GEOGRAPHY
SEMESTER – I
A110101T
UNIT 1
Table of Contents
इकाई– 1(I) – भौतिक भूगोल की प्रकृति एवं क्षेत्र
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.भौतिक भूगोल का अर्थ समझाइए। इसके विषय क्षेत्र तथा महत्त्व को समझाइये।
अथवा
भौतिक भूगोल के विषय क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
अथवा
टिप्पणी-भू-आकृतिक विज्ञान की प्रकृति एवं विषय क्षेत्र।
अथवा
भौतिक भूगोल की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
भौतिक भूगोल में प्रकृति प्रदत्त कारकों तथा क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। यह भूगोल का मुख्य अंग है। भौतिक भूगोल के तत्त्व भू-मण्डल, वायुमण्डल, जलमण्डल तथा प्राणिजगत या जैव मण्डल में पाये जाते हैं। पानी का एक स्थान से दूसरे स्थान पर विभाजित होना, भूमण्डल पर वायु का नियमित रूप से चलना, आन्तरिक तथा बाह्य प्रभाव से धरातल का परिवर्तित होना और विभिन्न प्राणियों एवं वनस्पतियों का काल-विशेष में उत्पन्न होना एवं नष्ट हो जाना प्रकृति की गति एवं प्रगतिशीलता के अकाट्य प्रमाण हैं। यह विज्ञानों का समन्वय एवं अध्ययन है जो मानव के वातावरण का परिज्ञान प्रदान करता है। यह भूविज्ञानों के मूल सिद्धान्तों का स्वरूप है। इसका गहरा सम्बन्ध भू-आकृति विज्ञान, भू- विज्ञान, मृदा विज्ञान आदि से है। इस प्रकार भौतिक भूगोल मानव इतिहास कहा जा सकता है।
आर्थर होम्स ने भौतिक वातावरण को टी भौतिक भूगोल कहा है जिसके अन्तर्गत भू-आकृति महासागर तथा वायु के अध्ययन सम्मिलित हैं। प्रसिद्ध मानव भूगोलवेत्ता हम्बोल्ट ने लिखा है कि “भौतिक भूगोल वह अध्याय है जो वातावरण में पर्यावरण के साथ-साथ विद्यमान रहता है।“
भौतिक भूगोल के अध्ययन का केन्द्र मानव है क्योंकि पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति के साथ ‘भौतिक कारक तथा मानव एक इकाई के रूप में रहते आये हैं। इन दोनों के पारस्परिक समझौता के फलस्वरूप ही मानव जीवित रहा है। धीरे-धीरे मानव को प्रकृति ने प्रभावित किया है और मानव ने भी प्रकृति में परिवर्तन लाया है। वह अपनी संकल्प शक्ति तथा बुद्धि के सहारे प्राकृतिक असुविधाओं को अपने उपयुक्त बनाकर परिवर्तित प्रकृति के गोद में अपने को उसके उपयुक्त बना लिया है।
आज के प्रगतिशील युग में मानव को समुचित आर्थिक एवं सांस्कृतिक उन्नति के लिए भौतिक परिस्थितियों की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता का ज्ञान आवश्यक है और यह ज्ञान केवल भौतिक भूगोल के से संभव है।
अध्ययन इस प्रकार भौतिक भूगोल में स्थल मण्डल, जल मण्डल, वायु मण्डल तथा जैव मण्डल का अध्ययन किया जाता है
भौतिक भूगोल का क्षेत्र एवं महत्त्व:-
भौतिक भूगोल का विषय क्षेत्र बहुत व्यापक है फिर भी उसकी शाखाएँ एक-दूसरे से इतने निकट से परस्परव्यापी एवं सह-सम्बन्धित नहीं हैं जितनी कि मानव व आर्थिक या सामाजिक भूगोल की शाखाएँ।
भौतिक भूगोल के क्षेत्र का सृजन विकास एकात्मक स्वरूपीय पृथ्वी का तल है। भौतिक भूगोल में भूगोल से अर्थ पृथ्वी की पर्पटी का वह भाग जहाँ पृथ्वी व आकाश मिलते हैं एवं भूतल से ठीक नीचे वह भूगर्भ जहाँ कि आन्तरिक शक्तियों का सृजन होता है, जहाँ भूमिगत जल एवं महत्त्वपूर्ण खनिज पाये जाते हैं। इसी क्षेत्र में मानवरहित पृथ्वी पर जो कुछ क्रिया-कलाप करता है वही भौतिक भूगोल का क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत स्थलमण्डल उसका निर्माण व स्वरूपीय विविधता, गत्यात्मकता ह्रास एवं विकास, जलमण्डल उसका नितल, महासागरीय जल के भौतिकीय एवं रासायनिक लक्षण, नितल में परिवर्तन का आधार, प्रभाव व प्रमाण, जल की विविध गतियाँ एवं स्थलमण्डल से सम्बन्धित प्रभाव, वायुमण्डल भूतल को घेरे गैसों का संगठन, उसका सौर ताप के प्रभाव से विविधता रूपी संचालन एवं वायु विक्षोभ ताप एवं वाष्प के परिणाम से सृजित क्रियाओं के स्थलमण्डल पर पारस्परिक प्रभाव, भूतल पर ऐसी क्रिया- प्रतिक्रियाशीलता से जलवायु क्षेत्रों के सीमांकन आदि अजैविक किन्तु भौतिक विज्ञान के नियमों में अवृत्त घटनाएँ एवं क्रियाएँ भौतिक भूगोल के प्रमुख अंग हैं। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण जैव जगत् का सृजन, विकास, उसकी विविधता एवं प्रत्येक भेद-उपभेद सभी इसके अन्तर्गत आते हैं। यह क्रियाएँ प्राणी एवं वनस्पति नाम से दो वर्गों में विभाजित हैं। किन्तु भूगोल के भौतिक आधार में कई विद्वान जैव जगत् को सम्मिलित नहीं करते। उनके अनुसार पृथ्वी की बाह्यकाश में स्थिति, उसके सौर एवं ग्रहीय सम्बन्ध, पृथ्वी के स्वरूप सम्बन्ध, तथ्य एवं उपर्युक्त अजैव तत्त्व ही इसके अंग हैं, जबकि अधिकांश विद्वान जैव जगत् के सभी स्वरूपों, लक्षणों, क्रियाओं एवं घटित घटनाओं व प्रभावों को भी इसी का अंग मानते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण भौतिक भूगोल का व्यापक क्षेत्र उसके निम्नलिखित शाखाओं के अन्तर्गत समाहित है-
(1).भू-गणित विज्ञान, (2) नक्षत्र विद्या एवं भू-भौतिक, (3) भू-विज्ञान, स्थलाकृति विज्ञान एवं शैल विज्ञान, (4) मृदा विज्ञान या भूमि तत्त्व विज्ञान, (5) वनस्पति विज्ञान, (6) जन्तु विज्ञान, (7) समुद्र विज्ञान, (8) जलवायु विज्ञान व मौसम विज्ञान, (9) नृवंश विज्ञान, (10) मानचित्र काल एवं सांख्यिकीय विधियाँ।
प्रश्न 2. भू-आकृति विज्ञान की प्रकृति तथा विषय-क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
भू-आकृति विज्ञान की परिभाषा:-
आंग्ल भाषा के शब्द ‘जियोमॉरफोलोजी’ का विन्यास ग्रीक भाषा के ‘जि’ (अर्थ-पृथ्वी), ‘मॉरफी’ (फोर्म-रूप) तथा ‘लोगोज’ (डिसकोर्स-वर्णन) शब्दों से हुआ है जिसका अर्थ पृथ्वी की आकृति का वर्णन करने वाले विषय से है। जहाँ तक ज्ञात हो सका है इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ए० पैक महोदय ने किया था। इससे पूर्व उन्नीसवीं शताब्दी तक इसके स्थान पर अंग्रेजी में ‘मॉर्फोलोजी ऑफ दी अर्थ सरफेस’ और जर्मन में सदैव ‘मार्फोलोजी डेयर अर्डऑवरफ्लाशे’ शब्दों का प्रयोग किया जाता था। 1894 में इसी विषय पर आपकी पुस्तक प्रकाशित हुई थी। अपने ही इस विषय के अध्ययन को ज्योडेसी और जियोफिजिकल के अंचल से निकाल कर भूगोल की गोद में बिठाया था।
यूरोप तथा अमेरिका के कई देशों में कुछ वर्षों पूर्व ‘फिजियोग्राफी’ शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थों में किया जाता था और इस विज्ञान के अन्तर्गत स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल को सम्मिलित किया जाता था। टार एवं मार्टिन की ‘कालित फिजियोग्राफी’ और सैलिसवरी की ‘फिजियोग्राफी’ इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
फिजियोग्राफी के अतिरिक्त भू-आकृतियों का अध्ययन भूगोल की एक और शाखा के अन्तर्गत भी होता है जिसे ‘भौतिक भूगोल’ कहते हैं। जर्मनी में पिछले महायुद्ध तक भौतिक भूगोल के तीन विभिन्न पहलुओं पर जोरदार शोध कार्य चलता रहा और स्थलारूपों का अध्ययन इसी के अन्तर्गत किया जाता पहल परन्तु उसके पश्चात् संकुचित विशेषीकरण जो भौतिक भूगोल की एकता की तिलांजलि दे दी और रहा, वहीं लगभग भूगोल के सभी संस्थानों में जियोमॉरफोलोजी ही अध्ययन और शोध का विशेष क्षेत्र अब लिया गया है। विशेषीकरण की सीमा यहाँ तक पहुँच गयी है कि कुछ लोग भू-आकृतियों के अध्ययन को भौतिक भूगोल का अंग मानना तो दूर रहा वे उसे भूगोल का अंग भी नहीं मानते और परिणामतः धीरे- धीरे भूआकारशास्त्री और भूगोलवेत्ता एक-दूसरे से दूर होते जा रहे हैं। अब जियोमॉरफोलोजी एक विशिष्ट विषय बन गया है। हिन्दी भाषा में जियोमॉरफोलोजी शब्द के लिये भौम्याकारिकी, भू-आकारशास्त्र तथा भू-आकृति विज्ञान शब्दों का प्रयोग किया जाता है। है। जहाँ पर भू-आकारों का अध्ययन किया गया है वहाँ पर कहीं भू-आकारशास्त्र एवं भू-आकृति विज्ञान शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। उपर्युक्त परिभाषा की कमी वारसेस्टर महोदय द्वारा प्रतिपादित परिभाषा से कुछ हद तक दूर हो जाती है। उसके अनुसार, “भू-आकृति विज्ञान पृथ्वी के उच्चावचों का व्याख्यात्मक वर्णन है”।
स्ट्रालर महोदय की परिभाषा वारसेस्टर की परिभाषा से अधिक पूर्ण है। इसके अनुसार, “भू- आकृति विज्ञान सभी प्रकार के स्थलरूपों की उत्पत्ति तथा उनके व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विकास की व्याख्या करता है।“
स्ट्रालर महोदय ने अपनी परिभाषा में भू-आकृति विज्ञान को स्थलरूपों के अध्ययन के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के भू-आकारों का अध्ययन कहा है। इसके अतिरिक्त पिछली परिभाषाओं में कहीं भी भू- आकारों की उत्पत्ति एवं विकास की चर्चा नहीं की गयी है। उसे भी स्ट्रालर ने सम्मिलित कर लिया है।
पील महोदय ने भू-आकृति विज्ञान की परिभाषा अपने ही ढंग से दी है। इनके दृष्टिकोण से “भू- आकृति विज्ञान पृथ्वी पर होने वाले अनाच्छादन तथा उससे निर्मित आकृतियों तथा दृश्यावलियों का अध्ययन है।“ पील महोदय ने अपनी परिभाषा में भू-आकारों को विकसित करने वाले ‘अनाच्छादन’ तत्त्व पर जोर दिया है। बुलड्रीज महोदय के अनुसार, “भू-आकृति विज्ञान मूल रूप से भूपटल की आकृति के वर्णन का अध्ययन है न कि प्रक्रमों का अध्ययन।“ इनके अनुसार प्रक्रमों का अध्ययन भौतिक भूगर्भशास्त्र में किया जाता है।
भू-आकृति विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र- भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र का निर्धारण करना बहुत ही कठिन है, क्योंकि यह विषय अपनी सीमाओं पर एक तरफ भूगर्भशास्त्र और भूगोल से संबंधित है, तो दूसरी ओर भौतिकी, रसायनशास्त्र एवं हाइड्रोलोजी से। अतः भू-आकार विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र का ठीक ढंग से निर्धारण करने से पहले अन्य विषयों से इसका सम्बन्ध बताना समीचीन होगा।
