GEOGRAPHY
SEMESTER – III
A110301T
UNIT 1
Table of Contents
इकाई-1(I) पर्यावरण की अवधारणा और घटक
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ‘भूगोल पर्यावरणीय अध्ययन के रूप में’ विवेचना कीजिए।
भूगोल पर्यावरणीय अध्ययन के रूप में:-
किसी न किसी रूप में पर्यावरण का अध्ययन भूगोल का विषय अवश्य रहा है परन्तु 1950 से 1970 के मध्य अवस्थितिक विश्लेषण, भूवैन्यासिक संगठन के अध्ययनों तथा भौगोलिक विश्लेषणों में सांख्यिकी तथा गणित की अमूर्त तकनीकों के प्रयोग में भूगोलवेत्ताओं की अधिक अभिरुचि तथा लगाव के कारण पर्यावरण अध्ययन फीका पड़ गया था। परिणामस्वरूप पर्यावरण, जो भूगोल का प्रारम्भ से ही मूल विषय रहा है, या यों कहें कि भूगोल का पर्यावरण सम्बन्धी अध्ययन पर एकाधिकार रहा है, जीवविज्ञानियों की धरोहर बन गया। हर्ष का विषय है कि भूगोलविदों ने पुनरावलोकन के पश्चात् 1970 के बाद से पर्यावरण की ओर फिर से पलटकर देखना प्रारम्भ कर दिया है तथा भूगोल में पर्यावरणीय अध्ययन फिर से जोर पकड़ रहा है। भारतीय विश्वविद्यालयों के अधिकांश भूगोल विभागों में स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तरीय पाठ्यक्रमों में विभिन्न नामावलियों के तहत पर्यावरणीय अध्ययनों को सम्मिलित कर लिया गया है (यथा : पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण प्रबन्धन का भूगोल, पर्यावरण अध्ययन, पर्यावरण ह्रास-अवनयन एवं संविकास पर्यावरण प्रबन्धन एवं संविकास आदि। वर्तमान लेखक ने पर्यावरण के विभिन्न पक्षों के अध्ययन के लिये ‘पर्यावरण भूगोल’ शीर्षक का प्रयोग इस आधार पर किया है कि प्रस्तुत विषय का भौगोलिक स्वरूप परिलक्षित हो सके तथा पर्यावरण भूगोल को पर्यावरण का अध्ययन करने वाले अन्य विषयों तथा विज्ञानों से अलग किया जा सके तथा इसकी अलग पहचान बनी रहे क्योंकि भूगोल में पदार्थों एवं तत्त्वों के स्थानिक गुणों का विभिन्न स्थानिक एवं कालिक मापकों पर अध्ययन किया जाता है जबकि अन्य विज्ञानों में पदार्थों तथा तत्त्वों का एकाकी रूप में अध्ययन किया जाता है। पर्यावरण अध्ययन को सम्बोधित करने के लिए ‘पर्यावरण का भूगोल’ के स्थान पर ‘पर्यावरण भूगोल’ नामावली का प्रयोग इसलिए किया गया है कि पर्यावरण भूगोल में पर्यावरण की समस्याओं के अध्ययन तथा समाधान के लिए भौगोलिक सूचनाओं, नियमों तथा भौगोलिक अध्ययन के परिणामों के प्रयोग पर अधिक बल दिया जाता है। लेखक के दृष्टिकोण में पर्यावरण भूगोल एक तरफ तो भौतिक तथा मानव भूगोल के मध्य शैक्षिक सेतु की भूमिका निभा सकता है तो दूसरी तरफ भूगोलविदों को सामान्य रूप से तथा पर्यावरण भूगोलविदों को मुख्य रूप से अन्य जीवविज्ञानियों, भूविज्ञानियों तथा पारिस्थितिकी विज्ञानियों के करीब ला सकता है।
सम्भवतः के० हेविट तथा एफ० के हेयर ने अपने शोध लेख में सर्वप्रथम ‘पर्यावरण भूगोल’ शब्दावली का 1973 में प्रयोग किया। उन्होंने यह व्यक्त किया कि ‘वर्तमान समय में पर्यावरण भूगोल का प्रमुख उद्देश्य जीव विज्ञानों के परिणामों एवं विचारों का समावेश करना है। उस समय यह स्वीकार किया गया कि पर्यावरण के भौगोलिक अध्ययनों में पारिस्थितिकी के नियमों को समाविष्ट करने से भूगोल विषय का महत्त्व बढ़ सकता है। इसी आधार पर यस०आर० आयर ने व्यक्त किया कि ‘भौगोलिक अध्ययनों में पारिस्थितिकीय उपागमों को सम्मिलित करने से शैक्षिक जगत में भूगोलविदों की प्रतिष्ठा में बढ़ोत्तरी होती है।‘
