GEOGRAPHY
SEMESTER – I
A110101T
UNIT 5
Table of Contents
इकाई -5(I) वायुमण्डल का संगठन और संरचना
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. वायुमण्डल की संरचना एवं परतों की विवेचना कीजिए।
अथवा
वायुमण्डल की विभिन्न परतों की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
वायुमण्डल से क्या तात्पर्य है? इसके संघटन का वर्णन कीजिए।
अथवा
वायुमण्डल के संघटन एवं संरचना का वर्णन कीजिए।
वायुमण्डल:-
वायुमण्डल पृथ्वी को चारों ओर से परिवेष्ठित करने वाला एक भारी ढक्कन है जिसको फिंच तथा दिवार्था महोदय ने वायुमण्डल की संज्ञा प्रदान की है। यह आकर्षण शक्ति के प्रभाव से पृथ्वी के साथ ही सूर्य की परिक्रमा करता है। यह गैसीय है और पृथ्वी तल से इसकी मोटाई भू-भौतिकी वर्ष के आविष्कारों के अनुसार 800 किलोमीटर है, किन्तु अन्य वैज्ञानिक खोजों के अनुसार इसकी मोटाई कई हजार किलोमीटर आंकी गयी है।
वायुमण्डल का संघटन:-
वायुमण्डल में निहित वायु अनेक गैसों का मिश्रण है। वायुमण्डल मुख्य रूप से तीन पदार्थों से मिलकर बना है- (1) गैस, (2) जल (3) धूल-कण।
वायुमण्डल का लंबावत विस्तार:-
कृत्रिम उपग्रहों की सहायता से वैज्ञानिकों ने वायुमण्डल की ऊँचाई 16 हजार से 32 हजार किमी तक आंकलित की है। वायुमण्डल की निचली परतें सघन होती हैं, जबकि ऊपरी परतें क्रमशः विरल होती चली जाती हैं। धरातल से लगभग 27 किमी की ऊँचाई तक वायुमण्डल के कुल भार का लगभग 97% भाग उपस्थित रहता है। इसके ऊपर वायु अत्यन्त विरल मिलती है।
वायुमण्डल की परतें एवं उनकी विशेषताएँ मेजर फ्राडनी, डॉ० पिकार्ड, कप्तान स्थीनस तथा बेंसकी नामक वैज्ञानिकों के शोधों के आधार पर वायुमण्डल की पाँच परतें मानी जाती हैं, जिनके विभाजन का आधार ऊँचाई तथा तापमान में परिवर्तन है-
1.क्षोभ मण्डल, 2. क्षोभ सीमा, 3. समतापी मण्डल, 4. ओजोन मण्डल, 5. आयन मण्डल।
1.क्षोभ मण्डल-यह परत भूमध्य रेखा पर 16 किमी मध्यवर्ती अक्षांशों पर 11 किमी तथा ध्रुवों पर 6.5 किमी मोटी होती है। यह परत पृथ्वी के धरातल के निकट होने के साथ ही जलवाष्प, जलकण तथा धूलिकण से परिपूरित होती हैं जिससे पार्थिव विकिरण को सोखने में सक्षम होती है। इस मण्डल में ऊष्मा के वितरण पर संचालन, विकिरण तथा संवहन का प्रभाव पड़ता है। इसमें प्रति किलोमीटर ऊँचाई पर 60 सेग्रे० तापमान कम हो जाता है। धरातल का औसत तापमान 180° सेग्रे० रहता है। इस परत में आँधी, तूफान, घन गर्जन तथा विद्युत प्रकाश की घटनाएँ होती हैं। इसके तापमान, वायु वेग, वायु दिशा, बादल, वृष्टि तथा आर्द्रता में बड़ा विभेद मिलता है। इस भाग में संवहन हवाएँ भी चलती हैं। इस प्रदेश को विक्षुब्ध संवहन स्तर भी कहते हैं। इस परत में मानव के सभी कार्य-कलाप होते हैं, अतः इसका बहुत महत्त्व है।
2.क्षोभ सीमा-वायुमण्डल की वह पेटी है जिसमें क्षोभ मण्डल की पेटी की विशेषताएँ विलीन हो जाती हैं और समतापी मण्डल की परत प्रारम्भ हो जाती है। वास्तव में यह क्षोभ मण्डल तथा समतापी मण्डल की परतों का संक्रमण भाग है। यह पेटी 1.5 किमी मोटी है। इसमें उष्ण कटिबन्ध में तापमान 80° सेग्रे० तक गिर जाता है। ध्रुवीय प्रदेशों में इसका तापमान 55° सेग्रे० रहता है। यहाँ वायुमण्डल की दशा शान्त रहती है। इसी कारण वायु विक्षोभ में पड़ने पर वायुयान-चालक अपने वायुयानों को इस परत में ले जाते हैं। इस परत में तापमान न्यूनतम पाया जाता है।
3.समतापी मण्डल-क्षोभ सीमा के ऊपर लगभग 50 किमी मोटाई की यह परत है। इस परत में तापमान समान रहता है। इसकी खोज का श्रेय यूरोपीय विद्वान् तिसरा डिबोर्ट को है। इस परत में ग्रहण की हुई विकिरण भी प्रसृत विकिरण के बराबर होती है। इसमें बादल नहीं होते हैं। धूलिकण तथा जलवायु बहुत कम पाया जाता है। स्थिति तथा ऋतुओं के अनुसार इस परत की ऊँचाई बदलती रहती है। ग्रीष्म ऋतु की अपेक्षा ऊँचाई अधिक होती है। तापमान भी स्थिति पर निर्भर करता है।
4.ओजोन मण्डल-इस परत में ओजोन गैस की बहुलता होती है। यह परत 40 से 50 किमी ऊँचाई तक है। यह सूर्य की किरणों द्वारा अधिक उष्ण रहता है। यह पराबैंगनी किरणों को सोख लेती है। यह परत सूर्य के हानिकारक प्रभाव से बचने की मुख्य रक्षा पंक्ति है। एक किलोमीटर ऊँचाई पर 160 सेग्रे. तापमान बढ़ जाता है। इसमें मुक्त-मेच जननी पाये जाते हैं।
यह परत भी वायुमण्डल के ताप का दूसरा स्रोत है। इसी कारण इस परत से नीचे की ओर तापमान क्रमशः घटता जाता है। अतः ओम सीमा पर तापमान न्यूनतम पाया जाता है।
समतापी मण्डल तथा ओजोन मण्डल की ऊपरी सीमा स्वरित सीमा कहलाती है।
5.आयन मण्डल-यह 80 किमी से ऊपर 320 किमी तक विस्तृत है। इसमें चार परतें हैं। आयन मण्डल का ज्ञान रेडियो तरंगों, ध्वनि तरंगों, उल्का चमक, ध्रुवीय सुमेरु ज्योति, रात्रि में आकाश का वर्णपट तथा अन्तरिक्ष किरण की सहायता से किया जाता है।
इस परत में तापमान का वितरण असमान तथा अनिश्चित है। प्रायः ऊँचाई के साथ तापमान बढ़ता है, किन्तु कभी-कभी तापमान घटत्ता भी है।
इस मण्डल के ऊपर 480 किमी ऊँचाई के बाद हाइड्रोजन तथा हीलियम गैसों से पूर्ण बाह्य मण्डल है। इस परत में अधिक तापमान का अनुमान है।