भू-आकृति विज्ञान एवं भूगर्भशास्त्र- भू-आकृति विज्ञान में आधारभूत कार्यों की नींव भूगर्भशास्त्रियों द्वारा डाली गयी थी। भूगर्भशास्त्र में मुख्य रूप से पृथ्वी की संरचना, संगठन, आन्तरिक शक्तियों एवं प्रक्रमों का अध्ययन किया जाता है।
भू-आकृति विज्ञान एवं भूगोल- भू-आकृति विज्ञान का भूगोल से बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। भूगोल में प्राकृतिक वातावरण एवं मानव के सम्बन्धों का अध्ययन प्रस्तुत किया जाता है।
भू-आकृति विज्ञान एवं भूभौतिकी – भूभौतिकी में सम्पूर्ण पृथ्वी का भौतिक तरीकों से अध्ययन किया जाता है।
भू-आकृति विज्ञान एवं भू-रसायनशास्त्र- अपक्षय एवं द्रव्यमान संचलन भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन का महत्वपूर्ण पहलू है। इन दोनों प्रक्रमों का वैज्ञानिक विश्लेषण भू-रसायनशास्त्र के ज्ञान के बिना संभव नहीं है।
भू-आकृति विज्ञान एवं हाइड्रोलोजी- आधुनिक भौम्याकारिकी में तो हार्टन जैसे हाइड्रोलोजिस्ट ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य किये हैं। भौम्याकारिकीय अध्ययन से हाइड्रोलोजी की कई समस्याओं का समाधान हो सकता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भौम्याकारिकी का अध्ययन क्षेत्र भू-आकार होने के साथ ही साथ यह विषय अपनी सीमाओं पर अन्य वैज्ञानिक विषयों से भी सम्बन्धित है। अतः इस विज्ञान की प्रगति के लिए भू-आकारशास्त्रियों को अन्य वैज्ञानिकों के साथ कार्य करने, उनके सारांशों का अपने विषय में उपयोग करने एवं अपने तरीकों को जाँचने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए। विचारों के इसी आदान-प्रदान से भौम्याकारिकी पल्लवित हो सकेगा।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भौतिक भूगोल को परिभाषित करते हुए उसके विषय-क्षेत्र का विवेचन कीजिए।
भौतिक भूगोल का अर्थ एवं परिभाषा-:
भौतिक भूगोल का अर्थ है, पृथ्वी के भौतिक स्वरूपों का वर्णन। इसीलिए अनेक विद्वानों ने भौतिक भूगोल की नींव कहा है। इस सम्बन्ध में वूजरिज और ईस्ट का यह उद्धरण उल्लेखनीय हैं-
भौतिक भूगोल में वर्णित पृथ्वी के भौतिक स्वरूपों के अन्तर्गत (1) स्थलमण्डल, (2) जलमण्डल तथा (3) वायुमण्डल को सम्मिलित किया जाता है। इसलिए भौतिक भूगोल में इन तीनों पक्षों का सर्वांगीण अध्ययन किया जाता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर भौतिक भूगोल की एक सम्यक् परिभाषा इस प्रकार प्रस्तुत की जा सकती है-
“प्रकृति द्वारा रचित प्रक्रियाओं की रूपरेखा को उत्पत्ति एवं विवरण के वैज्ञानिक प्रमाण के अनुसार प्रस्तुत करने वाले उस भूगोल को भौतिक भूगोल कहते हैं जिसके अन्तर्गत पृथ्वी के तीनों मण्डल- स्थलमण्डल, जलमण्डल और वायुमण्डलमण्डल की झलक मिलती है।“
भौतिक भूगोल का विषय-क्षेत्र:-
प्रारम्भिक युग में भौतिक भूगोल के अन्तर्गत किसी स्थान के पर्वतों, पहाड़ियों, नदियों अर्थात् प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन को ही सम्मिलित किया जाता था। लेकिन ज्यों-ज्यों भौगोलिक ज्ञान का विकास हुआ भौतिक भूगोल के विषय क्षेत्र का भी विकास हुआ और वर्तमान समय में भौतिक भूगोल के अन्तर्गत स्थलमण्डल, जलमण्डल, वायुमण्डल का सम्यक् अध्ययन किया जाता है।
स्थलमण्डल के अन्तर्गत-पृथ्वी की उत्पत्ति, आंतरिक संरचना, विभिन्न भू-आकार तथा इनके निर्णायक प्रक्रम (ज्वालामुखी, भूकम्प, अपरदन और निरीक्षण) आदि के अध्ययन को सम्मिलित किया जाता है।
जलमण्डल के अन्तर्गत-महासागरों की उत्पत्ति, जल की दशा, उसकी विभिन्न गतियाँ, महासागरीय निक्षेप आदि के अध्ययन को सम्मिलित किया जाता है।
वायुमण्डल के अन्तर्गत-वायुमण्डल की संरचना, सूर्यताप, विभिन्न ताप कटिबन्ध, पवन, संचार, मेघ एवं वर्षा आदि के अध्ययन को सम्मिलित किया जाता है।
प्रश्न 2. भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्रों को कितने भागों में बाँटा गया है?
भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र को तीन भागों में बाँटा गया है-
1.संरचना, 2. प्रक्रम, 3. विभिन्न रूपों का वर्गीकरण एवं क्रमिक विकास की अवस्थाएँ। 1. संरचना–इसका निर्धारण आन्तरिक क्लो द्वारा होता है जिसमें भू–संचलन, प्लेट विवर्तनिकी तथा ज्वालामुखी क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है। इसमें भू–पटल की संरचना, शैलों की प्रकृति, महाद्वीपों एवं महासागरों का विन्यास, पर्वत तथा वलनों के निर्माण प्रक्रिया को शामिल किया जाता है।
2.प्रक्रम–इसमें आन्तरिक एवं बाह्य बलों का उपयोग होता है। इसका मुख्य कार्य गुरुत्वाकर्षण बल होता है, जो धरातल की वस्तुओं का ऊपर और नीचे स्थानान्तरण और नियंत्रण करता रहता है। इसमें मृदा सर्पण, भू–स्खलन, शैल, अवपात, जल व हिमनद के प्रवाहित होने आदि में गुरुत्वीय बल सहायक होते हैं, ये ऊँचे उठे भाग का निम्नीकरण करने में सहायक होते हैं। इस सबके लिए जलवायु को महत्वपूर्ण कारक माना जाता है।
- क्रमिक विकास की अवस्थाएँ–भू–आकृतियों का वर्गीकरण और उनके क्रमिक विकास को प्रभावित करने में भू-आकृति विज्ञान महत्त्वपूर्ण है। गतिशील संरचना और गतिशील प्रक्रमों के फलस्वरूप भू-विज्ञान में अनेक प्रतिक्रियाएँ होती हैं जो परस्पर विरोधी भी हो सकती हैं। इसलिए स्थलाकृतियों के क्रमिक विकास के विश्लेषण में व्यापक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। इसलिए भू- आकृति विज्ञान की विषय-वस्तु में संरचना और विकास अवस्था को शामिल किया जाता है।
प्रश्न 3. भौतिक भूगोल की उपशाखाओं का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
उत्तर-भौतिक भूगोल भौगोलिक अध्ययन की पृष्ठभूमि है। इसमें स्थलमंडल, जलमंडल, वायुमंडल एवं जैवमंडल के प्रमुख तत्त्वों का अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है। इसमें भौतिक तत्त्वों का विशद् विवेचन किया जाता है। इसके अन्तर्गत स्थलाकृतियों के निर्माण की प्रक्रियाएँ, अवस्थाएँ एवं प्रादेशिक भिन्त्रताओं के अध्ययन पर बल दिया जाता है। भौतिक भूगोल के वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म अध्ययन के लिए भौतिक भूगोल की उपशाखाओं का जन्म हुआ। इन उपशाखाओं को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है- 1. भू-आकृति विज्ञान, 2. खगोल विज्ञान, 3. भू-विज्ञान, 4. मृदा विज्ञान, 5. मौसम विज्ञान, 6.जल विज्ञान, 7. समुद्र विज्ञान , 8. जैव भूगोल ।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भौतिक भूगोल का विषय-क्षेत्र बताइए।
उत्तर- भौतिक भूगोल में सौरमण्डल की उत्पत्ति, नक्षत्रों से सूर्य, चन्द्रमा एवं पृथ्वी का सम्बन्ध, चट्टानों की संरचना, भू-रक्षण, निक्षेपण, अपरदन चक्र, जल, पवन, हिमानी द्वारा निर्मित भूदृश्यों का विश्लेषण, वायुमण्डल की दशाएँ, महासागरों की संरचना, जन्तुओं का वितरण एवं स्वरूप का अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 2. भौतिक भूगोल की प्रमुख उपशाखाएँ बताइए।
उत्तर- खगोलीय विज्ञान, मिश्रित भौतिक भूगोल, भू-आकृति विज्ञान, जलवायु विज्ञान, जल विज्ञान, समुद्र विज्ञान, हिमनद विज्ञान, मृदा भूगोल, जैव भूगोल, स्वास्थ्य भूगोल भौतिक विज्ञान की प्रमुख उपशाखाएँ हैं।
प्रश्न 3. भौतिक भूगोल का अर्थ बताइए।
उत्तर- भौतिक भूगोल के अंतर्गत पृथ्वी के भौतिक पर्यावरण से परस्पर सम्बन्ध रखने वाली घटनाओं का अध्ययन किया जाता है, जो मानव जीवन को प्रभावित करती हैं।
प्रश्न 4. भौतिक भूगोल की परिभाषा दीजिए।
उत्तर- आर्थर होल्मस के अनुसार, “भौतिक पर्यावरण का अध्ययन ही भौतिक भूगोल है, जो कि ग्लोब के धरातलीय उच्चावच (भू-आकृति विज्ञान), सागर, महासागरों (समुद्र विज्ञान) तथा वायु (जलवायु विज्ञान) के विवरणों का अध्ययन करता है।“ ए. एन. स्ट्राहलर के अनुसार, “भौतिक भूगोल सामान्य रूप से कई भूविज्ञानों का अध्ययन एवं समन्वय है जो कि मनुष्य के पर्यावरण पर सामान्य प्रकाश डालता ता है। है। स्वयं में विज्ञान की स्पष्ट शाखा होकर भौतिक भूगोल भू-विज्ञान के आधारभूत सिद्धान्तों का जिनका चयन भूतल पर स्थानिक रूप से परिवर्तनशील पर्यावरण प्रभावों की व्याख्या के लिए किया जाता है, का समन्वय है।“
प्रश्न 5. भौतिक भूगोल की प्रकृति स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- भौतिक भूगोल की प्रकृति:-
1.इसमें पर्यावरणीय तत्त्वों के प्रतिरूप तथा स्थानिक सम्बन्धों के प्रादेशिक परिवेश का अध्ययन किया जाता है।
2.इसमें भौतिक भूदृश्यों को बहुत सूक्ष्म तरीके से विश्लेषित किया जाता है।
3.यह मानव तथा भौतिक पर्यावरण के मध्य सम्बन्धों का संश्लेषित अध्ययन करता है।
4.यह भौतिक वातावरण के विभिन्न प्रकार के घटकों का विश्लेषण करता है। इसकी प्रकृति के अन्तर्गत समुद्र विज्ञान, जैव विज्ञान, मृदा विज्ञान के घटकों की व्याख्या की जाती है।
प्रश्न 6. भू-आकृति विज्ञान क्या है?
उत्तर- भू-आकृति विज्ञान के अन्तर्गत ग्लोब के स्थलमण्डल के उच्चावचनों, उनके निर्माणक प्रक्रमों तथा उनके एवं मानव के अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 7. समुद्र विज्ञान से क्या आशय है?
उत्तर- जे. प्राउडमैन के अनुसार, “समुद्र विज्ञान के अन्तर्गत सागरीय जल की विशेषताओं तथा जैविक पहलुओं के संदर्भ में गतिकी एवं उष्मागतिकी के मौलिक नियमों का अध्ययन किया जाता है।“
प्रश्न 8. जलवायु विज्ञान क्या है?