सविन्द्र सिंह ने सन् 1989 में पर्यावरण भूगोल को परिभाषित करने तथा उसके विषय क्षेत्र के निर्धारण का प्रयास किया तथा सन् 1991 में ‘पर्यावरण भूगोल’ नामक पाठ्य एवं सन्दर्भ पुस्तक का प्रकाशन किया। इसके बाद ही पर्यावरण भूगोल को भूगोल की एक महत्त्वपूर्ण शाखा के रूप में व्यापकं मान्यता मिलने लगी। वर्तमान समय में तो अधिकांश भारतीय विश्वविद्यालयों के भूगोल विषय के स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में पर्यावरण भूगोल को सम्मिलित कर लिया गया है।
पर्यावरण भूगोल का मुख्य अध्ययन वस्तु मानव-पर्यावरण सम्बन्धों का अध्ययन है तथा इस विषय के अध्ययन का प्रमुख उपागम पारिस्थितिक उपागम है। पारिस्थितिक उपागम के अन्तर्गत भूतल के प्राकृतिक पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकीय स्तर पर विकसित मानव के बीच अन्तर्सम्बन्धों के स्थानिक गुणों का पारिस्थितिक तंत्र के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता है। इस आधार पर सामान्य रूप से पर्यावरण भूगोल को निम्न रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पर्यावरण भूगोल सामान्य रूप से जीवित जीवों तथा प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य तथा मुख्य रूप से प्रौद्योगिक स्तर पर विकसित आर्थिक मानव एवं उसके प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य अन्तर्सम्बन्धों के स्थानिक गुणों का अध्ययन है। ‘पर्यावरण भूगोल’ को ‘पर्यावरण का भूगोल’ क्यों न कहा जाय? इस प्रश्न का उत्तर आसान है,
‘पर्यावरण भूगोल’ शब्दावली मानव एवं पर्यावरण के मध्य अन्तर्सम्बन्धों, उनके कारणों तथा उनसे उत्पन्न परिणामों के अध्ययन पर अधिक बल देता है। दूसरी तरफ ‘पर्यावरण का भूगोल’ में पर्यावरण के विभिन्न संघटकों, यथा: स्थल, जल, वायु, मृदा, समाज आदि की विशेषताओं एवं उनके स्थानिक एवं कालिक वितरण को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि ‘पर्यावरण भूगोल’ में पर्यावरण के स्थानिक एवं कालिक पक्षों के अध्ययन को महत्त्व नहीं दिया जाता है।
भूजैवतंत्र के अजैविक एवं जैविक (मुख्य रूप से मनुष्य) संघटकों के मध्य अन्तर्क्रियाओं के कारण उत्पन्न होने वाली पर्यावरणीय समस्याओं का प्रबन्धन भी पर्यावरण भूगोल के अध्ययन का महत्त्वपूर्ण अंग है। अतः पर्यावरण भूगोल की अन्तिम रूप से निम्न परिपूर्ण परिभाषा प्रस्तुत की जाती है: ‘पर्यावरण भूगोल’ भूगोल की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत प्राकृतिक पर्यावरण तंत्र के विभिन्न संघटकों की विशेषताओं, संघटन एवं कार्यों, विभिन्न संघटकों की पारस्परिक निर्भरता, संघटकों को आबद्ध करने वाले विभिन्न प्रक्रमों एवं प्रक्रियाओं विभिन्न संघटकों की एक-दूसरे के साथ तथा आपस में अन्तर्प्रक्रियाओं के स्थानिक तथा कालिक सन्दर्भ में परिणामों, प्रौद्योगिकीय स्तर पर विकसित आर्थिक मानव एवं भूपारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न संघटकों के मध्य अन्तर्प्रक्रियाओं तथा उनसे भूपारिस्थितिक तंत्र में उत्पन्न परिवर्तनों तथा उनसे जनित पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण और प्रदूषण नियंत्रण की तकनीकों एवं रणनीतियों तथा प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन का अध्ययन किया जाता है।