वायुमण्डल का प्रभाव मौसम, जलवायु, कृषि उपज तथा परिवहन के साधनों पर पड़ता है। यह जीवन की सृष्टि करता है।
6.आयतन मण्डल या बहिर्मण्डल-आयतन मण्डल के ऊपर धरातल से 640 किमी से अधिक ऊँचाई पर आयतन मण्डल या बाह्य मण्डल स्थित है। इस मण्डल में हाइड्रोजन तथा हीलियम जैसी हल्की गैसों की प्रधानता रहती है। यहाँ वायु अत्यधिक विरल होती है तथा वायु का तापमान लगभग 6,000 डिग्री सेग्रे० के आसपास रहता है।
प्रश्न 2. सूर्यातप के वितरण पर वायुमण्डल के प्रभावों को बताइए।
अथवा
सूर्यातप से आप क्या समझते हैं? इसके वितरण को प्रभावित करने वाले कारकों की व्याख्या कीजिए।
अथवा
सूर्यातपन क्या है? भू-पृष्ठ पर सूर्यातपन के असमान वितरण के कारणों की व्याख्या कीजिए।
हमारा सूर्य ऊष्मा का भण्डार है। इससे सर्वदा ऊष्मा का विकिरण होता रहता है। सूर्य के केन्द्र का तापमान 28 करोड़ अंश सेण्टीग्रेड अनुमानित है। सूर्य के विशाल पिण्ड से निकलने वाली ताप-तरंगों के विशाल पुंज का ही नाम सूर्यातप है। ऊष्मा की यह प्रचण्ड शक्ति प्रति मिनट डेढ़ करोड़ किलोमीटर से भी अधिक तीव्र है और 9 मिनट में पृथ्वी तल पर पहुँच जाती है। ऊष्मा की मात्रा सर्वत्र स्थिर है। इसीलिए इसको सौर्थिक ऊष्मांक कहते हैं।
सूर्यातप को प्रभावित करने वाले कारक:-
1.सूर्यातप की मात्रा-सूर्य पृथ्वी से 1,488 लाख किलोमीटर दूर है। इसके धरातल का तापमान 6.700° सेग्रे. है। वैज्ञानिक किम्बल के अनुसार 5 प्रतिशत सूर्यातप मार्ग में ही नष्ट हो जाता है, जिसमें 42 प्रतिशत आतप ऊपर तल की गैसें लौटा देती हैं। 15 प्रतिशत आतप जलवाष्प, धूलिकण तथा निचली अन्य गैसों से रोक लिया जाता है। केवल 42 प्रतिशत आतप पृथ्वी तल पर पहुँचता है। यही सूर्यातप कहलाता है।
2.भूमि की ऊँचाई-पर्वतों के ऊपरी भाग कम तापमान प्राप्त करते हैं और नीचे के भागों में अधिक तापमान रहता है, क्योंकि सूर्य के साथ पृथ्वी का धरातल भी ऊष्मा प्रदान करता है।
सूर्य की किरणें-सूर्य की किरणें धरातल पर एक समान नहीं पड़ती हैं। कहीं किरणें लम्बवत् पड़ती है तो कहीं तिरछी। भूमध्य रेखा के भागों में सूर्य की किरणें लम्बवत् पड़ती हैं और ध्रुवों की तरफ तिरछी पड़ती हैं।
3.जल-थल का वितरण-स्थल के भाग जल भाग की अपेक्षा शीघ्रता से गर्म तथा शीघ्रता से ठण्डे हो जाते हैं। इसका कारण स्थल भाग का खुरदुरा तल तथा पानी का चिकना तल है। जल भाग को गर्म करने के लिए थल भाग की अपेक्षा पाँच गुनी गर्मी की आवश्यकता पड़ती है। जल भाग के ऊपर जलवाष्प तथा बादलों के आवरण सूर्य तथा पृथ्वी से ऊष्मा विकिरण में बाधक सिद्ध होते हैं।
4.धरातल का स्वभाव-धरातल के स्वभाव एवं रंग का प्रभाव भी सूर्यातप पर पड़ता है। मिट्टी के रंग का भी प्रभाव पड़ता है। काली मिट्टी अधिक सूर्यातप सोखती है। साधारण मिट्टी वाले भाग पथरीले तथा बर्फीले भागों की अपेक्षा, शीघ्र गर्म हो जाते हैं। वनस्पतिविहीन प्रदेश की शुष्क भूमि में अधिक सूर्यातप का प्रवेश होता है।
5.वायुमण्डल की मोटाई तथा पारदर्शिता-जहाँ वायुमण्डल की मोटाई अधिक होती है, उस स्थान पर सूर्यातप कम आता है। यदि आकाश में धूलि के कण तथा बादल अधिक होते हैं तो सूर्यातप का विकिरण कम होता है।
6.सौरकलंकों की संख्या जब सूर्य पर सौरकलंकों की संख्या अधिक होती है तो पृथ्वी तल पर सूर्यातप आता है, क्योंकि अधिक सौर शक्ति निकलने से अधिक वाष्प बनती है और हैं जिनमें पृथ्वी तल तक कम सूर्यातप पहुँचता है।
7.पृथ्वी से सूर्य की दूरी-सूर्य से पृथ्वी की दूरी सदा एक सी नहीं रहती है। उपसौर में सूर्य से पृथ्वी की दूरी अधिक होती है और अपसौर में कम ।
सूर्यातप तथा अक्षांश-सूर्यातप का वितरण अक्षांशों से सम्बन्धित होता है। भूमध्यरेखा से ध्रुवों की ओर सूर्यातप क्रमशः कम होता जाता है और ध्रुवों पर शून्य हो जाता है। इसका प्रमुख कारण विकिरण परावर्तन है।
प्रश्न 3. पृथ्वी तल पर पाई जाने वाली वायुदाब पेटियों की उत्पत्ति कैसे होती है? उन वायुदाब पेटियों की रचना के फलस्वरूप होने वाली पवनों का वर्गीकरण कीजिए।
वायु में दाब होता है। इसको प्रभावित करने वाले भौगोलिक तत्त्व तापमान, ऊँचाई तथा जल वाष्प हैं
1.वायुदाब और तापमान-किसी स्थान के वायुदाब पर उस स्थान के तापमान का गहरा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि गर्मी पाकर हवा गर्म होती है और उसका आयतन बढ़ जाता है। कम वायुदाब की हवा हल्की होने के कारण ऊपर के वायुदाब को बढ़ा देती है, जिसके कारण अधिक वायुदाब तथा कम वायुदाब के क्षेत्र आस-पास बन जाते हैं। यह तापीय नियंत्रण कहलाता है।
अधिक तापमान से वायुदाब कम हो जाता है, ठीक इसके विपरीत कम तापमान अधिक वायुदाब का कारण है। चूंकि पृथ्वी के धरातल पर तापमान में भिन्त्रता पायी जाती है, अतः धरातल पर वायुदाब भित्र- भिन्न मात्रा में पाया जाता है। जिस प्रकार समय के अनुसार विभिन्न स्थानों के तापमान में परिवर्तन होता है उसी प्रकार समयानुसार वायुदाब में भी परिवर्तन पाया जाता है।