उत्तर- पृथ्वी के चतुर्दिक व्याप्त गैसीय आवरण को वायुमण्डल कहते हैं तथा उसके अध्ययन करने वाले विज्ञान को मौसम विज्ञान तथा जलवायु विज्ञान कहते हैं। जलवायु विज्ञान के अंतर्गत वायुमण्डलीय दशाओं के मौसम तथा जलवायु का क्रमबद्ध एवं प्रादेशिक स्तर पर अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 9. भू-आकृति विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
उत्तर- 1.वारसेस्टर के अनुसार, “भू-आकृति विज्ञान पृथ्वी के उच्चावचों का व्याख्यात्मक वर्णन है।“
2.स्ट्रॉलर के अनुसार, “भू-आकृति विज्ञान पृथ्वी पर होने वाले अनाच्छादन तथा उससे निर्मित आकृतियों तथा दृश्यावलियों का अध्ययन है।“
3.बुलड्रीज के अनुसार, “भू-आकृति विज्ञान मूल रूप से भू-पटल की आकृति के वर्णन का अध्ययन है न कि प्रक्रम का अध्ययन।“
इकाई- 1(II) – ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, सौर मण्डल और पृथ्वी
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का बिग बैंग सिद्धान्त प्रस्तुत कीजिए।
अथवा
पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित अन्य सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
पृथ्वी हमारे सौरमण्डल का अंग है। सौरमण्डल आकाशगंगा ‘मंदाकिनी’ की मध्यवर्ती घूर्णनशील भुर्जी का एक अंश है। हमारी ‘मंदाकिनी’ के तीन घूर्णनशील भुजाओं में असंख्य तारे हैं। मंदाकिनी सदृश कई आकाशगंगायें मिलकर एक ‘आकाशगंगा का पुंज’ बनाती हैं। आकाशगंगा के सभी पुंजों को सम्मिलित रूप से ब्रह्माण्ड कहते हैं।
दूसरे शब्दों में सूक्ष्मतम अणुओं से लेकर महाकाय आकाशगंगाओं तक के सम्मिलित स्वरूप को ब्रह्माण्ड कहा जाता है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति विषयक मुख्यतः चार सिद्धान्त हैं, जिसमें प्रथम सिद्धान्त सर्वाधिक प्रचलित एवं मान्यता प्राप्त है-
(i) महाविस्फोट सिद्धान्त-प्रतिपादक-एबे जार्ज लैमेन्तेयर।
(ii) स्फीति सिद्धान्त-प्रतिपादक-एलनगुथ।
(iii) सतत सृष्टि सिद्धान्त-प्रतिपादक-थामस गोल्ड एवं हर्मन बांडी
(iv) दोलन सिद्धान्त-प्रतिपादक-डॉ. एलन संडेजा।
बिग बैंग सिद्धान्त:-
वर्ष 1927 ई. में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन जार्ज लैमेत्रे (1894-96) ने ब्रह्माण्ड, आकाशगंगा तथा सौरमण्डल की उत्पत्ति के लिये किया था। बाद में राबर्ट वेगनर ने 1967 में इस सिद्धान्त की व्याख्या प्रस्तुत किया।
वैज्ञानिक प्रेक्षणों के आधार पर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति तथा इसके विकास को अधोलिखित प्रकार से विवेचित किया जा सकता है-
वह अवस्था जब कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एक गर्म एवं सघन बिन्दु पर, आज से 15 अरब वर्ष पूर्व केन्द्रित था। अत्यधिक संकेन्द्रण के कारण बिन्दु का आकस्मिक महाविस्फोट हुआ जिसे ब्रह्माण्ड विस्फोट या बिग बैंग की उपमा प्रदान की गई। इसके साथ ही समय, स्थान एवं वस्तु की व्युत्पत्ति हुई। विस्फोट के अत्यल्प समय में बिन्दु विस्तृत होकर वालीबाल के आकार का हो गया जो बाद में एक आग के गोले की तरह, जिसका अर्थव्यास लगभग 10 अरब मील था। अग्निबाल की अवस्था के पश्चात् जब ब्रह्माण्ड की आयु एक सेकेण्ड की हुई और उसका ताप कुछ कम हुआ तो मूल कणों तथा प्रतिकणों की उत्पत्ति हुई, जो आगे चलकर परमाणु का निर्माण किये। विस्फोट के एक मिनट बाद ब्रह्माण्ड और भी विस्तृत होकर एक बड़ा ताप नाभिकीय रिएक्टर हो गया। परिणामस्वरूप हाइड्रोजन नाभिक से इस अवस्था में हीलियम परमाणु के नाभिक बने। कुछ सौ हजार वर्ष के पश्चात् पदाथों तथा विकिरण का चमकीला सम्मिश्रण होकर फैल गया। कुछ अरब वर्ष पश्चात् हाइड्रोजन एवं हीलियम के बादल संकुचित होकर आकाशगंगाओं एवं तारों का निर्माण करने लगे। सूर्य तथा अन्य तारों के संगठन का लगभग 98% भाग हाइड्रोजन तथा हीलियम का बना हुआ है। तारों का केन्द्रीय भाग पदार्थ के नाभिकीय संलयन के कारण अधिक गर्म हो गया। तारों से चमक निकलने लगी तथा तारों के केन्द्र में भारी पदार्थों का गठन होने लगा।
बिग-बैंग के लगभग 10.5 अरब वर्ष पश्चात् अर्थात् आज से 4.5 अरब वर्ष पूर्व सौरमंडल का विकास हुआ जिसमें ग्रहों तथा उपग्रहों आदि का निर्माण हुआ।
आज आकाशगंगायें सुपरक्लस्टर के रूप में पुंजीभूत हैं। ये पुंजीभूत आकाशगंगायें एक-दूसरे पुंजों से 100 से 400 मिलियन प्रकाश वर्ष दूर हैं। इनके मध्य का स्थान काला है। अपने निर्माण काल के समय से प्राप्त आवेग के कारण इनके मध्य की दूरी बढ़ती जा रही है।
विश्व के सुविख्यात भौतिक विज्ञानी स्टीफन हाकिंग ने अपनी पुस्तक ‘समय का संक्षिप्त इतिहास’ में उद्धृत किया है कि आज से लगभग 15 अरब वर्ष (नवीनतम खोजों के अनुसार 13.7 अरब वर्ष पूर्व) पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व एक मटर के दाने के रूप में था। इसके पश्चात् ‘बिग-बैंग’ सिद्धान्त का समर्थन करते हुए वह लिखते हैं कि “महाविस्फोट के पश्चात् ब्रह्माण्ड का स्वरूप विस्तृत हुआ। आज वही मटर के दाने के आकार का ब्रह्माण्ड असीम और अनन्त है।“
अमेरिकी खगोलविद् एडविन हब्बल ने बताया कि आकाशगंगाओं के बीच की दूरी बढ़ रही है। जैसे-जैसे आकाशगंगाओं के बीच की दूरी बढ़ रही है वैसे-वैसे इनके दूर चले जाने की गति तेज होती जा रही है। इसकी तुलना हम एक फूलते गुब्बारे से कर सकते हैं। अगर हम इस गुब्बारे पर कुछ छोटे-छोटे बिंदु बना दें तो जैसे-जैसे गुब्बारा फूलता जाएगा वैसे-वैसे ये बिंदु भी एक-दूसरे से दूर होते जाएँगे। अब अगर इन बिन्दुओं को आकाशगंगा मान लें तो गुब्बारे यानी ब्रह्माण्ड के प्रसरण के साथ-साथ आकाशगंगाओं के बीच की दूरी भी बढ़ती जाएगी। इसे विज्ञान के डॉप्लर प्रभाव द्वारा भी समझा जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि सभी आकाशगंगायें पृथ्वी से दूर जा रही हैं। यह तथ्य स्पष्ट करता है कि विश्व का प्रसार हो रहा है। इस प्रकार यदि हम कालक्रम में पीछे देखें तो ये आकाशगंगायें आज की अपेक्षा आपस में पास-पास थीं तथा लगभग 15 अरब वर्ष पूर्व समूचे ब्रह्माण्ड की सभी आकाशगंगाओं का पदार्थ एक बिन्दु पर था जिसे वैज्ञानिक विलक्षणता का बिन्दु कहते हैं, जिसके विस्फोट से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई। इस विस्फोट को बिग-बैंग कहा जाता है।
प्रश्न 2. सूर्य की संरचना का विवेचन कीजिए।
सूर्व सौरमण्डल का जनक, केन्द्र तथा ऊर्जा का स्रोत है। यह एक मध्यम आयु का मध्यम तारा है। यह इस समय पूर्ण संतुलन की अवस्था में है जिसके फलस्वरूप इसके पड़ोस में जीवन सम्भव हो सका है। इसका व्यास 13.84 लाख किलोमीटर है। इसके केन्द्र का तापमान 15 मिलियन डिग्री सेंटीग्रेट है। इसके द्रव्यमान का 70 प्रतिशत भाग हाइड्रोजन, 28% हीलियम और 2% अन्य भारी तत्त्व (जैसे- लीथियम, यूरेनियम) है। यह नाभिकीय संलयन के फलस्वरूप हमें प्रति सेकेण्ड 40 लाख टन ऊर्जा सूर्यातप के रूप में प्रदान कर रहा है। सूर्य की वर्तमान आयु 4.5 अरब वर्ष है, जो इसकी कुल आयु (10 अरब वर्ष) का लगभग आधा है। पृथ्वी पर मिलने वाले 60 से अधिक तत्त्व सौर स्पेक्ट्रम में भी मिलते हैं।
सूर्य की आन्तरिक संरचना:-
सूर्य के केन्द्र से धरातल तक तीन स्तर प्राप्त होते हैं। यथा-(i) केन्द्र, (ii) विकिरण मेखला और (iii) संवहनीय मेखला।
(i).केन्द्र – सूर्य के केन्द्र का व्यास 3.48 लाख किमी. है। यहाँ का तापमान 15 मिलियन डिग्री सेंटीग्रेट है। इस ताप पर परमाणु का विभाजन इलेक्ट्रानों एवं नाभिक में हो जाता है, जिससे प्लाविका का निर्माण हो जाता है। ऐसी स्थिति में परमाणु के नाभिक एक दूसरे से उच्च गति से टकराकर नाभिकीय संलयन की अभिक्रिया करते हैं। अत्यधिक गर्म प्लाविका में हाइड्रोजन परमाणु के नाभिक परस्पर अभिक्रिया द्वारा हाइड्रोजन को हीलियम में परिवर्तित करते हैं। फलतः बड़ी मात्रा में ऊर्जा मुक्त होती है। ज्ञातव्य है कि प्लाज्मा पदार्थ की चौथी अवस्था है। अन्य तीन अवस्थाएँ हैं ठोस, द्रव तथा गैस।
(ii) विकिरण मेखला – इस मेखला की चौड़ाई 3.82 लाख किमी. है, जो केन्द्र को चारों ओर से ढके हुए है। सूर्य के केन्द्र में उत्पन्न ऊर्जा-वाहक फोटान एक्स तथा गामा किरणें इसकी सघन गैसीय मेखला से होकर गुजरती हैं।
(iii) संवहनीय मेखला – विकिरण मेखला को घेरे हुए 1.39 लाख किमी. मोटाई वाली संवहनीय मेखला तीसरे स्तर का निर्माण करती है। यह परत कोशिकाओं से निर्मित है। नीचे बड़ी तथा ऊपर छोटी कोशिकाएँ पायी जाती हैं। इन्हीं कोशिकाओं से होकर सौर्य ऊर्जा बाहर निकलती है। सूर्य के धरातल से ऊपर वाले मण्डल को भी तीन भागों में विभक्त किया गया है। यथा- (i) प्रकाश मंडल, (ii) वर्ण मंडल और (iii) कोरोना।
(i).प्रकाश मंडल – संवहनीय मेखला की सतह अर्थात् सूर्य के धरातल को प्रकाशमंडल कहतें हैं। इसका तापमान 6000°C होता है। प्रकाश कई रंगों से बना हुआ है, जिसमें से कुछ रंग प्रकाश मंडल द्वारा ही अवशोषित कर लिए जाते हैं। जहाँ-जहाँ प्रकाश मंडल द्वारा रंगों का अवशोषण होता है, वहाँ काली रेखायें दिखाई पड़ने लगती हैं। इन रेखाओं को फ्रानहॉफर रेखायें कहते हैं। सौर कलंक इस मंडल पर ही पाये जाते हैं। ज्ञातव्य है कि प्रकाश मंडल को सूर्य के धरातल एवं निकटस्थ (कुछ सौ किमी.) वायुमंडल दोनों में रखा जाता है।
(ii).वर्ण मंडल – वर्णमंडल सूर्य का वायुमंडल है। यह प्रकाश मंडल के ऊपर एक आवरण के रूप में 2000-3000 किमी. मोटाई में फैला है। यह गर्म गैसों से निर्मित है, किन्तु गैसों का घनत्व प्रकाश मंडल से बाहर जाने पर घटता है और ताप बढ़ता है। अर्थात् वर्ण मंडल में प्रकाश मंडल की अपेक्षा गैसों का घनत्व कम तथा ताप अधिक होता है।