भूगोल एक स्थानिक विज्ञान है जो धरातल पर विभिन्न तत्त्वों के स्थानिक गुणों का समय के परिवेश में अध्ययन करता है। अर्थात् स्थान-समय के परिवेश में धरातल के तत्त्व या तत्त्व-समूह भौगोलिक अध्ययन के मूल विषय हैं। यथा तत्त्वों के क्षेत्रीय विभेदीकरण का अध्ययन, स्थानिक प्रतिरूपों का अध्ययन; अवस्थितिक विश्लेषण; मानव पारिस्थितिकी; मानव-स्थल सम्बन्ध; पर्यावरण मानव एवं मानव-पर्यावरण सम्बन्ध; स्थानिक संगठन, पारिस्थितिकीय अध्ययन आदि।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि पारिस्थितिकीय परिदृष्टि के साथ भूगोल मानव-पर्यावरण सम्बन्धों का सुचारु रूप से अध्ययन कर सकता है, पर्यावरणीय समस्याओं का निर्धारण कर सकता है तथा प्राकृतिक एवं पारिस्थितिकीय संसाधनों के संरक्षण एवं प्रबन्धन के लिये आर्थिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से उपयुक्त पर्यावरण नियोजन का नियमन कर सकता है।
प्रश्न 2.औद्योगीकरण के पर्यावरणीय प्रभावों की विस्तृत विवेचना कीजिए।
औद्योगीकरण का पर्यावरणीय प्रभाव:-
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्रगति के कारण इंग्लैण्ड में औद्योगीकरण सर्वप्रथम 1860 में प्रारम्भ हुआ तथा शीघ्र ही इसका विस्तार उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप के देशों में हो गया। 1860 से वर्तमान समय तक विश्व के पश्चिमी देशों में औद्योगिक विकास अपनी चरम सीमा को छू गया है। निश्चय ही विकसित देशों में औद्योगिक विकास ने मानव समाज को आर्थिक समृद्धि प्रदान की है, सामाजिक-आर्थिक संरचना को नया आयाम दिया है तथा लोगों को भौतिक सुख प्रदान किया है परन्तु इसने कई प्रकार की पर्यावरणीय समस्याओं को भी जन्म दिया है। औद्योगीकरण के दो प्रमुख संघटकों अर्थात् प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से विदोहन तथा औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि का पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव होता है। कारखानों में कच्चे पदार्थों के उपयोग के लिए प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक विदोहन के कारण निम्न परिणाम उत्पत्र होते हैं जो पर्यावरण की गुणवत्ता को दुष्प्रभावित करते हैं:
(i).वनों की कटाई के कारण वन क्षेत्रों में हास,
(ii). खनिज पदार्थों के खनन के कारण धरातल का उत्खनन द्वारा बंजर भूमि में परिवर्तन,
(iii) औद्योगिक विस्तार के कारण कृषि भूमि में हास,
(iv) भूमिगत जल के अत्यधिक निष्कासन के कारण भूमिगत जल के तल में गिरावट,
(v) भूमिगत जल एवं खनिज तेल के निष्कासन के कारण धरातलीय सतह में अवतलन आदि।
ज्ञातव्य है कि कारखानों में वांछित उत्पादन के अलावा कुछ अनिच्छित उत्पाद भी निकलते हैं यथा-औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थ, प्रदूषित जल, जहरीली गैस, रासायनिक अवक्षेप, एयरोसॉल, धूल एवं राख तथा धूम्र आदि। औद्योगीकृत देशों ने कारखानों की चिमनियों से निकले प्रदूषकों का जल, मिट्टियों, भूमि तथा वायु में सान्द्रण इतना अधिक बढ़ा दिया है कि पर्यावरण प्रदूषण एवं अवनयन नाजुक सीमा को पार कर गया है तथा मानव समाज विनाश के कगार पर पहुँच गया है।