2.वायुदाब तथा ऊँचाई-वायु मण्डल की निचली तहों में वायु भारी तथा धनी होती है। वायु मण्डल में ऊँचाई के साथ-साथ, वायु हल्की तथा फैली हुई पायी जाती है जिसका दाब कम होता है। समुद्री तल पर हवा और औसत दाब 2.7 किलोग्राम प्रति वर्ग सेण्टीमीटर होता है, परन्तु वायुदाबमापी द्वारा समुद्री तल पर हवा का दाब 1,013 मिलीबार होता है। ऊँचाई के अनुसार वायुदाब कम होने के कारण पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। गुरुत्वाकर्षण शक्ति का उद्भव पृथ्वी की दैनिक गति तथा वायुदाब से ही है। फलतः ऊँचाई के साथ वायुदाब का कम होना गतिशील कारणों से प्रभावित होता है इसको नैतिक नियंत्रण कहते हैं।
3.पृथ्वी की दैनिक गति-पृथ्वी की दैनिक गति वायुमण्डलीय दाब को अत्यधिक प्रभावित करती है। भ्रमण करती हुई पृथ्वी का यह नियम है कि धरातल पर दाब का अनुपात लगभग सन्तुलित रखे। साथ ही पृथ्वी की दैनिक गति के कारण ही दिन-रात होते हैं। घूमती हुई पृथ्वी में हर वस्तु को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति बढ़ जाती है। समस्त वस्तुओं को अपने केन्द्र की ओर आकर्षित करती है। अक्षांशों पर वायुमण्डलीय दाब अत्यधिक बढ़ जाता है और यही कारण था कि पुराने समय में नाविकों की नावें अज्ञानता में डूब जाती थीं।
4.दैनिक परिवर्तन की गति-दैनिक परिवर्तन की गति का तात्पर्य यह है कि दिन और रात के समय वायुमण्डलीय दाब तथा तापक्रम में क्या परिवर्तन होते रहते हैं। बैरोमीटर में यह परिवर्तन स्थिति तथा दशा के अनुसार अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न पाये जाते हैं। बैरोमीटर में पारे का अत्यधिक उतार- चढ़ाव भूमध्य रेखीय प्रदेशों के निकट ही अधिक पाया जाता है। यदि बैरोमीटर को 600 उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांश पर ले जायें, तो पारे की क्रिया बहुत कम हो जायगी और ध्रुवीय प्रदेशों में बिल्कुल ही नहीं होगी। 5. वायुदाब तथा जल-वाष्प-शुष्क वायु नम वायु की अपेक्षा भारी होती है। इसका कारण यह है कि वाष्प का दाब वायु मण्डल की निचली तहों की दाब से हल्का होता है।
वायुदाब एवं पृथ्वी की दैनिक गति-पृथ्वी की दैनिक गति के कारण वायुदाब बदलता रहता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति पृथ्वी के परिभ्रमण गति से उत्पन्न होती है जो उष्ण हल्की वायु के ऊपर उठने पर भारी वायु को उसके नीचे उतार देती है। विषुवत् रेखा तथा ध्रुवों पर कम वायुदाब तथा मध्य अक्षांश में अधिक वायुदाब हो जाता है।
धरातल पर वायुदाब का वितरण धरातल पर वायुदाब का वितरण तापमान के वितरण के समान ही प्रदर्शित किया जाता है। जिस प्रकार तापमान समतापी रेखाओं के द्वारा दिखाया जाता है, उसी प्रकार वायुदाब रेखाओं द्वारा दिखाया जाता है। धरातल पर समदाब रेखाएँ व कल्पित रेखाएँ समीप होती जाती हैं जो बराबर वायुदाब वाले स्थानों को मिलती हैं। समदाब रेखाओं को भी खींचते समय रेखाओं के समान धरातल की विभिन्न ऊँचाई का ध्यान रखा जाता है और प्रति 275 मीटर की ऊँचाई पर 33 मिलीबार दाब का अन्तर मानकर समदाब रेखाएँ खींची जाती हैं। यदि किसी स्थान की हवा का दाब 792 मिलीबार है और वह स्थान समुद्र तल से 1,375 मीटर ऊँचा है तो समदाब रेखाएँ खींचने के लिए उस स्थान का दाब 1375/275 x 33 = 792 मिलीबार x 165 मिलीबार = 9.57 मिलीबार मान लिया जायगा।
चूँकि ग्लोब की कीली सूर्य की किरणों के साथ सर्वदा समकोण बनाती है, अतः भूमध्य रेखीय भाग सबसे गर्म होगा और ध्रुवों की ओर तापमान घटता जायेगा। ध्रुव की ओर वायुदाब के घटने का दूसरा कारण पछुआ हवा तथा चक्रवातों में वायु भँवर बन जाता है।
वायुदाब की पेटियाँ:-
1.विषुवतीय अल्पदाब कटिबन्ध-यह पेटी भूमध्य रेखा के दोनों ओर 5° अक्षांश उत्तर तथा 5° अक्षांश दक्षिण के बीच फैली हुई है। इस पेटी को भूमध्य प्रशान्त मण्डल भी कहा जाता है। इस भाग में सूर्य की लम्बवत् किरणें साल भर चमकती हैं। इस कारण यहाँ पूरे साल हवा हल्की होकर उठती रहती है और हवा का दबाव कम रहता है। हवा के ऊपर उठने के कारण यहाँ की हवा में संवहनीय धाराएँ पैदा हो जाती हैं।
2.उपोष्ण उच्च दाब कटिबन्ध-शान्त पेटी से ऊपर उठने वाली हवा वायुमण्डल से क्षोभ- मण्डल के ऊपरी भाग में चलने लगती है। दोनों गोलाद्धों में यह हवा 300 से 350 अक्षांशों के बीचों- बीच उतरने लगती है। हवा के नीचे उतरने का कारण पृथ्वी की दैनिक गति से उत्पत्र विक्षेपक बल माना जाता है।
3.उपध्रुवीय अल्पदाब कटिबन्ध-ये पेटियाँ गोलाद्धों में उत्तरी तथा दक्षिणी अक्षांशों के निकट हैं। इस भाग में तापमान कम होने पर भी कम वायुदाब के निम्न कारण हैं-
(i).कर्क एवं मकर रेखाओं तथा ध्रुवों पर हवा का दाब अधिक होता है। अतः दोनों के मध्य में कम वायुदाब होना स्वाभाविक है। यह पेटी दो अधिक वायुदाब की पेटियों को अलग करती है।
(ii).धरातल पर इन भागों में जल और थल के बीच अधिक भिन्नता पायी जाती है। इस ध्रुवीय वाताग्र पर अनेक चक्रवात उत्पन्न हो जाते हैं, जिनकी प्रचण्डता के कारण अर्द्धस्थायी अल्पदाब बन जाता है।
(iii) पृथ्वी के तीव्र परिभ्रमण के कारण ध्रुवों की वायु सिमटकर भूमध्य रेखा की ओर खिसक जाती हैं और इन अक्षांशों में हवा कम हो जाती है।