वर्ण मंडल में गैसों के उठते प्रवाह को स्पिक्यूल कहा जाता है, जो कोरोना तक पहुंच जाती है। कभी-कभी इस मंडल में तीव्र गहनता का प्रकाश उत्पन्न होता है, जिसे सौरज्वाला की उपमा दी जाती है। इस ज्वाला से एक्स तथा गामा किरणें निकलती हैं और इसमें पदार्थ औसतन 800 किमी./सेकेण्ड की दर से बाहर फेंका जाता है। ध्यातव्य है कि वर्ण मण्डल का आरम्भ प्रकाश मंडल की उस ऊपरी परत से होता है जहाँ ऋणात्मक हाइड्रोजन कम हो जाते हैं।
(iii).कोरोना – यह सूर्य के वायुमंडल का सबसे बाहरी आवरण है, जो वर्णमंडल के ऊपर पाया जाता है। इसका विस्तार कई मिलियन किमी. तक पाया जाता है। बाहर की ओर यह क्रमशः क्षीण होकर आयन तथा इलेक्ट्रॉन की पवनों में परिवर्तित हो जाता है। सम्पूर्ण सौरतंत्र से होकर प्रवाहित होने वाली इस पवन को ‘सौर पवन’ कहा जाता है। इस मंडल में लाल रंग की लपटें उठती हैं जो काफी ऊँचाई तक जाती हैं। कभी-कभी ये लपटें चाप का निर्माण करती हुई कोरोना में भी प्रवेश कर जाती हैं। इस घटना को प्रामिनेन्स की संज्ञा दी जाती है। कोरोना से रेडियो तरंगें निकलती हैं। सूर्य के ध्रुवीय भागों के ऊपर इस मंडल में एक छिद्र होता है, जिसे कोरोना होल कहते हैं।
जब सूर्य का केन्द्रीय क्रोड पूर्णतः हीलियम में बदल जायेगा तो ऊर्जा का उत्पादन बन्द हो जायेगा और क्रोड संकुचित हो जायेगा। इस घटना को पूर्ण होने में अतिरिक्त 5 अरब (बिलियन) वर्ष लगेंगे। इस दौरान सूर्य का आकार बहुत बड़ा हो जायेगा और शुक्र तथा बुध ग्रह सूर्य द्वारा निगल लिये जायेंगे। पृथ्वी जलकर भस्म हो जायेगी। जब कोड का ईंधन पूर्णतः समाप्त हो जायेगा, तब सूर्य एक विशालकाय लाल पिण्ड प्रतीत होगा, जिसे रक्त दानव कहा जायेगा। प्रोटॉन एवं इलेक्ट्रॉन गुरुत्वीय दबाव से मुक्त हो जायेंगे और इलेक्ट्रॉन गैस का निर्माण होगा। इस स्थिति में तारे की दशा को श्वेत वामन कहा जायेगा। जब श्वेत वामन धीरे-धीरे ठंडा हो जायेगा तब इसकी अपनी चमक समाप्त हो जायेगी, उक्त अवस्था को कृष्ण वामन की उपमा दी जायेगी। इस प्रकार कृष्ण वामन रूप में सूर्य अदृश्य हो जायेगा।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति ।
उत्तर-ऐसा विश्वास किया जाता है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति लगभग 15 अरब वर्ष पहले घने, गर्म बूंद के रूप में शुरू हुई। इस अवधि के दौरान ब्रह्माण्ड केवल हाइड्रोजन और हीलियम की एक छोटी राशि से निर्मित था। उस समय किसी तारे और ग्रह का अस्तित्व नहीं था। जब यह ब्रह्माण्ड 100 मिलियन वर्ष पुराना हुआ तो तारों का उद्भव शुरू हुआ जिसमें केवल हाइड्रोजन गैस ही थी। लगभग इसी प्रक्रिया से 449000०००० वर्ष पूर्व सूर्य की उत्पत्ति की प्रक्रिया आरंभ हुई थी।
प्रश्न 2. विग बैंग थ्योरी।
उत्तर-बिग बैंग सिद्धान्त का प्रतिपादन 1927 में जार्ज लेमैत्रे ने किया था। ऐसा माना जाता है कि ब्रह्माण्ड सघन और गर्म था। पूरा ब्रह्माण्ड एक छोटे से बिन्दु के अन्दर समाहित था और इसी से पूरे ब्रह्माण्ड का उद्भव माना जाता है। ब्रह्माण्ड के प्रारम्भिक विस्तार के बाद, ब्रह्माण्ड की जमने की प्रक्रिया की शुरुआत हुई जिसकी वजह से सब-एटॉमिक कणों की रचना हुई। इन कणों की बहुलता के कारण ही बाद में हाइड्रोजन का निर्माण हुआ और बाद में हीलियम और लिथियम का निर्माण भी संभव हुआ। बाद में इन्हीं कणों के संगठित होने से तारों और ग्रहों का निर्माण संभव हुआ। इनमें मौजूद भारी पदार्थों का इन तारों का सुपर नोवा के अंदर विश्लेषण हुआ और इनके बनने में भी इस प्रक्रिया की भारी भूमिका रही। इसलिए बिग बैंग सिद्धान्त ब्रह्माण्ड की प्रारम्भिक स्थिति की व्याख्या नहीं करता, लेकिन यह ब्रह्माण्ड के सामान्य विकास का वर्णन करता है। कुछ अरब वर्ष पहले हाइड्रोजन और हीलियम के बादल संकुचित होकर तारों और आकाशगंगाओं का निर्माण करने लगे। बिग बैंग घटना के पश्चात् आज से लगभग 4.5 अरब वर्ष पूर्व सौरमण्डल का विकास हुआ जिससे ग्रहों एवं उपग्रहों का निर्माण हुआ।
प्रश्न 3. आकाशगंगा और निहारिकाएँ।
उत्तर-आकाशगंगा के निर्माण की शुरुआत हाइड्रोजन गैस से बने विशाल बादलों के संचालन से होती है। इसे ‘निहारिका’ कहा जाता है। इस बढ़ती हुई निहारिका में गैस के झुण्ड विकसित हुए, झुण्ड बढ़ते-बढ़ते घने गैसीय पिण्ड बने जिनसे तारों का निर्माण हुआ। गुरुत्वाकर्षण बल के अधीन बँधे तारों, धूल-कणों एवं गैसों के तंत्र को आकाशगंगा की संज्ञा दी जाती है। हमारा सौरमण्डल जिस आकाशगंगा में स्थित है उसे ‘मंदाकिनी’ कहते हैं। यह सर्पिलाकार है एवं कई आकाशगंगाओं के वृहद् समूह का सदस्य है, जिसे स्थानीय समूह कहते हैं।
प्रश्न 4. तारे का जन्म तथा विकास।
उत्तर-ब्रह्माण्ड में उपस्थित गैसों एवं धूल के कणों/बादलों का गुरुत्वाकर्षण के कारण आकाश गंगा के केन्द्र में नाभिकीय संलयन शुरू हो जाता है एवं हाइड्रोजन हीलियम में बदलने के कारण नवीन तारों का निर्माण होता है। आकाशगंगा में हाइड्रोजन का बादल बड़ा होता है तो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से गैसीय पिण्ड सिकुड़ने लगता है जो तारे के जन्म का प्रारम्भिक स्वरूप होता है। यह आदि तारा कहलाता है। आदि तारा सिकुड़ने पर गैस के बादलों में परमाणुओं की टक्कर की संख्या बढ़ने से हाइड्रोजन के हीलियम में बदलने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इस अवस्था में आदि तारा पूर्ण तारा बन जाता है। तारा प्रकाशवान एवं प्रकाश उत्पन्न करने वाला खगोलीय पिण्ड होता है, जो अपने द्रव्यमान के अनुरूप छोटा या बड़ा हो सकता है।
प्रश्म 5. चन्द्रशेखर सीमा।
उत्तर-एस. चन्द्रशेखर भारतीय मूल के अमेरिकी भौतिकविद् थे जिन्होंने श्वेत वामन तारों के जीवन अवस्था के बारे में सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इसके अनुसार 1.44 सौर द्रव्यमान ही श्वेत वामन के द्रव्यमान की ऊपरी सीमा है। इसे ही चन्द्रशेखर सीमा कहते हैं। एस. चन्द्रशेखर को संयुक्त रूप से नाभिकीय खगोल भौतिकी में ‘डब्ल्यू. ए. फाउलर’ के साथ 1983 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
प्रश्न 6. न्यूट्रान तारा।
उत्तर-सुपरनोवा विस्फोट से बचे हुए केन्द्रीय भाग जो कि अत्यधिक घनत्व वाला होता है, से न्यूट्रान तारों का निर्माण होता है। अधिक गति से चक्कर लगाने वाले न्यूट्रानों से बने तारों को ‘न्यूट्रान तारा’ कहते हैं। न्यूट्रान तारे के सभी अंश न्यूट्रान के रूप में संगठित रहते हैं। यह तीव्र रेडियो तरंगें उत्सर्जित करते हैं। न्यूट्रान तारे को ‘पल्सर’ भी कहा जाता है।
प्रश्न 7. स्थली अवस्था सिद्धान्त।
उत्तर-इस सिद्धान्त के अनुसार, न तो कोई ब्रह्माण्ड का आदि है और न अन्त। यह समयानुसार अपरिवर्तित रहता है। यद्यपि इस सिद्धान्त में प्रसरणशीलता समाहित है, परन्तु फिर भी ब्रह्माण्ड के घनत्व को स्थिर रखने के लिए इसमें पदार्थ स्वतः रूप से सृजित होता रहता है। जहाँ ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त (बिग बैंग सिद्धान्त) के अनुसार पदार्थों का सृजन अकस्मात हुआ, वहीं स्थायी अवस्था सिद्धान्त में पदार्थों का सृजन हमेशा चालू रहता है।
प्रश्न 8. दोलायमान ब्रह्माण्ड सिद्धांत।
उत्तर-इस सिद्धान्त के अनुसार हमारा ब्रह्माण्ड करोड़ों वर्षों के अन्तराल में विस्तृत और संकुचित होता रहता है। इस सिद्धान्त के प्रवर्तक एलेन संडेज का मानना है कि आज से 120 करोड़ वर्ष पहले एक तीव्र विस्फोट हुआ था और तभी से ब्रह्माण्ड फैलता जा रहा है। 290 करोड़ वर्ष बाद गुरुत्वाकर्षण बल के कारण इसका विस्तार रुक जाएगा। इसके बाद ब्रह्माण्ड संकुचित होने लगेगा और अत्यन्त संपीडित और अनंत रूप से बिन्दुमय आकार धारण कर लेगा, उसके बाद एक बार पुनः विस्फोट होगा तथा यह क्रम चलता रहेगा। इस सिद्धान्त को दोलायमान ब्रह्माण्ड सिद्धान्त कहते हैं।
प्रश्न 9. महाविच्छेद (द बिग रिप)।
उत्तर-इस संभावना के अनुसार ब्रह्माण्ड तब तक विस्तारित होता रहेगा जब तक प्रत्येक परमाणु टूट कर इधर-उधर फैल नहीं जाएगा। यह ब्रह्माण्ड के अन्त की सबसे भयानक घटना होगी लेकिन, ब्रह्माण्ड के इस अवस्था में देखने के लिए हम जीवित नहीं रहेंगे क्योंकि इस अवस्था तक पहुँचने से पहले ही हमारी आकाश गंगा और हम नष्ट हो चुके होंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार यह घटना आज से लगभग 23 अरब वर्ष बाद होगी।
प्रश्न 10. सौर मण्डल।
उत्तर-हमारे सौरमण्डल में कुल 8 ग्रह हैं, जिनके रंग इन ग्रहों पर उपस्थित तत्त्वों के कारण भिन्न- भिन्न हैं। सौरमण्डल में सूर्य और वह खगोलीय पिण्ड शामिल हैं जो इस मण्डल में एक-दूसरे से गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा बंधे हैं। सौर परिवार में सूर्य, ग्रह, उपग्रह, उल्का पिण्ड, क्षुद्र ग्रह और धूमकेतु आते हैं। सूर्य इसके केन्द्र में स्थित एक तारा है, जो सौर परिवार के लिए ऊर्जा और प्रकाश का स्रोत है। हमारे सूर्य और उसके ग्रहीय मण्डल को मिलाकर हमारा सौर मण्डल बनता है। इन पिण्डों में आठ ग्रह, उनके 166 ज्ञात उपग्रह और अरबों छोटे पिण्ड शामिल हैं।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. मंदाकिनी’ किसे कहते हैं?
उत्तर- हमारा सौर मण्डल जिस आकाशगंगा में स्थित है उसे ‘मंदाकिनी’ कहते हैं। यह सर्पिलाकार है एवं कई आकाशगंगाओं के बृहद् समूह का सदस्य है, जिसे स्थानीय समूह कहते हैं। मंदाकिनी के सर्वाधिक पास स्थित आकाशगंगा ‘एण्ड्रोमेडा’ है जो सौरमण्डल से लगभग 22 लाख प्रकाश वर्ष दूर है। गैलीलियो ने सबसे पहले मन्दाकिनी को देखा था।
प्रश्न 2. सुपरनोवा क्या है?