किसी भी देश की आर्थिक प्रगति की रफ्तार को बढ़ाने के उद्देश्य से किया जाने वाला औद्योगिक विस्तार एवं विकास आर्थिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हो सकता है परन्तु उससे उत्पन्न होने वाले पश्चप्रभाव निश्चय ही सामाजिक दृष्टि से अवांछनीय हैं। औद्योगीकरण से उत्पन्न प्रभाव शीघ्र परिलक्षित नहीं होते हैं परन्तु उनके संचयी प्रभाव इतने विकट एवं भयावह होते हैं कि उनसे प्राकृतिक पर्यावरण का मौलिक स्वरूप ही बदल जाता है। वास्तव में औद्योगीकरण से उत्पन्न प्रभाव श्रृंखलाबद्ध होते हैं, अर्थात् एक प्रतिकूल प्रभाव से कई अन्य प्रतिकूल प्रभाव उत्पन्न होते हैं जो निश्चय ही मानव समाज के लिए घातक होते हैं। औद्योगीकरण के अधिकांश प्रभाव पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण से सम्बन्धित होते हैं।
रासायनिक कारखानों से उत्पादित खादों एवं कीटनाशी एवं शाकनाशी कृत्रिम रसायनों के खेतों में प्रयोग के कारण आहार श्रृंखला तथा मिट्टियों के रासायनिक एवं भौतिक गुणों में भारी परिवर्तन हो जाते हैं। कारखानों से निकले अपशिष्ट पदार्थों के तालाबों, झीलों तथा जलाशयों के स्थिर जल एवं नदियों तथा सागरों में विमोचन के कारण जल प्रदूषित हो जाता है जिस कारण अनेक जीवों की मृत्यु हो जाती है तथा जलीय पारिस्थितिक तंत्रों का प्राकृतिक संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है। जल को प्रदूषित करने वाले इन औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों में निम्न को सम्मिलित किया जाता है-जल में पछोड़न की धुलाई तथा डम्पिंग अपशिष्ट आपंक का सन्त्रिक्षेपण; असबेस्टस के कणों एवं रेशों का विमोचन तथा सान्द्रण; जहरीले मिथाइल रूप में पारे का विमोचन एवं सान्द्रण; तेल के टैंकरों से खनिज तेल का रिसाव तथा सागरीय जल की तह पर फैलाव कांच का विमोचन एवं सान्द्रण आदि।
निरन्तर बढ़ते औद्योगिक प्रसार के कारण अनेक प्रकार के प्रदूषकों का जनन होता है यथा : क्लोरीन, सल्फेट, बाइकार्बोनेट, नाइट्रेट, सोडियम, मैग्नीशियम, फास्फेट आदि के आयन। इन आयनों का वाहित मल नालियों द्वारा झीलों, तालाबों तथा नदियों में विमोचन होता रहता है जिस कारण जल प्रदूषित हो जाता है। विश्व के घने बसे तथा औद्योगिक रूप से विकसित प्रदेशों से होकर प्रवाहित होने वाली प्रायः सभी बड़ी नदियाँ अपने मौलिक प्राकृतिक रूप को खो चुकी हैं तथा वे अब कारखानों एवं महानगरों से निकले अपशिष्ट पदार्थों एवं मल जल को वहन करने वाली सीवर बनकर रह गयी हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान तथा यूरोप के सभी देशों की समस्त नदियों एवं यूरोपीय रूस की दो तिहाई नदियाँ अपने मौलिक स्वरूप को उपर्युक्त कारणों के फलस्वरूप गंवा बैठी हैं। कानपुर के पास गंगा नदी का कानपुर महानगर में स्थित 151 चमड़े के कारखानों से प्रतिदिन निकले 5.8 मिलियन लीटर दूषित जल के नदी में जाने के कारण घोर प्रदूषण हो रहा है।
कारखानों की चिमनियों से निकलने वाली विभिन्न गैसों, धूम्रों तथा अन्य एयरोसॉल द्वारा पर्यावरण पर कई प्रकार के प्रतिकूल प्रभाव पड़ते हैं। जीवाश्म ईधनों (कोयला तथा खनिज तेल) के जलाने से निस्सृत CO, का वायुमण्डल में लगातार सान्द्रण हो रहा है जिस कारण वायुमण्डल के मौलिक गैसीय संघटन में परिवर्तन हो रहा है। ज्ञातव्य है कि औद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भ में (1860 ई०) वायुमण्डल में CO, का सान्द्रण 0.029 प्रतिशत (290 ppm) था जो बढ़कर 2000 ई० तक 0.0370 प्रतिशत (370 ppm) हो गया था। वायुमण्डल में CO, के सान्द्रण में वृद्धि होने से वायुमण्डल के हरितगृह