4.ध्रुवीय उच्चदाब कटिबन्ध-दोनों ध्रुवों पर अति शीत के कारण हवा का दबाव अधिक रहता है, यद्यपि यहाँ की हवा हल्की है। इन भागों से हवा भूमध्य रेखा की ओर चलती है।
वायुदाब का ऋतुवत परिवर्तन:-
वायुदाब की पेटियाँ एक स्थान पर स्थायी रूप से नहीं रहती हैं, बल्कि वे मौसम के अनुसार भूमध्य रेखा के उत्तर तथा दक्षिण को खिसकती जाती हैं। वायुदाब की पेटियों के खिसकने के कारण तापमान की पेटियों का स्थानान्तरित होना है। महासागर पर हवाओं की पेटियों का स्थानान्तरण कम होता है, परन्तु महाद्वीपों पर इनका स्थानान्तरण अधिक होता है। महासागरों पर स्थानान्तरण 10° से 15° तक ही सीमित रहता है, किन्तु महाद्वीपों पर कई अक्षांशों तक स्थानान्तरण हो जाता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 4. वायुमण्डल के संघटन का उल्लेख कीजिए। उसमें कौन-सी गैसें रहती हैं?
उत्तर-गैस वायुमण्डल की शुष्क वायु में दो गैसें नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन मुख्य रूप से मिलती हैं। इन दोनों गैसों की मात्रा कुल वायुमण्डलीय गैसों में लगभग 99 प्रतिशत रहती है, जबकि आर्गन 0.93 प्रतिशत तथा कार्बन डाइऑक्साइड 0.03 प्रतिशत मिलती हैं। इसके अलावा अति अल्प मात्रा में नियान, हीलियम, मीथेन, क्रिप्टोन, हाइड्रोजन तथा जीनन गैसें मिलती हैं। नाइट्रोजन, ऑक्सीजन, आर्गन तथा हाइड्रोजन भारी गैसें हैं। अतः ये गैसें सामान्य रूप से वायुमण्डल के निचले स्तर में मिलती हैं, जबकि नियान, ओजोन, हीलियम, क्रिप्टोन तथा जीनन गैसें हल्की होने के कारण वायुमण्डल के ऊपरी स्तर में मिलती हैं। कार्बन डाइऑक्साइड वायुमण्डल में 20 किमी की ऊँचाई तक तथा हाइड्रोजन, नाइट्रोजन व ऑक्सीजन वायुमण्डल में लगभग 110 किमी की ऊँचाई तक मिलती हैं।
जल-वाष्प-जलीय भागों से जल वाष्पीकरण द्वारा जल-वाष्प वायुमण्डल में प्रवेश कर जाती है।
वायु की शुष्क अवस्था में वायुमण्डल में जल-वाष्प का प्रतिशत अति न्यून रहता है, जबकि अत्यधिक आई वायुमण्डल में केवल 5 किमी की ऊँचाई तक मिलती है। मौसम के बारे में जानने के लिए वायुमण्डल में जल-वाष्प का प्रतिशत जानना आवश्यक होता है, क्योंकि वायुमण्डल में जल वाष्प होने के कारण ही कुहरा, ओस, बादल, वर्षा तथा हिमपात धरातल पर दिखायी देते हैं।
प्रश्न 5. सूर्यातप से आशय स्पष्ट कीजिए।
अथवा
सूर्याभिताप पर एक संक्षिप्त निबन्ध लिखिए।
उत्तर-पृथ्वी के धरातल पर प्राप्त होने वाली ताप शक्ति का एकमात्र स्रोत सूर्य विकिरण है। सूर्य से निष्कासित ताप एवं शक्ति को सौर विकिरण कहा जाता है यह सौर विकिरण तरंगों के माध्यम से सूर्य से पृथ्वी के धरातल तक पहुँचती है। मोन्क हाउस लिखते हैं, “सूर्य के विकिरण का केवल आधा अरबवाँ भाग ही पृथ्वी पर आ पाता है।
पृथ्वी पर विकिरण से प्राप्त सूर्य की यह ऊर्जा सूर्यातप कही जाती है।“ केण्डू महोदय के अनुसार, “सूर्य से लगातार विकिरण के रूप में आने वाली ऊर्जा को सूर्यातप कहा जाता है।“
सूर्य के कुल विकिरण का जो 50 करोड़वाँ भाग सूर्यातप के रूप में पृथ्वी तक आता है, उसका भी 13 प्रतिशत भाग वायुमण्डलीय गैसों, जल-वाष्प तथा धूल कणों द्वारा सोख लिया जाता है, जबकि 35 प्रतिशत भाग वायुमण्डल तथा धरातल द्वारा परावर्तित होकर शून्य में लौट जाता है। शेष 52 प्रतिशत भाग धरातल को प्राप्त होता है।
प्रश्न 6. तापक्रम का क्षैतिज वितरण क्या है? स्पष्ट कीजिए।
अथवा
धरातल पर तापमान के क्षैतिज वितरण की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-धरातल पर तापक्रम वितरण का अक्षांशों अथवा क्षेत्रों के अनुसार अध्ययन तापक्रम का ‘क्षैतिज वितरण’ कहलाता है। सामान्यतया भूमध्य रेखा से उच्च अक्षांशों की ओर तापक्रमों में क्रमशः हास मिलते हैं। भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर तापक्रम के घटने की दर ताप-प्रवणता कहलाती है। ताप-प्रवणता कर्क रेखा तथा मकर रेखा के मध्य प्रायः मन्द होती है, जबकि कर्क रेखा तथा मकर रेखा से ध्रुवों की ओर ताप-प्रवर्तन गति होती है।
प्रश्न 7. तापीय विलोमता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-साधारण स्थिति में ऊँचाई के अनुसार तापमान कम होता है। यद्यपि तापमान की कमी का क्रम एक समान नहीं होता है। यह दिन के समय स्थिर तथा मौसम के अनुसार बदलता रहता है। प्रायः ऊँचाई के अनुसार 300 मीटर पर तापमान 180 सेग्रे. कम हो जाता है। इसको ताप ह्रास दर कहते है।
जब अधिक ठण्डी हवा धरातल के ऊपर आ जाती है तो वायुमण्डल की सामान्य दशा उल्टी हो जाती है और ऊँचाई के अनुसार तापमान वायुमण्डल में बढ़ने लगता है। इस प्रकार की वायुमण्डल की स्थिति को तापमान की व्युत्क्रमणता कहते हैं। देवार्था ने उस अवस्था में तापमान का व्युत्क्रमण बताया है जिसमें धरातल पर अधिक ठण्डी वायुपुंज और ऊपर अधिक ऊष्ण वायुपुंज मिलती है। जब ऊँचाई के अनुसार तापमान बढ़ता है तो इस गति को ऋण तक ह्रास दर (Negative Lapse rate) कहते हैं। यह व्युत्क्रमणता साधारणतया शीतोष्ण कटिबन्ध के मैदानों में होती है। इसका स्पष्ट रूप पर्वतीय प्रदेशों में मिलता है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 8. वायुमण्डल की स्थिर गैसें कौन-सी हैं?