उत्तर- यदि तारे का द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से अधिक या कई गुना अधिक है तो तारे की मध्यवर्ती परत गुरुत्वाकर्षण के कारण तारे के केन्द्र में ध्वस्त हो जाती है। इससे निकली ऊर्जा तारे के ऊपरी परत को नष्ट कर देती है और भयानक विस्फोट होता है जिसे ‘सुपरनोवा विस्फोट’ कहते हैं। सुपरनोवा विस्फोट के बाद वह तारा ‘न्यूट्रान’ तारा तथा इसके पश्चात् ब्लैकहोल में बदल जाता है।
प्रश्न 3. ‘सूर्य’ से आप क्या समझते हैं
उत्तर- ‘सूर्य’ सौरमण्डल के केन्द्र में स्थित एक तारा है जिसके चारों तरफ पृथ्वी और सौरमण्डल के अन्य अवयव घूमते हैं। सूर्य हमारे सौरमण्डल का सबसे बड़ा पिण्ड है और उसका व्यास लगभग 13 लाख 90 हजार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग 109 गुना बड़ा है। ऊर्जा का यह शक्तिशाली भण्डार मुख्य रूप से हाइड्रोजन और हीलियम गैसों का विशाल गोला है। सूर्य की सतह का निर्माण हाइड्रोजन, हीलियम, लोहा, निकेल, ऑक्सीजन, सिलिकन, सल्फर, मैग्नीशियम, कार्बन, नियोन, कैल्शियम, क्रोमियम आदि तत्त्वों से हुआ है।
प्रश्न 4. क्षुद्र ग्रह या अवांश ग्रह।
उत्तर- पथरीले और धातुओं के ऐसे पिण्ड जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं लेकिन इतने लघु हैं कि इन्हें ग्रह नहीं कहा जा सकता, लघु ग्रह या क्षुद्र ग्रह या गहिका कहलाते हैं। ‘सेरेस’ सबसे बड़ा क्षुद्र ग्रह है।
प्रश्न 5. बुध ग्रह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर- बुध, सूर्य के सबसे निकट का ग्रह है। यह हमारे सौरमण्डल का सबसे छोटा ग्रह है। सूर्य की परिक्रमा करके एक चक्कर पूरा करने में केवल 88 दिन लगते हैं। बुध को ‘रोमन गाड ऑफ कामर्स’ के रूप में जाना जाता है।
प्रश्न 6. शुक्र ग्रह के बारे में बताइए।
उत्तर- शुक्र सौर मण्डल का सबसे चमकीला और गर्म ग्रह है। शुक्र को ‘पृथ्वी का जुड़वा’ माना जाता है क्योंकि इसका आकार और स्वरूप पृथ्वी से बहुत मिलता-जुलता है। यह पूर्व से पश्चिम की ओर घूमता है।
प्रश्न 7. पृथ्वी को संक्षेप में बताइए।
उत्तर– पृथ्वी सूर्य का तीसरा निकटतम ग्रह और पाँचवां सबसे बड़ा ग्रह है। यह ध्रुवों पर थोड़ी चपटी है। इसलिए, इसका आकार एक जियोइड के रूप में वर्णित है। ‘चन्द्रमा’, पृथ्वी का एकमात्र उपग्रह है। पृथ्वी को ब्लू ग्रह के नाम से भी जाना जाता है।
प्रश्न 8. मंगल ग्रह।
उत्तर- मंगल ग्रह लौह आक्साइड की उपस्थिति के कारण थोड़ा लाल दिखाई देता है। इसीलिए इसे लाल ग्रह के रूप में जाना जाता है। निक्स ओलम्पिया मंगल का एक पर्वत है जो माउंटेन एवरेस्ट से तीन गुना अधिक ऊँचा है। इसे ‘रोमन गॉड ऑफ वार’ के रूप में जाना जाता है।
प्रश्न 9. बृहस्पति ग्रह।
उत्तर- बृहस्पति सौर मण्डल का सबसे बड़ा ग्रह है। वृहस्पति का द्रव्यमान पृथ्वी से लगभग 318 गुना है। इसके चारों ओर धुँधला छल्ला है। इसके 75 प्राकृतिक उपग्रह हैं।
प्रश्न 10. शनि ग्रह।
उत्तर- शनि सौरमण्डल का दूसरा सबसे बड़ा ग्रह है। इसमें 7 मुख्य वलय हैं। इसके प्राकृतिक उपग्रहों की संख्या 82 है। यह सभी ग्रहों में सबसे कम सघन है। शनि ग्रह का रंग पीला दिखाई देता है।
इकाई- 1(III)- पृथ्वी की आंतरिक संरचना
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. भू-गर्भ की रचना की व्याख्या कीजिए।
अथवा
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
पृथ्वी के आभ्यन्तर के विषय में निम्न विचारधाराएँ हैं–
(1).ठोस के अन्तरतम परिकल्पना:-
जर्मन भू-गर्भशास्त्री सुइस ने इस धारणा को प्रस्तुत किया है कि दबाव बढ़ जाने से प्रत्येक पदार्थ का गलनांक बढ़ जाता है किन्तु प्रयोग से ज्ञात हुआ है कि यह एक सीमा तक ही सम्भव है। ऊँचे तापमान में कोई भी खनिज पदार्थ ठोस नहीं रह सकता है। ज्वालामुखी के विस्फोट, आग्नेय शैलें और गरम स्रोत इसका समर्थन करते हैं। ब्रिटिश विद्वान् पिट तथा जर्मन भूगोलवेत्ता रिटर ने इस विचार का प्रतिपादन किया। किन्तु इसके विपक्ष में कहा गया है कि ज्वार-भाटे के समय पृथ्वी का गोलाकार पिण्ड एक ठोस पिण्ड का कार्य करता है और भूकम्प तरंगें बहुत गहराई तक पहुँच जाती हैं, जो ठोस गोलाकार पिण्ड में ही सम्भव हो सकता है। अन्य नक्षत्र भी पृथ्वी की तरह ठोस मिलते हैं। सन् 1936 ई० में लेटमान महोदय ने भूकम्प विज्ञान सम्बन्धी प्रमाणों से सिद्ध किया है कि पृथ्वी का केन्द्र ठोस हो सकता है।
(2).तरल अन्तरतम परिकल्पना:-
वैज्ञानिक लाप्लास द्वारा प्रतिपादित तरल अन्तरतम परिकल्पना के पक्ष में ज्वालामुखी का उद्भेदन तथा भू-कम्प तरंगों की रुकावट की घटना प्रस्तुत की जाती है। बीचर्ट महोदय ने सन् 1890 ई० में तरल अन्तरतम की परिकल्पना को प्रस्तुत किया जिसको भू-वैज्ञानिक ओल्डम ने सिद्ध किया किन्तु इसके विरुद्ध निम्न प्रमाण भी मिलते हैं-
1. सागर में ज्वार-भाटा उत्पन्न करने के लिए जल-मण्डल के नीचे 400 किलोमीटर मोटाई का ठोस गोलाकार पिण्ड होना चाहिए। तरल अन्तरतम पर सारी शक्तियों के प्रभाव से पृथ्वी की तहें दो बार मुड़ जाती हैं। यदि पृथ्वी का अन्तरतम तरल होता तो पृथ्वी के धरातल पर ज्वार उठते, किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता।
2. ऊपर की ठोस तह इतने युगों में ठोस और घनी हो जाती। भौगोलिक युगों में मोटी तह हो जाने पर ज्वालामुखी के विस्फोटों में लगातार कमी होती चली जाती, परन्तु ऐसा नहीं है।
3. एक ठोस की तरह तरल अन्तरतम पर रखी नहीं रह सकती हैं। जैसे ही वह ठोस होगी, तह की शैल अधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे बैठ जायेगी। इस दशा में पृथ्वी के तरल अन्तरतम की कल्पना का त्याग करना पड़ा।
स्वीडन के वैज्ञानिक अरीनिडस ने यह कल्पना की थी कि पृथ्वी धातुओं से बनी है और इसके अत्यन्त गहरे भाग में धातुएँ भरी हुई हैं। इसका ऊपरी भाग ठोस है, बीच में द्रव पदार्थ है और सबसे नीचे का भाग गैसीय अवस्था में है। किन्तु इस कथन को स्वीकार करने में दो कठिनाइयों हैं-
1.ज्वार के समय समस्त पृथ्वी-पिण्ड एक ठोस पिण्ड की भाँति कार्य करता है।
2.भूकम्प की तरंगें काफी गहराई तक उसी प्रकार चली जाती हैं, जैसे वे एक ठोस पिण्ड में आ सकती हैं।
(3) गैसीय अंर्ततम परिकल्पना:-
भू-पटल की शैलों तथा पृथ्वी के घनत्व के आधार पर न्यूटन ने निर्धारित किया था कि आकर्षण- शक्ति पदार्थों के द्रव्य की मात्रा के अनुपात में बढ़ती है और उनके बीच दूरी के अनुपात में कम होती है। इस नियम के अनुसार सम्पूर्ण पृथ्वी का घनत्व 55 है, पर्पटी का 2.7 है तथा केन्द्रीय भाग का 8 है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग बहुत भारी पदार्थों से बना है। पृथ्वी के गोले की परिदृढ़ता, पृथ्वी का चुम्बकत्व, उल्काओं में लोहे तथा निकिल के यौगिकों का महत्त्वपूर्ण अंश भी इस तथ्य के समर्थन में आते हैं। अतः लाप्लास द्वारा प्रस्तुत गैसीय अन्तरतम की धारणा अव्यावहारिक प्रतीत होती है।
सुइस का सिद्धान्त:-
पृथ्वी का बाह्य शैलों का रवेदार भाग मुख्यतः सिलिका से बना है जिसमें फेल्सपार, अभ्रक (Mica) इत्यादि खनिज हैं। सिलिका से बनी हुई शैलों का घनत्व बहुत भिन्न होता है क्योंकि रवेदार शैले दो प्रकार की होती हैं, जिसमें प्रथम, हल्के सिलिका की शैलें तथा द्वितीय, घने सिलिका की शैलें हैं। उपर्युक्त बातों से सुइस नामक जर्मन वैज्ञानिक के विचार की पुष्टि होती है कि अवसादी शैलों के नीचे साधारण ग्रेनाइट तुल्य पदार्थों की एक तह है जिसे हम सिएल कहते हैं। इसमें सिलिका तथा एलुमिनियम की प्रधानता होती है। इसका घनत्व 2.7 से 2.9 होता है। इससे अधिकतर महाद्वीपों का निर्माण होता है। इसके नीचे अधिक घनत्व का पदार्थ होता है जिसमें सिलिका तथा मैग्नीशियम की अधिकता होती है और इसको हम सिमै कहते हैं। इसकी तुलना में भारी मूल आग्नेय शैलें ही रखी जा सकती हैं। सिमै की प्रतिनिधि शैल बेसाल्ट तथा गेब्रो हैं। इसका घनत्व 2.9 से 4.75 के बीच है। इसकी परत अधिकतर महासागरों का निर्माण करती हैं पर महाद्वीपों के नीचे भी स्थित हैं। पृथ्वी का केन्द्रीय भाग लोहा एवं निकिल का बना हुआ है और इसको निफे कहते हैं।
सुइस ने सिम के पश्चात् पृथ्वी के केन्द्रीय भाग को निफे नाम दिया है। इसकी शैलों का घनत्व 8 से 11 है जिसमें लोहा तथा निकिल की प्रधानता है।
सुइस के मतानुसार महाद्वीप सिएल-निर्मित है और महाद्वीपों का निचला भाग तथा महासागरीय तल सिमै के बने हुए हैं।
पृथ्वी की परतों का विभाजन:-
भूकम्प की लहरों के आधार पर पृथ्वी की तीन परतें भी ज्ञात होती हैं-
1. स्थल मण्डल-इसकी मोटाई पृथ्वी के धरातल से 100 किमी की गहराई तक मानी जाती है। यह हल्की जलज शैलों द्वारा निर्मित है। इसमें ग्रेनाइट, शैलों की प्रधानता है जिसमें सिलिका तथा एलुमिनियम धातुओं की प्रधानता है। इसमें भू-कम्प की प्रधान तरंगों की चाल 51 किमी प्रति सेकण्ड और तिरछी तरंगों की 3 किमी सेकण्ड होती है। इनकी शैलों के घनत्व 2.7 है।
2. उत्ताप मण्डल-यह भू-गर्भ का मध्यवर्ती भाग है जो 100 किमी से 2,900 किमी गहराई तक माना जाता है। इन शैलों में सिलिका तथा मैग्नीशियम की अधिकता है। इसमें तरंगें 6 से 7 किमी प्रति सेकण्ड और तिर्यक तरंगें 3 से 4 किमी प्रति सेकण्ड चलती हैं। बेसाल्ट शैलों का इस प्रदेश का घनत्व 3.5 है।
3. गुरु या केन्द्र-मण्डल-यह भाग 2,900 किमी गहराई से पृथ्वी के केन्द्र तक पड़ता है। यह पृथ्वी का एक तिहाई भाग है। इसका घनत्व 8 से 11 है। इस भाग में लोहा या निकिल की प्रमुखता है। इसमें तिरछी तरंगें प्रवेश नहीं कर पातीं और द्रव में प्रवेश करते समय प्रधान तरंगों की गति में कमी आ जाती है। यह भाग लोचदार, मुलायम किन्तु दृढ़ प्रतीत होता है।
