आर्द्रता की मात्रा पर आधारित होती है। जब हवा में सापेक्षिक आर्द्रता शत-प्रतिशत हो जाती है तो उस हवा को संतृप्त हवा कहते हैं।
प्रश्न 9. कुहरा किसे कहते हैं?
उत्तर– लघु जलसीकरों से परिपूर्ण कुहरा एक प्रकार का बादल होता है, जो कि सामान्य बादलों के विपरीत धरातल के समीप पाया जाता है तथा धरातल की अदृश्यता के लिए उत्तरदायी होता है। यदि बादलों का निर्माण गर्म हवा के ऊपर उठकर फैलने तथा ठण्डी होने के कारण होता है तो कुहरा का सृजन धरातल के पास विकिरण, परिचालन तथा गर्म एवं ठण्डी वायुराशियों के मिश्रण के कारण होता है।
प्रश्न 10. वाष्पीय कुहरा किसे कहते हैं?
उत्तर– यह एक प्रकार से सम्पर्कीय कुहरे का ही रूप है, अन्तर केवल इतना है कि इसका निर्माण उस समय होता है, जबकि ठण्डी हवा गर्म सागरीय भाग के ऊपर आ जाती है। इस कारण सागरों के ऊपर की गर्म हवा ठण्डी हवा के संयोग से संघनित होने लगती है, जिस कारण कुहरा का आविर्भाव हो जाता है। जल के ऊपर बाष्प के कण दूर से ऐसे दिखते हैं, लगता है कि जल से भाप निकल रही हो। इसी कारण से आत्मकालिक कुहरा को ‘वाष्पीय कुहरा’ कहते हैं। उच्च अक्षांशों में प्रायः ऐसा होता रहता है तथा इन्हें ध्रुवीय धुँआ कहते हैं।
प्रश्न 11. पहाड़ी कुहरा।
उत्तर– महाद्वीपों के भीतर चलने वाली उष्णार्द्र हवा जब पहाड़ी ढालों के सहारे ऊपर उठती है, तो संघनन के कारण कुहरे का निर्माण करती है, जिससे पहाड़ी का निचला हिस्सा ढक जाता है तथा अदृश्यता बढ़ जाती है। इस प्रकार का कुहरा प्रायः शीतोष्ण कटिबन्ध में पहाड़ी ढलानों पर किसी भी मौसम में होता रहता है।
प्रश्न 12. सीमान्त कुहरा क्या है?
उत्तर– जब दो विपरीत स्वभाव वाली हवाएँ विपरीत दिशाओं से आकर एक रेखा के सहारे आमने- सामने मिलती है तो वाताग्र का निर्माण होता है। इस वाताग्र के सहारे गर्म हवा, ठण्डी हवा के ऊपर उठती है, जिस कारण वह ठण्डी होती है तथा संघनन के बाद कुहरा उत्पन्न हो जाता है। वास्तव में ऊपर उठी हवा के संघनन के कारण वर्षा होती है, जिससे निचली ठण्डी हवा आर्द्र हो जाती है और कुहरा प्रारंभ हो जाता है।
प्रश्न 13.पक्षाभ बादल।
उत्तर-ऐसे बादल सबसे अधिक ऊँचाई पर प्रायः छितराये रूप में रेशम के सदृश दिखते हैं, क्योंकि इनका निर्माण छोटे-छोटे हिमकणों द्वारा होता है, जिनसे होकर सूर्य की किरणें गुजरती हैं तथा श्वेत रंग हो जाता है, परन्तु सायंकाल में कई रंग हो जाते हैं। जब ये मेघ असंगठित तथा छितराये रूप में होते हैं तो साफ मौसम की सूचना होती है, परन्तु जब संगठित होकर विस्तृत क्षेत्र में फैल जाते हैं तो निश्चय ही मौसम खराब हो जाता है। चक्रवातों के आगमन से पहले आकाश में पक्षाभ मेघ दिखाई देने लगते हैं।
प्रश्न 14. संवहनीय वर्षा।
उत्तर– दिन में अत्यधिक उष्मा के कारण धरातल गर्म हो जाता है, जिस कारण वायु गर्म होकर फैलती है तथा हल्की होने के कारण ऊपर उठती है। जिस कारण वायु ठण्डी हो जाती है और उसकी सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ने लगती है। शीघ्र ही वायु संतृप्त हो जाती है तथा पुनः ऊपर उठने पर संघनन प्रारंभ हो जाता है, जिस कारण ‘संघनन की गुप्त उष्मा’ वायु में मिल जाती है, जिससे वायु पुनः ऊपर उठने लगती है और अंततः उस सीमा को पहुँच जाती है जहाँ पर स्थित वायु का तापमान इसके बराबर हो जाता है। इस अवस्था में संघनन के बाद कपासी वर्षा मेघ का निर्माण हो जाता है तथा तीव्र वर्षा प्रारंभ हो जाती है।
प्रश्न 15. पर्वतीय वर्षा।
उत्तर– उष्ण एवं आर्द्र हवाएँ जब पर्वतीय भागों से अवरुद्ध होती हैं तो उनके ढाल के सहारे ऊपर उठने लगती हैं, जिस कारण शुष्क एडियावेटिक ताप पतन दर (प्रति 1000 मीटर पर 10°C) द्वारा ठण्डी होने लगती है, जिस कारण वायु की सापेक्षिक आर्द्रता बढ़ने लगती है तथा एक निश्चित ऊँचाई पर पहुँचने पर हवा संतृप्त हो जाती है तथा संघनन प्रारंभ हो जाता है। घनघोर विस्तृत बादल छा जाते हैं तथा वर्षा प्रारंभ हो जाती है।
प्रश्न 16. वृष्टि छाया प्रदेश।
उत्तर– पर्वत के जिस ढाल के सहारे हवा नीचे उतरती है, उसे पवन विमुखी ढाल कहते हैं। नीचे उतरने के कारण हवा का तापमान प्रति 1000 मीटर पर 10°C की दर से बढ़ने लगता है, जिस कारण वायु की शुष्कता बढ़ती जाती है, क्योंकि वायु की आर्द्रता सामर्थ्य में वृद्धि के कारण सापेक्षिक आर्द्रता घटती जाती है। परिणामस्वरूप पवनविमुखी ढाल पर वर्षा नहीं हो पाती है। अतः इस ढाल को वृष्टि छाया प्रदेश कहते हैं।
प्रश्न 17. चक्रवातीय वर्षा।
उत्तर– इस प्रकार की वर्षा गर्म और शीतल वायु राशियों के आपस में मिलने से होती है क्योंकि हल्की गरम वायु ऊपर उठती है तथा भारी शीतल वायु नीचे बैठती है। अतः ऊपर उठनेवाली वायु ठण्डी होकर वर्षा करने लगती है। इस प्रकार की वर्षा प्रायः शीतोष्ण कटिबन्ध में होती है।
प्रश्न 18. वर्षा किसे कहते हैं?
उत्तर– इसके अंतर्गत जल की बूँदें गिरती हैं। इन जल की बूंदों का निर्माण संघनन की प्रक्रिया से बनी छोटी-छोटी बूंदों के मिलने से होता है। इन बूँदों का आकार 0.5 मिलीमीटर से 1.5 मिलीमीटर तक हो सकता है।
प्रश्न 19. हिमपात।
उत्तर– जब संघनन जमाव बिन्दु से नीचे चला जाता है तब जलवाष्प हिम के छोटे-छोटे कणों में परिवर्तित हो जाते हैं। ये ही छोटे-छोटे कण आपस में मिलकर विभिन्न आकारों में गिरते हैं।