उत्तर- नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा ऑर्गन वायुमण्डल की प्रमुख स्थिर गैसें हैं जिनका वायुमण्डल के गैसीय संघटन में हिस्सा क्रमशः 78.1, 20.9 तथा 0.9 प्रतिशत है। 80 किमी. की ऊँचाई तक निचले वायुमण्डल में स्थिर गैसों का प्रतिशत स्थिर रहता है।
प्रश्न 9. वायुमण्डल में परिवर्तनशील गैसें कौन-सी हैं?
उत्तर– परिवर्तनशील गैसों में जलवाष्प, कार्बन-डाइऑक्साइड, ओजोन, हाइड्रोजन, हीलियम, नियोन, जेनान, क्रिप्टान, मिथेन आदि प्रमुख हैं।
प्रश्न 10. एयरोसॉल क्या है?
उत्तर– बायुमण्डल में निलम्बित कणिकीय पदार्थों तथा तरल बूँदों को सम्मिलित रूप से एयरोसॉल कहते हैं। इसके अन्तर्गत ज्वालामुखी उद्भेदन के समय निस्सृत धूल एवं राख कणों, जुते हुए खेतों से उड़ाये गए धूलकणों, रेगिस्तानों से उड़ाये गए रेत कणों, चट्टानों के यांत्रिक अपक्षय से प्राप्त शैल-कणों, सागरीय सतह से निकले नमक-कणों, उल्का-कणों, जैविक पदार्थों, धुआँ एवं कालिख आदि को सम्मिलित किया जाता है।
प्रश्न 11. जल वाष्प किसे कहते हैं?
उत्तर– जल वाष्प वायुमण्डल का महत्त्वपूर्ण घटक है तथा इसके कारण संघनन एवं वर्षण के विभिन्न रूप एवं प्रकार जैसे कुहरा, पाला, ओस, ओला, हिमपात, जलवर्षा आदि संभव हो पाता है। वास्तव में जलवाष्प जल का गैसीय रूप है। क्षैतिज रूप में जल वाष्प की मात्रा ध्रुवों से भूमध्य रेखा की ओर बढ़ती है। वायुमण्डलीय सकल जलवाष्प का 90 प्रतिशत से अधिक भाग वायुमण्डल में 5 किमी की ऊँचाई तक पाया जाता है।
प्रश्न 12. तापीय विशेषताओं के आधार पर वायुमण्डल के प्रकार।
उत्तर– सामान्य रूप से वायुमण्डल में ऊँचाई के साथ चार तापीय मण्डल पाए जाते हैं- (1) क्षोभमण्डल (परिवर्तन मण्डल), (2) समतापमण्डल, (3) मध्यमण्डल तथा (4) तापमण्डल।
प्रश्न 13. क्षोभमण्डल किसे कहते हैं?
उत्तर– वायुमण्डल की सबसे निचली परत को परिवर्तन मण्डल या क्षोभमण्डल कहा जाता है। इस परत को ‘ट्रोपोस्फीयर’ के रूप में नामकरण टीजरेन्स डी बोर्ट ने किया है। इस परत को विक्षोभमण्डल भी कहा जाता है। मौसम सम्बन्धी सभी घटनाएँ इसी मण्डल में घटित होती हैं। इस मण्डल में वायुमण्डल के समस्त गैसीय द्रव्यमान का 75 प्रतिशत केन्द्रित है। इसके अलावा अधिकांश जलवाष्प, एयरोसॉल तथा प्रदूषक भी इसी मण्डल में पाए जाते हैं।
प्रश्न 14. समतापमण्डल को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– क्षोभमण्डल के ऊपर वाली परत को समतापमण्डल कहा जाता है। इस मण्डल की खोज तथा अध्ययन सर्वप्रथम टीजरेन्स डी बोर्ट द्वारा 1902 में किया गया। औसत मण्डल की ऊँचाई 50 किमी. मानी गयी है। वायुमण्डल में 50 किमी. की ऊँचाई, जो इस मण्डल की ऊपरी सीमा है, पर तापमान 0°C (32°F) हो जाता है। समताप मण्डल की ऊपरी सीमा को स्टैट्रोपाज कहते हैं। इस मण्डल में मौसम की घटनाएँ कम होती हैं। कभी-कभी निचले समताप मण्डल में सिप्स बादल, जिन्हें ‘मदर ऑफ पर्ल क्लाउड’ या ‘नैक्रियस क्लाउड’ कहते हैं, दिखाई पड़ जाते हैं।
प्रश्न 15. मध्यमण्डल किसे कहते हैं?
उत्तर– मध्यमण्डल का विस्तार सागर तल से 50 से 80 किमी. की ऊँचाई तक पाया जाता है। इस मण्डल में ऊँचाई के साथ तापमान में पुनः गिरावट होने लगती है। मध्य मण्डल की ऊपरी सीमा अर्थात् 80 किमी. की ऊँचाई पर तापमान -80° से. हो जाता है तथा यह 100° से. से -133° से. तक हो सकता है। मध्यमण्डल की इस ऊपरी सीमा को मेसोपाज कहते हैं। इस परत में वायुमण्डल बहुत कम होता है।
प्रश्न 16. तापमण्डल किसे कहते हैं?
उत्तर– तापमण्डल में बढ़ती ऊँचाई के साथ तापमान तीव्रगति से बढ़ता है परन्तु अत्यन्त कम वायुमण्डलीय घनत्व के कारण वायुमण्डल न्यूनतम होता है। मध्यमण्डल को दो उपमण्डलों में विभाजित किया जाता है- (1) आयन मण्डल, तथा (2) आयतन मण्डल।
प्रश्न 17. आयन मण्डल किसे कहते हैं?