वर्तमान अन्वेषणों के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि पृथ्वी का आन्तरिक भाग पूर्णतया द्रव- पदार्थ द्वारा निर्मित नहीं है, बल्कि सबसे नीचे केन्द्रीय भाग में 1,290 किमी अर्द्धव्यास का ठोस भाग है जिसका घनत्व 18 है। मध्य के द्रव-सिलिकेट द्वारा निर्मित द्रव-क्षेत्र लगभग 2,250 किमी मोटा है।
उपर्युक्त कल्पना के समर्थन में विश्व-उत्पत्ति-शास्त्र भौतिकशास्त्र में शिलाओं की संपीड्यता का प्रायोगिक अध्ययन तथा उल्का-पिण्ड विज्ञान प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
जेफरी के सिद्धान्त तथा भू-कम्प तरंगें:-
कुछ वैज्ञानिकों ने भूकम्प तरंगों के अध्ययन से भी पृथ्वी की आन्तरिक रचना का अनुमान लगाया है। तरंगें मुलायम शैलों की अपेक्षा ठोस शैलों में तीव्रता से गुजरती हैं। कम घनत्व की शैलों में ये तरंगें धीरे- धीरे समान गति से गुजरती हैं, परन्तु आन्तरिक भाग की ओर इसकी गति तीव्रतर हो जाती है जबकि इससे अधिक गहराई पर तरंगों की गति एक-सी रहती है। इस प्रकार तीन वर्ग की तीन विभिन्न भू-गर्भीय गतियों के आधार पर शैलों की तीन परतें ज्ञात होती हैं ऊपरी, मध्यवर्ती तथा अधःस्तर। ऊपरी तह में ग्रेनाइट का गुण अधिक है जिसमें अवसादी, कायान्तरित तथा आग्नेय शैलें सम्मिलित हैं। इसकी मोटाई 15 किलोमीटर मानी जाती है।
यह कम घनत्व का स्तर है। इसका घनत्व 2.7 है। इसकी तरंगें Pg कहलाती हैं जिनकी गति 5.4 किमी प्रति सेकण्ड होती है। दूसरी तरंगें Sg कहलाती हैं जिनकी गति 3.3 किमी प्रति सेकेण्ड होती है। यह गति 15 किमी की गहराई तक पायी जाती है। महासागरों में ग्रेनाइट शैल का स्तर नहीं मिलता है।
मध्यवर्ती तह में बेसाल्ट की प्रधानता है जो 20 से 30 किमी गहरी है। यह पिघलती हुई दशा में एक निश्चित रासायनिक बनावट है जो दबाव व भौतिक दशा के अन्तर्गत भिन्न-भिन्न खनिजों के मिश्रण से रवेदार हो सकती है या ठोस की दशा में बदलते समय रवा नहीं बन सकता है, द्रव्य ही रहता है। इस स्तर में प्रधान तरंगों की गति 6 किमी तथा गौण तरंगों की गति 4 किमी प्रति सेकण्ड होती है। इसमें महासागरों के अवसाद बेसाल्ट पर आधारित रहते हैं। बेसाल्ट की परत लगभग 5 किमी मोटी होती है।
बेसाल्ट की परत के नीचे प्रावार शैल की परत 2,900 किमी गहराई तक मिलती है। प्रावार शैल तथा भू-पृष्ठ के मध्य एक सीमा का निर्धारण भू-वैज्ञानिक मोहोरो विसिस महोदय ने किया। मोहोरो विसिस महोदय ने 35 किमी पर इस पेटी में भूकम्प तरंगों में एक परिवर्तन या असातत्य पाया। इसको मोहो संज्ञा प्रदान की गयी। इसका घनत्व 35 है। प्रावार-शैल की पेटी के निचले भाग का घनत्व 5.7 है।
अंतःस्तर में प्रावार शैल की परत से 5,100 किमी तक बाह्य-भू-क्रोड मिलता है। इसके निचले भाग का घनत्व 15.2 है। इसके पश्चात् पृथ्वी के केन्द्र से 6,370 किमी तक आन्तरिक भू-क्रोड मिलता है जिसका घनत्व 17.2 है। इन स्तरों में घनत्व की अधिकता से तरंगें दुर्बल हो जाती हैं। प्रथम तरंगों की गति वक्र हो जाती है। प्रावार-शैल की परत से पृथ्वी के केन्द्र तक लोहा एवं निकिल की प्रमुखता मिलती है। यह भाग लचीला, मुलायम किन्तु दृढ़ प्रतीत होता है।
अमरीकी भू-विज्ञानी डैली तथा स्काटिश गणितज्ञ जेफरी इस भाग को बेसाल्ट या लास या टैचीलाइट का बना हुआ ही मानते हैं, जबकि बेगरन और होम्स इसे एम्फीबोलाइट का बना मानते हैं, किन्तु अधःस्तर भाग अवश्य ही बेसाल्ट जैसे घने पदार्थों से बना हुआ माना जाता है जिसमें ओलिविन तथा खनिज की अधिकता है और ये पदार्थ स्वा-सहित चमकदार दशा में हैं। इसको डुनाइट द्वारा सम्बन्धित किया जाता है। इस प्रकार भू-कम्पी तरंगों के अध्ययन से पृथ्वी की आन्तरिक संरचना की जानकारी में भारी सहायता मिल सकी है।
प्रश्न 2. पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी प्रमुख परिकल्पनाओं को लिखिए तथा किसी एक परिकल्पना की विवेचना कीजिए।
पृथ्वी की उत्पत्ति अत्यन्त रहस्यपूर्ण है। इस विषय में विभिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। ज्यों-ज्यों विज्ञान की उन्नति होती जा रही है, पृथ्वी की उत्पत्ति का रहस्य प्रकाश में आ रहा है। इस सम्बन्ध में दो विचार हैं-
1.एकतारक या अद्वैतवादी परिकल्पना, 2. युग्मतारक या द्वैतवादी परिकल्पना।
अठारहवीं शताब्दी की परिकल्पनाएँ-:
(1).लाप्लास की निहारिका परिकल्पना, (2) काण्ट की उन्नीसवीं शताब्दी की परिकल्पनाएँ (3) लाकियर की उल्का परिकल्पना, (4) लिगण्डी की उल्का परिकल्पना।
बीसवीं शताब्दी की परिकल्पनाएँ –
(1) जेम्स, जीन्स और जैफरे की ज्वारीय परिकल्पनाएँ, (2) चेम्बरलिन और मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना, (३) आटोश्मिक की परिकल्पना, (4) रसेल एवं लिटिलटन की परिकल्पना। (5) होमल की परिकल्पना।
आधुनिक परिकल्पनाएँ–
(1) वॉन वीजसर और क्वीयर की परिकल्पना, (2) फसेन कोव की परिकल्पना, (3) भौतिक शास्त्रीय आफवेन की परिकल्पना, (4) ड्रोबीशेवस्की की वृहस्पति-सूर्य, द्वैतारक परिकल्पना।
(I).एकतारक या अद्वैतवादी परिकल्पनाएँ:-
यह परिकल्पना एक तारे से सम्बन्धित है। इसमें पृथ्वी की उत्पत्ति केवल एक ही तारे के द्वारा मानी गयी है। इसमें विद्वानों ने बताया है कि सौर परिवार की उत्पत्ति एक ही तारे का प्रतिफल है। इस परिकल्पना के जन्मदाता एक फ्रांसीसी विद्वान बफन थे। इसके पश्चात् अन्य समर्थक काण्ट, लाप्लास, लॉकियर, हरशील तथा रोसे हुए। इनके विचार निम्न प्रकार से प्रस्तुत हैं-
डॉ० बफन की परिकल्पना:-
पृथ्वी की उत्पत्ति के प्रथम ज्ञाता डॉ० बफन ने 1745 ई० में अपना विचार प्रस्तुत किया। ये फ्रांस के निवासी थे। इन्होंने अपने मत को वैज्ञानिक दृष्टि से रखकर काफी प्रभावित किया है। जार्ज डी-बफन के नुसार, “बहुत समय पहले ब्रह्माण्ड में घूमता हुआ एक बहुत बड़ा पुच्छल तारा सूर्य के नजदीक होकर गुजरा जिससे दोनों आपस में टकरा गये। इस टक्कर के उपरान्त बहुत सारा पदार्थ सूर्य से अलग हो गया, क्योंकि उस समय सूर्य द्रव अवस्था में था। इस प्रकार निकले हुए सूर्य के इस पदार्थ से कालान्तर में घनीभूत होकर ग्रहों तथा उपग्रहों की उत्पत्ति हुई। सूर्य से निकले पदार्थ के जो बड़े भाग थे वह ग्रह बने तथा जो छोटे-छोटे भाग थे वे उपग्रह बने। बाकी का बहुत-सा पदार्थ वायुमण्डल में ही विलीन हो गया।“
आलोचना – यह परिकल्पना अपने उस समय के लोगों को बहुत सत्य मालूम हुई, लगभग 50 वर्षों तक इसके विपरीत किसी ने कोई अपना तर्क नहीं दिया, लेकिन बढ़ते हुए वैज्ञानिक युग में अन्य विद्वानों ने इसका बड़ा भारी विरोध किया, जो निम्नलिखित हैं-
1. सर्वप्रथम विद्वानों ने यह बात सिद्ध की कि अन्तरिक्ष में सभी पिण्ड अपनी-अपनी निश्चित कक्षाओं में परिक्रमा करते हैं। ऐसी स्थिति में विशालकाय पुच्छल तारा दूसरी कक्षा में आकर सूर्य से कैसे टकरा गया, अतः यह तथ्य नितान्त असत्य है, साथ ही एक बड़ा पुच्छल तारा बड़े सूर्य से टकरा गया अर्थात् इसके बाद आज तक कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिला।
2. विद्वानों ने यह भी बताया कि एक विशालकाय सूर्य से पुच्छल तारे की टक्कर इतनी महत्त्व नहीं रखती कि वह बहुत सारा द्रव्य पदार्थ सूर्य से अलग कर देती, साथ ही सूर्य की आकर्षण शक्ति इतनी तीव्र होती है कि वह अपने निकले हुए पदार्थों को तुरन्त अपने में सोख लेती है, अतः किसी भी प्रकार सूर्य अपने पदार्थ को अलग नहीं होने देता।
3. यदि सूर्य से पिघला हुआ पदार्थ अलग भी हो गया हो तो उसके बने ग्रह तथा उपग्रह गोलाकार कैसे हो गये, क्योंकि सूर्य का पिघला पदार्थ तो टेढ़ा-मेढ़ा था, अतः बफन की परिकल्पना सत्य नहीं उत्तरती।
4. बफन ने बने हुए ग्रह तथा उपग्रहों को सूर्य के साथ स्थापित रहने का कोई क्रम स्पष्ट नहीं किया, जबकि सभी ग्रह तथा उपग्रह सूर्य के साथ क्रम में स्थापित हैं। जैसे सूर्य के पास पहले छोटे ग्रह तथा बीच में कुछ बड़े ग्रह तथा बाद में फिर छोटे ग्रह स्थापित हैं।
5. पुच्छल तारे का भार पृथ्वी के भार की तुलना में 3 लाख गुना अधिक है। यह पृथ्वी से लगभग 13 लाख गुना बड़ा है। इसका व्यास लगभग 13.84 लाख किलोमीटर है जो कि पृथ्वी के व्यास से 109 गुणा अधिक है। चूंकि सूर्य में अपार आकर्षण शक्ति पायी जाती है। इस कारण इसके परिवार के समस्त ग्रह तथा उपग्रह इसके चारों ओर चक्कर लगाते हैं। सूर्य इतना अधिक विशाल है कि यदि अपने सौरमण्डल के समस्त ग्रह तथा उपग्रह उसके अन्दर भर दिये जायें तो भी वे उसके केवल 1100 वाँ भाग ही घेर सकेंगे।
6. विद्वानों ने यह बात भी स्पष्ट की है कि सूर्य से निकलने वाला टेढ़ा-मेढ़ा पदार्थ गोलाकार ग्रह के रूप में तो परिवर्तित हो गया, लेकिन उनमें भ्रमणशील गति कैसे पैदा हो गयी।
(II).काण्ट की वायव्य-राशि परिकल्पना:-