उत्तर– आयन मण्डल का वायुमण्डल में सागर तल से 80 से 640 किमी. के बीच विस्तार पाया जाता है। इस मण्डल में ऊँचाई के साथ कई परतों का निर्धारण किया गया है- D, E, F तक G परतें।
प्रश्न 18. आयतन मण्डल किसे कहते हैं?
उत्तर– यह वायुमण्डल के सबसे ऊपरी भाग को प्रदर्शित करता है। इस भाग में वायुमण्डल का घनत्व कम हो जाता है तथा वायुमण्डल अत्यन्त विरल होने के कारण निहारिका जैसा प्रतीत होता है। इसकी बाह्य सीमा पर तापमान 5568° से. हो जाता है परन्तु यह तापमान धरातलीय वायु के तापमान से सर्वथा भिन्न होता है, क्योंकि इसे महसूस नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न 19. सममण्डल किसे कहते हैं?
उत्तर– सममण्डल निचले वायुमण्डल को प्रदर्शित करता है तथा सागर तल से यह १० किमी. की ऊँचाई तक विस्तृत है। इस मण्डल की प्रमुख संघटक गैसों में नाइट्रोजन तथा ऑक्सीजन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। अन्य गैसों में ऑर्गन, कार्बन-डाइऑक्साइड, नियोन, हीलियम, क्रिप्टान, जेनान, हाइड्रोजन आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इस मण्डल को सममण्डल इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसमें सभी गैसों का अनुपात प्रायः एक जैसा रहता है।
प्रश्न 20. विषममण्डल क्या है?
उत्तर– विषम मण्डल का सागर तल से 90 किमी. से 10,000 किमी. की ऊँचाई तक विस्तार पाया जाता है। इस मण्डल की विभिन्न परतों के रासायनिक एवं भौतिक गुणों में अन्तर पाया जाता है। इस मण्डल में गैसों की चार सुस्पष्ट परतें पायी जाती हैं (1) आणविक नाइट्रोजन परत, (2) एटामिक ऑक्सीजन परत, (3) हीलियम परत, (4) एटामिक हाइड्रोजन परत।
प्रश्न 21. ध्रुवीय प्रकाश।
उत्तर– ध्रुवीय प्रकाश ब्रह्माण्डीय चमकते प्रकाश होते हैं जिनका निर्माण चुंबकीय तूफान के कारण सूर्य की सतह से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉन तरंग के कारण होता है। ध्रुवीय प्रकाश, ध्रुवीय आकाश में लटके बहुरंगी आतिशबाजी की तरह दिखाई पड़ते हैं। ये प्रायः आधी रात के समय दृष्टिगत होते हैं। उत्तरी ध्रुव एवं दक्षिणी ध्रुव के आकाश में इन्हें क्रमशः उत्तरी ध्रुवीय प्रकाश तथा दक्षिणी ध्रुवीय प्रकाश कहते हैं।
इकाई – 5(II) वायुमण्डलीय दबाव एवं हवाएँ
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1- पृथ्वी पटल पर वायुमण्डल की चलनशीलता पर प्रकाश डालिये।
अथवा
सनातनी पवनें किसे कहते हैं? पृथ्वी पर सनातनी पवनों की व्यवस्था का उल्लेख कीजिए।
अथवा
‘व्यापारिक पवनें’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
स्थानीय पवनों के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करते हुए उनके प्रभावित क्षेत्रों का उल्लेख कीजिए।
वायुमण्डल की चलनशीलता का मुख्य कारण सूर्य है। धरातल के असमान ताप के फलस्वरूप पवने चलती हैं। असमान ताप के कारण विभिन्न स्थानों के वायुदाब में अन्तर मिलता है। अधिक वायुदाब के स्थान से कम वायुदाब के स्थान की ओर पवनें चलने लगती हैं। इस प्रकार वायुदाब वायु दिशा को नियंत्रित करता है।
वायुदाब एवं पवनें:-
वायु का वेग भी वायुदाब पर निर्भर करता है। वायुदाब की प्रवणता वायु की गति को प्रभावित करता है। जब वायुदाब की प्रवणता प्रपाती होती है तो पवन तीव्र गति से चलती है। समदाब रेखाएँ प्रवणता की सूचक होती हैं। यदि समदाव रेखाएँ पास-पास रहती हैं तो ढाल प्रपाती होता है और पवने तीव्र गति से चलती हैं, किन्तु समदाब रेखाओं के दूर-दूर रहने पर वायुदाब मन्द होता है और पवनों की गति मन्द होती है। पृथ्वी की गति से उत्पन्न विक्षेपक बल के कारण पवने उत्तरी गोलार्द्ध में दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में बायीं ओर को मुड़ जाती हैं, इसको फेरल का नियम कहते हैं।
इसी नियम को बाइज बैलेट महोदय ने बताया है कि “पृथ्वी के धरातल से ऊँचाई पर समदाब रेखाओं के समानान्तर पवनें बहती हैं। इसमें उत्तरी गोलार्द्ध में अल्प वायुदाब क्षेत्र पवनों की बायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दायीं ओर रहता है।“
प्रमुख ग्रहीय स्थायी सनातनी पवनें:-
धरातल पर छह बड़ी स्थायी पवनें चलती हैं। स्थायी पवनों को सनातनी या सन्मार्गी पवने भी कहते हैं। उपोष्ण उच्च वायुदाब की पेटियों से दो पवनें विषुवतीय अल्प वायुदाब के क्षेत्र की ओर चलती हैं। ये सन्मार्गी पवनें है। इसी प्रकार उपोष्ण उच्च वायुदाब की पेटियों से दो पवने उपध्रुवीय अल्पदाब क्षेत्र की ओर चलती हैं। इनको पछुआ हवाएँ कहते हैं। इसके अतिरिक्त दो पवनें ध्रुवीय उच्च दाब पेटी से उपध्रुवीय अल्प दाब पेटी की ओर चलती हैं, जहाँ ये पछुआ हवाओं से मिलती हैं। इनको ध्रुवीय पवनें कहते हैं।
सन्मार्गी पवनें-ये पवनें 100 से 300 अक्षांशों के मध्य चलती हैं, किन्तु सूर्य के साथ इनकी पेटी 5° उत्तर तथा दक्षिण को खिसक जाती हैं। ये हवाएँ समुद्री भागों में निश्चित गति से चलती हैं। इनकी गति प्रायः 16 से 24 किमी रहती है। महाद्वीपों के ऊपर इनकी दिशा तथा गति में बड़ा अन्तर मिलता है। उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तरी-पूर्वी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी-पूर्वी संमार्गी पवनें चलती हैं। सन्मार्गी पवने साल भर अबाध गति से दिन-रात निश्चित दिशा तथा गति से चलती हैं। इनसे महाद्वीपों के पूरबी किनारों पर पर्याप्त वर्षा होती है, किन्तु पश्चिमी किनारा प्रायः सूखा रहता है। ये जल भारा के 30.6 प्रतिशत भाग पर चलती हैं।
पछुआ पवनें- ये पवनें 30° से 60° अक्षांशों के मध्य चलती हैं। इनकी पेटियाँ भी खिसक जाती हैं। इनकी उत्पत्ति के कारण अश्व अक्षांश का अधिक दाब पर ध्रुवीय अल्प दाब की पेटी तथा पृथ्वी की दैनिक गति है।
पछुआ हवाएँ तूफानी होती हैं और साल भर भारी वर्षा करती हैं। उष्ण अक्षांशों से आने के कारण तापमान में वृद्धि करती हैं। पछुआ चक्रवाती हवाएँ जिनको उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल खण्ड की बाधा मिलती है, किन्तु दक्षिणी गोलार्द्ध में विशाल समुद्रों पर हवाएँ स्वच्छन्द रूप से प्रचण्ड गति से चलती हैं। इसी कारण इनको गरजने वाली चालीसा या वीर पछुआ पवनें कहते हैं।
ध्रुवीय हवाएँ-ये हवाएँ 60° अक्षांशों से ध्रुवों के मध्य चलती हैं। इनकी पेटी सूर्य की स्थिति के अनुसार खिसक जाती हैं। जब सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध में चमकता है तथा इनका क्षेत्र कुछ दक्षिण को खिसक जाता है और जब सूर्य दक्षिणी गोलार्द्ध में चमकता है तो इसका क्षेत्र उत्तर को खिसक जाता है। ये अत्यधिक सर्द हवाएँ हैं।
स्थलीय तथा सागरीय समीरें:-
1.स्थलीय समीरें-स्थल से चलने वाली हवाओं को स्थलीय समीर कहा जाता है। ये प्रायः स्थल से सागर की ओर चला करती हैं। ये जितनी दूर जाती हैं उतना ही प्रभाव कम होता जाता है। ये प्रायः शुष्क होती हैं। समुद्रतटीय क्षेत्रों पर इनका प्रभाव समकालीन होता है।
2.सागरीय समीरें-सागर की ओर से स्थल की ओर चलती हुई हवाओं को सागरीय समीरें कहते हैं। सागरीय हवाएँ वायुमण्डल में अधिक ऊँचाई तक नहीं चलती हैं। लेकिन फिर भी इन हवाओं की ऊँचाई विभिन्न जलवायु प्रदेशों में विभिन्न वायुमण्डलीय क्रियाओं के कारण परिवर्तनशील रहती हैं। परीक्षण के उपरान्त ज्ञात हुआ है कि सागरीय समीरे बड़ी-बड़ी झीलों के पास 200-500 मीटर की ऊँचाई तक पायी जाती हैं। लेकिन उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्धीय भागों में सागरों के निकट भागों पर इनकी ऊंचाई 1000-2000 मीटर तक आंकी गयी है। तभी तो भूमध्यरेखीय भाग में प्रतिदिन सायंकाल 3 बजे से वर्षा होती है तथा कटिबन्धीय भाग सागर समीरों से पूर्ण प्रभावित रहते हैं। सागरीय हवाएँ अक्षांशों के हिसाब से अपनी चाल तथा दिशा परिवर्तन करती रहती हैं। मध्य अक्षांशों में इनकी चाल 12 से 50 किमी प्रति घण्टा रहती है, जबकि निम्न अक्षांशों में इनकी चाल और अधिक हो जाती है। साथ ही अपनी स्थिति में तूफान आदि का रूप बना लेती हैं। इन हवाओं के तापक्रम के अनुसार काफी परिवर्तन होता रहता है।
घाटी तथा पर्वत समीर:-
पर्वत तथा घाटी समीरें भी जलीय तथा स्थलीय हवाओं की भाँति एक स्थानीय पवने होती हैं जो कि दैनिक वायुभार में विभिन्नता के कारण चला करती हैं। दिन में सूर्य की किरणों से गर्मी प्राप्त होकर पर्वत घाटियों की हवाएँ हल्की होकर घाटी से ऊपर उठने लगती हैं। इस प्रकार घाटी से पर्वतों के ढालों के सहारे-सहारे उठने वाली ये हवाएँ अपनी दिनचर्या के अनुसार पर्वतों की चोटियों तक पहुँचती हैं और ये घाटी समीर कहलाती हैं।
स्थानीय पवनें एवं चिनूक हवा:-
कुछ विशेष कारणों से ग्रहीय या स्थायी पवन के क्रम में व्यतिक्रम पड़ जाता है और विशेष प्रकार के पवन ऋतु विशेष में चलते हैं। स्थान विशेष पर भी कुछ पवन चलते हैं। इन्हें स्थानीय पवन कहते हैं। धरातल के स्थानीय तापान्तर के फलस्वरूप अनेक प्रकार के स्थानीय पवन उत्पन्न होते हैं, जिनके अलग- अलग नाम हैं। उत्तर भारत में लू, उत्तरी सहारा से यूरोप की ओर जाने वाली सिराक्कों, मिस्र में खमसिन, अरब में चलने वाली सिमून, न्यू साउथ वेल्स (ऑस्ट्रेलिया) में चलने वाला क्रिक फील्डर और कैलिफोर्निया (30 अमेरिका) में चलने वाला सान्ताएना स्थानीय शुष्क पवनें हैं।
पर्वत एवं घाटी समीर-यह भी स्थानीय पवन है। पर्वतीय भागों में पर्वत शिखर गर्म होकर अल्प दाब के हो जाते हैं, जिससे घाटी की वायु चढ़ जाती है।
फोहन-यह उष्ण हवा दक्षिणी आल्पस से जब ऊपर उठती है तो फैल जाती है और तुषार के रूप में अपनी नमी गिरा डालती है। जब यह पहाड़ी को पार करके उत्तर की ओर उतरती है तो तापमान बढ़ जाता है और यह उष्ण हो जाती है।
चिनूक-यह हवा रॉकी पर्वत से उत्तरी मैदान में उतरते हुए गर्म हो जाती है। इसका प्रभाव क्षेत्र फोहन की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। फोहन एवं चिनूक के प्रभाव क्षेत्र में कृषि कार्य में सुविधा है, अतः आर्थिक दृष्टि से इनका महत्त्व है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 2. वायु दाब क्या है?