बफन की परिकल्पना के बाद जर्मनी के प्रसिद्ध दार्शनिक इमैनुअल काण्ट ने 1755 ई० में पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पना का प्रतिपादन किया। काण्ट का कथन था, “मुझे पदार्थ दो, मैं पृथ्वी की उत्पत्ति कर दिखलाऊँगा।“ न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम पर प्रस्तुत किया। काण्ट ने यह बताया है कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम में प्रत्येक वस्तु पृथ्वी की ओर आकर्षित होती है तथा केन्द्रापसारी बल में प्रत्येक वस्तु पृथ्वी से दूर हटने की कोशिश करती है। काण्ट महोदय के विचारानुसार प्रारम्भ में बहुत से पौराणिक पदार्थ से बने कठोर कण समस्त विश्व तथा आकाश में फैले हुए थे। ये सभी पौराणिक कठोर आद्य कण गुरुत्वाकर्षण के कारण एकत्र होकर आपस में टकराने लगे। इन कणों के टकराने से ताप उत्पन्न हुआ। ताप से द्रव तथा द्रव से गैसीय अवस्था में आया, वह गैसीय पुंज केन्द्रित हो जाने पर परिभ्रमण करने लगा। इस लगातार परिभ्रमणशील गति से गुरुत्वाकर्षण बल की अपेक्षा केन्द्रापसारी बल अधिक बढ़ा। इस केन्द्रापसारी बल के अधिक बढ़ने से गैसीय पुंज के मध्यवर्ती भाग में उभार पैदा हो गया। इस उभार में नौ गोलाकार छल्ले बने जो कि निहारिका के रूप में अलग हो गये। ये नवग्रह तथा इनके अतिरिक्त उपग्रह बने और जो अवशिष्ट भाग बचा वह सूर्य बना। इस प्रकार सौर परिवार की रचना हुई। बाद में चलकर यह परिकल्पना तर्कहीन प्रमाणित कर दी गयी, क्योंकि यह नियम गणित के गलत नियमों पर कल्पित किया गया था।
आलोचनाएँ –
- सर्वप्रथम इस परिकल्पना में यह त्रुटि सामने आती है कि आद्य कण गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण आपस में टकराने लगे। यह शक्ति पहले किस स्थिति में छिपी थी और बाद में कैसे प्रकट हो गयी।
- काण्ट ने इस बात की भी पुष्टि की कि वायुमण्डलीय आद्य कणों के आपसी भ्रमण करने से टकराना प्रारम्भ हुआ। इस टकराव के कारण ही गुरुत्वाकर्षण शक्ति ने जोर पकड़ा, लेकिन गति विज्ञान के ‘कोणीय संवेग की सुरक्षा के सिद्धान्त’ के अनुसार वायुमण्डलीय आद्य कणों के आपस में टकराने से कणों में परिभ्रमणशील गति पैदा नहीं हो सकती है। इस सिद्धान्त के अनुसार किन्हीं पदार्थों के विभिन्न भागों के आपसी टकराव से उनके परिभ्रमण गति में कोई परिवर्तन नहीं आ सकता है।
- काण्ट ने यह भी बतलाया है कि निहारिका के परिभ्रमण के आकार में वृद्धि होने के साथ-साथ गति में भी वृद्धि हुई। यह नियम ऊपर दिये हुए सिद्धान्त के विपरीत है, क्योंकि कोशीय संवेग की स्थिरता सिद्धान्त में बतलाया गया है कि वस्तु का आकार बढ़ता है तो उसकी गति में कमी आती है साथ ही गति में वृद्धि आती है तो आकार घटता है। इस सिद्धान्त तथा नियम के अनुसार काण्ट की कल्पना को गलत सिद्ध किया जाता है।
- काण्ट की इस परिकल्पना को इतना श्रेय अवश्य मिलता है कि आगे आने वाले विद्वान लाप्लास ने इसके आधार पर सुप्रसिद्ध साध्य को प्रतिपादित किया।
प्रश्न 3. पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी ज्वारीय परिकल्पना की विस्तृत विवेचना कीजिए।
अथवा
जेम्स जीन्स तथा जैफ्रे की ज्वारीय परिकल्पना की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
अथवा
जेम्स जीन्स एवं जेफरी के ज्वार-भाटा सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
जेम्स जीन्स तथा जेफरी की ज्वार-भाटा परिकल्पना:-
ब्रिटिश गणितज्ञ जीन्स और जेफरी ने ज्वार-भाटा परिकल्पना को प्रस्तुत किया। यह अधिक मान्य भी है। इन्होंने कल्पना की है कि सूर्य गैस का एक विशाल पिण्ड था और अतीत काल में ब्रह्माण्ड में एक बहुत बड़े तारे ने सूर्य के समीप जाते हुए अपनी आकर्षण शक्ति से सूर्य में ज्वार उत्पन्न कर दिया। ज्यों- ज्यों यह बड़ा तारा सूर्य के समीप आता गया, ज्वार की ऊँचाई तथा आकार बढ़ता गया। जब तारा सूर्य से कम-से-कम दूर आ गया तब उसके ठीक नीचे गैसीय सूर्य के गोले से करोड़ों किलोमीटर लम्बा सिगार के आकार का एक ज्वार उठ गया, जैसा कि दी हुई आकृति से ज्ञात होता है। जेफरी के अनुसार सूर्य और इसके समीप आने वाले विशाल तारे में टक्कर हो गयी जिसके परिणामस्वरूप सूर्य तथा उस विशाल तारे का कुछ भाग आकाश में बिखर गया। इन्हीं से ग्रहों का निर्माण हुआ। तारे के अपने रास्ते पर जाते हुए सूर्य से कम दूरी पर आने के साथ दूर तक नहीं जा सका और न सूर्य में ही वापस आ सका। इस प्रकार ज्वार से निकला हुआ पदार्थ एक लम्बे सिगार के रूप में हो गया, जो बीच में मोटा तथा दोनों किनारों की ओर पतला था। किनारों के पतला होने का कारण दोनों शक्तियों का आकर्षण था। साथ-ही-साथ यह सिगाररूपी पदार्थ सूर्य की परिक्रमा करने लगा। पुनः सिगार की आकृति के इस पदार्थ के ठण्डा होने तथा सिकुड़न से उसकी आकृति विश्रृंखल हो गयी और ग्रहों का निर्माण हुआ। इसी प्रकार विभिन्न ग्रहों के सूर्य के समीप आने के कारण तथा उनसे ज्वार निकलकर अलग होने से उपग्रहों का निर्माण हुआ। जेफरी के अनुसार, सूर्य के समीप आने वाले तारे से सूर्य की भिड़न्त हुई जिससे सूर्य तथा विशालकाय तारे के कुछ अंश आकाश में आकर्षण शक्ति के कारण केन्द्रित होकर छिटक गये और इन्हीं से ग्रहों की रचना हुई। जेफरी ने अपने प्रयास से इस परिकल्पना की त्रुटि को पूरा किया।
पक्ष में प्रमाण:-
1.यदि सौर-मण्डल के कुल तारे एक सीध में रखे जायें, तो इनकी आकृति सिगार जैसी हो जायेगी। मध्य में बड़े ग्रह और दोनों किनारों पर छोटे ग्रह पड़ते हैं, केवल मंगल ग्रह इस क्रम के विपरीत पड़ता है।
2.विभिन्न ग्रहों के उपग्रहों की संख्या एवं आकार भी इसके अनुकूल ही हैं। छोटे ग्रहों के उपग्रह नहीं हैं। मध्यम वर्ग के ग्रहों के उपग्रह कम हैं, परन्तु बड़े ग्रहों के उपग्रह अधिक हैं।
3.यम नामक ग्रह का पता ज्वार भाटे की परिकल्पना के प्रस्तावित होने के बाद लगा और इस ग्रह का आकार इसकी पुष्टि में सहायक सिद्ध होता है।
4.उपग्रहों का विस्तार भी सौर-मण्डल की आकृति में है क्योंकि जिन ग्रहों के कई उपग्रह हैं उनके बीच के उपग्रह बड़े तथा किनारे के उपग्रह छोटे हैं। इससे इस परिकल्पना की उपयोगिता और बढ़ जाती है।
5.इस परिकल्पना के अनुसार बड़े ग्रह अधिक काल तक गैस रूप में रहे। अतः उनके उपग्रह अधिक संख्या में बने, किन्तु उनका आकार छोटा रहा। बड़े ग्रहों के समीपवर्ती ग्रहों के उपग्रह कम संख्या में बने, परन्तु आकार में बड़े बने। सिरे वाले ग्रह बुध तथा यम आकार में छोटे होने के कारण जल्दी ठण्डे हो गये, अतः उनके उपग्रह नहीं बने।
6.सभी ग्रह सूर्य की आकर्षण शक्ति के कारण अपनी कीली पर झुके हुए हैं और इसी झुकाव की दशा में सूर्य की परिकल्पना करते हैं। सभी ग्रहों का झुकाव भिन्न है।
विपक्ष में आपत्तियाँ:-
- इस क्रम में मंगल अनुपयुक्त हो जाता है जिसका समाधान इस परिकल्पना में उपलब्ध नहीं है।
- जो विशाल तारा ज्वार-उद्भेदन का अभिकर्ता था वह क्या हो गया? सूर्य के आकर्षण से इस विशाल तारे में क्यों चंचु उत्पन्न हो गये? सौर-मण्डल के निर्माण के पश्चात् क्या वह विशाल तारा मृत हो गया जिससे वह पुनः परिभ्रमण करते हुए सूर्य के निकट नहीं आ सका? यदि वह पुनः सूर्य के निकट आ सका तो उसका सूर्य पर क्या प्रभाव पड़ा? इन प्रश्नों का उत्तर इस परिकल्पना की व्याख्या से परे है।
- सूर्य के उद्रेक से निर्मित ग्रहों को सूर्य के निकट से ही परिकल्पना करनी चाहिए थी, किन्तु हम जानते हैं कि ग्रह सूर्य के व्यास की 500 गुनी दूरी पर उसकी परिक्रमा करते हैं और वरुण सूर्य के व्यास की 3,200 गुनी दूरी पर। पेरिस्की ने गणितीय आधार पर यह सिद्ध किया है कि जीन्स का सिद्धान्त सूर्य और ग्रहों के मध्य दूरी को समझाने में असमर्थ है। अमरीकी खगोलज्ञ रसेल ने भी 1937 ई० में आपत्ति प्रकट की है। काण्ट और लाप्लास के सिद्धान्त सूर्य के न्यून कोणीय संवेग को नहीं समझा पाते, उसी प्रकार जीन्स की परिकल्पना ग्रहों के अधिक कोणीय संवेग को पूर्ण रूप से समझाने में असमर्थ है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पृथ्वी की गति पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर – पृथ्वी की निम्नलिखित दो गतियाँ हैं- (1) दैनिक गति अथवा भू-परिभ्रमण, (2) वार्षिक गति अथवा भू-परिक्रमण। पृथ्वी अपनी अक्ष तल पर 23.5° झुकी हुई लङ्क की भाँति घूमती है। यह अपने अक्ष (A × 15) पर 23 घण्टे 50 मिनट में घूमकर एक चक्कर पूर्ण करती है। यह पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती है। पृथ्वी के इस प्रकार के एक चक्कर को भू-परिभ्रमण या भू-घूर्णन कहते हैं। पृथ्वी की भू-घूर्णन ही इसकी दैनिक गति कहलाती है। पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा 365 दिन 5 घण्टे तथा 48 मिनट में पूर्ण करती है, परन्तु सुविधा के लिए इसे लगातार तीन वर्ष तक 365 दिन का माना जाता है और प्रत्येक चौथे वर्ष को 366 दिन का मानते हैं- इस वर्ष को अंग्रेजी में ‘Leap Year’ कहते हैं। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगभग 29.80 किमी. प्रति सेकण्ड की औसत गति से करती है।
प्रश्न 2. पृथ्वी की आन्तरिक संरचना में भूकम्पीय लहरें किस प्रकार सहायक हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – जब पृथ्वी का कोई भाग अचानक कम्पन करने लगता है तो भूकम्प कहलाता है। भूकम्प प्रक्रम के रूप में आता है जिन्हें भूकम्पीय लहर कहते हैं जिसका मापन सीसमोग्राफ नामक यंत्र से होता है। भूकम्प पृथ्वी का ऐसा प्रत्यक्ष साक्ष्य है जिससे पृथ्वी की आन्तरिक संरचना की पर्याप्त जानकारी उपलब्ध हो जाती है। भूकम्प आने वाले स्थान को भूकम्प मूल कहते हैं। जिस स्थान पर भूकम्पीय लहरों का अनुभव होता होता है उसे भूकम्प केन्द्र कहते हैं। मूल बिन्दु से भूकम्पीय लहरें जिन भागों में पहुँचती हैं उसे भूकम्प क्षेत्र कहते हैं। भूकम्प की क्रिया में तीन प्रकार की लहरों का समावेश होता है।
- प्राथमिक अथवा लम्बी लहरें (P),
- गौण अथवा तिरछी लहरें (S),
- धरातलीय लहरें (L)
सबसे पहले लघु कम्पन होता है जिसे प्राथमिक कम्पन कहते हैं, जिसमें लहरें कुछ लम्बी होती हैं। कुछ अन्तराल के पश्चात् दूसरा अधिक प्रभावशाली कम्पन होता है जिसे द्वितीय कम्पन या गौण कम्पन कहते हैं, जिसमें लहरें तिरछी प्रवाहित होती हैं। इसके बाद अधिक अवधि वाला मुख्य कम्पन होता है, जिसे धरातलीय कम्पन कहते हैं। इस प्रकार ये तीनों भूकम्पीय कम्पन क्रमशः अंग्रेजी के P. S तथा L लहरों द्वारा प्रकट किये जाते हैं। भूकम्पीय लहरों का यही क्रम होता है।
भूकम्पीय लहरें भूगर्भ की आन्तरिक संरचना के वास्तविक स्वरूप का अंकन करती हैं। इन तरंगों की गति तथा भ्रमण-पथ के आधार पर भूगर्भ की आन्तरिक संरचना के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। भूकम्पीय लहरें प्रायः ठोस भाग से होकर गुजरती हैं जो सीधी रेखा से प्रवाहित होती हैं। परन्तु जब ठोस भाग के घनत्व में अन्तर पाया जाता है, तो ये लहरें वक्राकार मार्ग का अनुसरण करने लगती हैं। इस प्रकार यदि पृथ्वी एक ही प्रकार के ठोस घनत्व वाली चट्टानों से निर्मित होती है तो लहरें वक्राकार मार्ग का अनुसरण करती हैं। S लहरें कभी भी तरल भागों से नहीं गुजरती हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पृथ्वी के आन्तरिक भाग के घनत्व में भारी अन्तर है जिससे ये लहरें परिवर्तित हो जाती हैं।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि पृथ्वी की ऊपरी परत ठोस पदार्थों द्वारा, जबकि उसका आन्तरिक भाग तरल पदार्थों द्वारा निर्मित है।
प्रश्न 3. पृथ्वी की आन्तरिक संरचना में इसकी उत्पत्ति से सम्बन्धित साक्ष्यों के महत्त्व का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
अथवा
अभिनव मत के अनुसार पृथ्वी का अभ्यास।
अथवा
पृथ्वी की आन्तरिक संरचना के सम्बन्ध में विभिन्न मतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित साक्ष्यों से यह समझना कठिन हो जाता है कि पृथ्वी की संरचना किस प्रकार हुई? पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित सभी सिद्धान्तों में विद्वान् एकमत नहीं हैं। विभिन्न विद्वानों ने पृथ्वी की उत्पत्ति की समस्या के निराकरण के लिए उसे ठोस, तरल एवं वायव्य अवस्था में होना बताया है। चैम्बरलिन एवं मोल्टन की ‘ग्रहाणु परिकल्पना’ के अनुसार पृथ्वी का निर्माण ठोस ग्रहाणुओं के एकत्रीकरण के फलस्वरूप हुआ। अतएव सम्पूर्ण पृथ्वी ठोस अवस्था में होनी चाहिए, परन्तु जीन्स एवं जैफ्रे की ‘ज्वारीय परिकल्पना’ पूर्णरूप से इसके विपरीत है। इसके अनुसार पृथ्वी का अभ्यान्तरण तरलावस्था में होना चाहिए, परन्तु ऐसा भी नहीं है। लाप्लास महोदय की निहारिका परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति गैसीय निहारिका द्वारा हुई है। अतः पृथ्वी का आन्तरिक भाग वायव्य अवस्था में होना चाहिए, जबकि ऐसा भी नहीं है। इन साक्ष्यों के अतिरिक्त द्वैतारक परिकल्पना, विद्युत चुम्बकीय सिद्धान्त, डॉ० बोन विसेकर की परिकल्पना, ऑटो स्मिड तथा सीपिड के साक्ष्यों ने अपने अलग-अलग विचारों को प्रस्तुत किया है। इन साक्ष्यों से पृथ्वी की आन्तरिक संरचना का स्पष्टीकरण नहीं हो पाता है। अतः इस सम्बन्ध में और अधिक अध्ययन के प्रयास किये जा रहे हैं।
प्रश्न 4. पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी एकतारक या एकरूपतावादी परिकल्पना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-एकतारक या एकरूपतावादी परिकल्पनाएँ इस वर्ग की परिकल्पनाओं में पृथ्वी की उत्पत्ति एक तारे से मानी गयी है, इसी कारण इन परिकल्पनाओं को एकरूपतावादी अथवा एक-पैतृक भी कहा जाता है। काण्ट की वायव्य राशि परिकल्पना, लाप्लास की निहारिका परिकल्पना, हेन्स आल्फवेन की विद्युत चुम्बकीय परिकल्पना, वाइजेस्कर की निहारिका मेघ परिकल्पना, ऑटो स्मिड की अन्तरतारकीय धूल परिकल्पना तथा क्यूपर की निहारिका मेघ परिकल्पना इस वर्ग की वर्तमान समय तक प्रस्तुत की गयी प्रमुख परिकल्पनाएँ हैं।
प्रश्न 5. पृथ्वी की उत्पत्ति से सम्बन्धित युग्म-तारक अथवा अनायासवादी परिकल्पना पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर – युग्मतारक अथवा अनायासवादी परिकल्पनाएँ-:
इस वर्ग की परिकल्पनाओं में पृथ्वी की उत्पत्ति दो तारों के अनायास टकराने अथवा संयोग से मानी जाती है, इसी कारण ये परिकल्पनाएँ द्विपैतृक भी कहलाती हैं। बफन की टक्कर परिकल्पना, चैम्बरलिन एवं मोल्टन की ग्रहाणु परिकल्पना, जीन्स एवं जैफ्रे की ज्वारीय परिकल्पना, रसेल एवं लिटिलटन की द्वैतारक परिकल्पना, रॉसगन की परिभ्रमण एवं ज्वारीय परिकल्पना, बनर्जी की सीफीड़ परिकल्पना तथा होयल एवं लिटिलटन की नवतारा परिकल्पना सर्वप्रमुख हैं।
प्रश्न 6. पृथ्वी के आन्तरिक भाग की भौतिक अवस्था का वर्णन कीजिए।
उत्तर – पृथ्वी के आन्तरिक भाग में जाने पर प्रारम्भ में प्रति 32 मीटर की गहराई पर 1° सेग्रे. तापक्रम की वृद्धि होती है। इस प्रकार पृथ्वी के आन्तरिक भाग में 20 से 30 किलोमीटर जाने पर तापक्रम की वृद्धि के कारण कोई चट्टान अपनी मौलिक अवस्था में नहीं रह सकेगी और इस ताप आधिक्य के कारण चट्टानें द्रव अवस्था में परिवर्तित हो जायेंगी। ज्वालामुखी विस्फोट के समय निकला लावा इसका प्रमारण है। महाद्वीपों और महासागरों की उत्पत्ति के सिद्धान्त भी आन्तरिक भाग की द्रव अवस्था में होने की सम्भावना व्यक्त करते हैं, किन्तु वहाँ की चट्टानों पर ऊपरी तल का भारी दबाव उन्हें द्रव जैसा नहीं बनने देता। अतः वहाँ की सारी स्थिति बड़ी जटिल है।
यदि पृथ्वी का आन्तरिक भाग द्रव होता तो स्थल भाग की ज्वार शक्तियों के प्रभाव से अवश्य प्रभावित होता। चन्द्रमा और सूर्य की आकर्षण शक्तियों के प्रभाव से अप्रभावित रहने और ठोस पिण्ड के समान व्यवहार के कारण अनेक वैज्ञानिक पृथ्वी को ठोस ही मानते हैं, परन्तु भूकम्पीय लहरों के आधार पर पृथ्वी को पूर्ण रूप से ठोस भी नहीं कहा जा सकता और उसके आन्तरिक भाग को पूर्ण रूप से द्रव अवस्था में भी नहीं माना जा सकता।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न-1. पृथ्वी की गति बताइए।
उत्तर – पृथ्वी की निम्नलिखित दो गतियाँ हैं- दैनिक गति और वार्षिक गति। पृथ्वी अपने अक्ष पर 23 घण्टे 50 मिनट में घूमकर एक चक्कर पूरा करती हैं। इसे पृथ्वी की दैनिक गति कहते हैं। पृथ्वी सूर्य की एक परिक्रमा 365 दिन 5 घण्टे तथा 48 मिनट में पूरा करती है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा लगभग 29.80 किमी प्रति सेकेण्ड की औसत गति से करती है।
प्रश्न 2. पृथ्वी के भू-परिभ्रमण का प्रभाव बताइए।
उत्तर– पृथ्वी की दैनिक गति के प्रभाव निम्नलिखित हैं- (1) दिन-रात का होना, (2) प्रातः, मध्याह्न, सायं एवं अर्द्धरात्रि आदि का होना, (3) दिन-रात के परिणाम का निर्धारण, (4) पृथ्वी पर किसी स्थान की स्थिति का ज्ञान होना, (5) पवनों तथा समुद्री धाराओं की दिशा में परिवर्तन होना आदि।
प्रश्न 3. पृथ्वी की वार्षिक गति का प्रभाव।
उत्तर – (1) वर्ष का निर्माण, (2) ऋतु परिवर्तन, (3) दिन-रात का छोटा-बड़ा होना, (4) सूर्य की मध्याह्न बेला की ऊँचाई का बदलते रहना, (5) कर्क तथा मकर रेखाओं तथा कटिबन्धों का निर्धारण, (6) ध्रुवों पर छह महीने का दिन और छह महीने की रात का होना, (7) भूमध्यरेखा पर दिन और रात की समानता।
प्रश्न 4. ‘सियाल’ क्या है?
उत्तर- परतदार शैलों के नीचे सियाल की एक परत पायी जाती है, जिसकी रचना ग्रेनाइट चट्टान से हुई है। इस परत की रचना सिलिका तथा एल्यूमिनियम से हुई है। इसी कारण इस परत को सियाल कहते हैं। इस परत का औसत घनत्व 2.9 है और इसकी औसत गहराई 50 से 300 किमी है। इसमें तेजाबी पदार्थों की अधिकता होती है तथा पोटैशियम, सोडियम तथा एल्युमिनियम के सिलिकेट पाए जाते हैं। महाद्वीपों की रचना सियाल से हुई मानी जाती है।
प्रश्न 5. ‘साइमा’ से क्या आशय है?
उत्तर- सियाल के नीचे स्थित दूसरी परत साइमा कहलाती है। इसकी रचना बेसाल्ट आग्नेय चट्टानों से हुई है। यहीं से ज्वालामुखी के उद्गार के समय गर्म एवं तरल लावा बाहर आता है। रासायनिक बनावट के दृष्टिकोण से इसमें सिलिका तथा मैग्नेशियम की प्रधानता होती है। इसी कारण इस परत को साइमा कहते हैं। इसका औसत घनत्व 2.9 से 4.7 है तथा इसकी गहराई 1000 से 2000 किमी तक हैl
प्रश्न 6. ‘निफे’ किसे कहते हैं?
उत्तर-‘सीमा’ की परत के नीचे पृथ्वी की तीसरी तथा अंतिम परत पायी जाती है। इसे ‘निफे’ कहते हैं, क्योंकि इसकी रचना निकेल तथा फेरियम से मिलकर हुई है। इस परत का व्यास 4300 मील (6880 किमी) के लगभग है।
प्रश्न-7. ‘क्रस्ट’ किसे कहते हैं?
उत्तर– पृथ्वी की ऊपरी क्रस्ट का घनत्व 2.8 तथा निचली क्रस्ट का 3.0 है। प्रारंभ में इन दोनों उपमण्डलों की संरचना में पर्याप्त अंतर बताया गया है, परन्तु आधुनिक विवरणों के आधार पर दोनों की संरचना समान बतायी जाती है। घनत्व में अन्तर दबाव के कारण हुआ है। पृथ्वी की धरातलीय सतह से नीचे 30 किमी की गहराई वाले भाग को क्रस्ट कहा जाता है।
प्रश्न 8. मैण्टिल से क्या आशय है?
उत्तर- मैण्टिल की मोटाई पृथ्वी की समस्त अर्द्धव्यास (6371 किमी) के आधे से कम है परन्तु पृथ्वी के समस्त आयतन का 83 प्रतिशत तथा द्रव्यमान का 68 प्रतिशत भाग मैण्टिल में व्याप्त है। पृथ्वी की क्रस्ट के नीचे से 2900 किमी की मोटाई वाला पृथ्वी का आंतरिक भाग मैण्टिल कहलाता है।
प्रश्न 9. आन्तरिक क्रोड।
उत्तर- पृथ्वी की सतह से नीचे 5150 किमी से 6371 किमी तक वाले आंतरिक भाग को आंतरिक क्रोड कहते हैं। यह ठोस अवस्था में है तथा इसका घनत्व 13.6 है एवं इसमें P लहर की गति 1123 किमी प्रति सेकेण्ड होती है।
प्रश्न 10. न्यून गति का मण्डल।
उत्तर- ऊपरी मैण्टिल (100 से 700 किमी) में भूकम्पीय लहरों की गति मन्द (7.8 किमी प्रति सेकेण्ड) पड़ जाती है, जिस कारण इस भाग को न्यून गति का मण्डल कहते हैं।