उत्तर-वायु एक ऐसा पदार्थ है जो दिखायी नहीं देता, लेकिन यह भार रखता है। पृथ्वी के धरातल के चारों ओर वायु का एक मोटा आवरण (लगभग 800 किमी0 तक) मिलता है। इस भार रखने वाली वायु का दबाव धरातल के प्रत्येक स्थान पर पड़ता है। धरातल पर उसके ऊपर स्थित वायु की परतों का जो भार पड़ता है उसे वायुमण्डलीय दाब कहते हैं।
क्रिचफील्ड महोदय लिखते हैं, “किसी स्थान पर उसके ऊपर स्थित वायु के सम्पूर्ण स्तम्भ का भार वायु दाब कहलाता है।“
वायु वाष्प की इकाई मिलीबार (एक मिलीबार एक वर्ग सेमी० क्षेत्रफल पर लगाये गये 1,000 डाइन बल के बराबर) है। वायुमण्डलीय दाब के मापन के लिए वायुदाबमापी या बैरोमीटर का उपयोग किया जाता है। सागरीय सतह पर औसत वायु दाब 1,013.2 मिलीबार माना जाता है।
प्रश्न 3. स्थायी पवनों के प्रकार बताइए।
अथवा
विश्व की प्रमुख स्थानीय पवनों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-इस प्रकार स्थापित हवाओं का सामान्य परिसंचरण ग्लोब पर कुछ निश्चित दिशाओं में मिलता है, जो हवाएँ वर्षपर्यन्त धरातल पर कुछ निश्चित दिशाओं में स्थायी रूप से चला करती हैं, वे नियतवाहिनी या प्रचलित या ग्रहीय या स्थायी या सनातनी हवाएँ कही जाती हैं। इन हवाओं की उत्पत्ति तथा दिशा ग्लोब वायु दबाव प्रतिरूप तथा पृथ्वी की घूर्णन गति से सम्बन्धित होती हैं। ग्लोब पर प्रमुख रूप से तीन प्रकार की नियतवाहिनी या स्थायी हवाएँ प्रचलित हैं 1. व्यापारिक हवाएँ, 2. पछुआ हवाएँ तथा 3. ध्रुवीय हवाएँ।
प्रश्न 4. स्थानीय हवाओं पर टिप्पणी लिखिए।
अथवा
स्थानीय पवनें क्या हैं?
उत्तर-कुछ क्षेत्रों में प्रचलित हवाओं के बहने की दिशा से अलग दिशा में कुछ विशेष प्रकार की हवाएँ बहती हुई मिलती हैं। इन हवाओं की उत्पत्ति स्थानीय कारणों से होती है तथा इन हवाओं का प्रभाव एक सीमित क्षेत्र पर मिलता है इसलिए इन्हें स्थानीय हवाएँ कहा जाता है। ये हवाएँ तापमान परिवर्तनों से या कुछ स्थानों के धरातल की विशेष आकृति के फलस्वरूप प्रवाहित होती हैं। कभी-कभी स्थानीय हवाएं पूर्ण संवाहनिक परिसंचरण प्रस्तुत करती हैं तो कभी यह हवाएँ किसी संवाहनिक परिसंचरण के प्रबल वायु प्रवाह में विलुप्त हो जाती हैं।
प्रश्न 5. बाइज बैलेट का सिद्धान्त क्या है?
उत्तर-डच ‘बेइज़ बैलेट’ नामक विद्वान ने वायु एवं वायुदाब के वैज्ञानिक संबंध बताए को व्यक्त करने के लिए एक विशेष प्रकार का सिद्धान्त (नियम) प्रतिपादित किया, जिसे ‘बाइज बैलेट का सिद्धान्त’ (नियम) कहते हैं। यह सिद्धान्त निम्न प्रकार है- “यदि उत्तरी गोलार्द्ध में वायु की ओर पीठ करके खड़े हों, तो दाहिनी ओर की अपेक्षा हमें बायीं ओर कम वायु-दाब अनुभव होगा। ठीक इसके विपरीत दशा दक्षिणी गोलार्द्ध में अनुभव होगी।“
प्रश्न 6. व्यापारिक हवाओं पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-ये हवाएँ उपोष्ण उच्च वायु दबाव पेटी से भूमध्यरेखीय निम्न वायु दबाव की ओर नियमित रूप से चला करती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में ये हवाएँ अपने दायें ओर मुड़ जाती हैं, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में अपने बायीं ओर। उत्तरी गोलार्द्ध में ये हवाएँ उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिणी-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ कहलाती हैं। महाद्वीपों पर इन हवाओं की गति दिशा में अन्तर पड़ जाता है, लेकिन महासागरों पर ये अधिक व्यवस्थित तथा तीव्रता के साथ चलती हैं। प्राचीन समय में महासागरों में जलयान चलाने में सहायक होने के कारण इन पवनों का नाम व्यापारिक पवन पड़ गया।
दोनों ओर की व्यापारिक हवाएँ भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब पेटी पर आकर मिलती हैं, इसलिए यह निम्न वायु पेटी अन्तर-उष्ण कटिबन्धीय अभिसरण का क्षेत्र या डोलड्रम भी कही जाती है।
प्रश्न 7. पछुआ पवनों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-ये हवाएँ उपोष्ण उच्च वायु दबाव से उप-ध्रुवीय निम्न वायु दबाव पेटी की ओर दोनों गोलाद्धों में चला करती हैं। पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में इन हवाओं की दिशा दक्षिण- पश्चिम से उत्तर-पूर्व की ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तर-पश्चिम से दक्षिण-पूर्व की ओर होती हैं। इन पवनों की प्रवाह गति प्रायः परिवर्तित होती रहती है तथा गर्म व ठण्डी हवाओं के मिलने से चक्रवात तथा प्रतिचक्रवात भी इन हवाओं में मिलते हैं। समुद्री भागों में पछुआ हवाएँ तीव्र तथा प्रचण्ड गति से बहती हैं जिसके कारण नाविक इन हवाओं को वीर पछुआ या गरजने वाली चालीसा कहते हैं।
प्रश्न 8. सामयिक पवन।
उत्तर-उपोष्ण कटिबन्धीय उच्च दाब क्षेत्र से भू-मध्य रेखा की ओर चलने वाले सन्मार्गी पवनों को लम्बा मार्ग तय करना पड़ता है। इस मार्ग के विभिन्न भागों में इनमें तापमान, आर्द्रता तथा घनत्व आदि विशेषताएँ एक समान नहीं रहती हैं। ये पवन अपने उत्पत्ति स्थान के निकट, जहाँ वायु में अवतलन तथा अपसरण होता है, शुष्क होते हैं तथा आकाश सदैव स्वच्छ रहता है। अवतलन के कारण वायुमण्डल में तापमान व्युत्क्रमणता उत्पन्न हो जाती है। यहाँ वायुमण्डल में स्थायित्व पाया जाता है तथा सन्मार्गी पवनों के इसी भाग में उष्ण कटिबन्धीय वायु राशियों की उत्पत्ति होती है।
सन्मार्गी पवनों के ध्रुवों की ओर वाले भाग में शुष्क वायुराशि पायी जाती है, जो भू-मध्य रेखा की ओर क्रमशः अस्थिर एवं आर्द्र वायु राशि में परिवर्तित हो जाती है।