प्रभाव में वृद्धि हो जाने से तापमान में वृद्धि हो जायेगी तथा पृथ्वी एवं वायुमण्डल की ऊष्मा बजट एवं संतुलन में परिवर्तन हो जायेगा। क्लोरोफ्लुरोकार्बन के वायुमण्डल में विमोचन द्वारा ओजोन परत में अल्पता होने से भी पृथ्वी के विकिरण एवं ऊष्मा संतुलन में भारी परिवर्तन होंगे क्योंकि ओजोन की अल्पता के कारण सूर्य की पराबैगनी किरणें धरातल तक पहुँच कर उसका तापमान बढ़ा देंगी। इस तरह मानव-जनित स्रोतों से वायुमण्डल में CO, के सान्द्रण में वृद्धि तथा क्लोरोफ्लूरोकार्बन एवं हैलन के कारण ओजोन के क्षय होने से भूतल एवं निचले वायुमण्डल के तापमान में वृद्धि होने से पादप एवं जन्तु जीवन को भारी क्षति होगी तथा मनुष्यों में चर्म कैंसर का जानलेवा रोग फैल जायेगा।
कारखानों से चाहे या अनचाहे रूप में जहरीली गैसों के रिसाव एवं विमोचन के कारण प्राणघातक पर्यावरणरीय प्रकोप उत्पन्न हो जाते हैं जो सभी प्रकार के जीवों को विनष्ट कर देते हैं। भोपाल गैस त्रासदी (3-4 दिसम्बर, 1984) तथा युक्रेन में चेरनोबिल नाभिकीय विनाश (दिसम्बर, 1986) औद्योगीकरण एवं मनुष्य की असावधानी एवं उसकी आधुनिकतम प्रौद्योगिकीय असफलता से उत्पन्न होने वाले विनाशकारी प्रभाव के कतिपय उदाहरण हैं। भोपाल नगर में स्थित अमेरिकी यूनियन कार्बाइड के गैस संयंत्र से जहरीली मिक गैस के रिसाव के कारण 4000 से अधिक लोग पलक झपकते मौत के शिकार हो गये (सरकारी विज्ञप्ति के अनुसार जहरीली गैस से मरने वालों की संख्या 2500 बतायी गयी है)। अम्ल वृष्टि, नगरी धून कोहरा, नाभिकीय सर्वनाश, नाभिकीय शरद आदि औद्योगीकरण से उत्पन्न होने वाले घातक पर्यावरणीय प्रकोप हैं।
प्रश्न 3. ओजोन स्तर (परत) के सृजन, अवक्रमण एवं अनुरक्षण पर एक निबन्ध लिखिए।
ओजोन स्तर : सृजन, अवक्रमण एवं अनुरक्षण:-
ऑक्सीजन के तीन परमाणु से बनी गैस को ओजोन (O) कहते हैं। यह हल्के नीले रंग की होती है तथा इसकी गन्ध तीखी होती है। ओजोन एक प्रबल आक्सीकारक गैस होती है जो अत्यधिक सान्द्रण होने पर धमाके के साथ विघटित हो सकती है। ओजोन वायुमण्डल की हर ऊँचाई पर किसी न किसी मात्रा में अवश्य पायी जाती है, परन्तु सर्वाधिक सान्द्रण 10 से 15 किलोमीटर की ऊँचाई के बीच पाया जाता है। इस स्तर में भी ओजोन का अधिकतम सान्द्रण 12 से 35 किमी की ऊँचाई (सागरतल से) के बीच पाया जाता है। इस परत को ओजोन मण्डल या ओजोन स्तर कहते हैं। ओजोन अस्थिर गैस होती है। एक तरफ इसका सृजन होता रहता है, तो दूसरी तरफ इसका अवक्रमण (विघटन) एवं विनाश भी होता रहता है। ओजोन का निर्माण एवं विनाश एक क्रमिक एवं सतत प्रक्रिया है। सौर्थिक विकिरण द्वारा ऑक्सीजन का ओजोन में तथा ऑक्सीजन में रूपान्तरण होता रहता है। ओजोन परत जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र के सभी जीवधारियों को सूर्य की हानिकारक प्रखर पराबैंगनी किरणों से बचाती है। यह प्रवेशी सौर्यिक विकिरण को छानकर ही धरातल तक पहुँचने देती है जो जीवधारियों के लिए आवश्यक होती है। स्पष्ट है कि वायुमण्डल में सन्तुलित स्तर में यदि किसी भी तरह का परिवर्तन होता है तो उससे जीवधारी सीधे प्रभावित होंगे।
समतापमण्डलीय ओजोन की अल्पता के विषय में कम्प्यूटर आधारित अध्ययन के आधार पर ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी के वायुमण्डल में ओजोन को नष्ट करने वाले मानव निर्मित रसायनों का संचय हो रहा है। क्लोरोफ्लुरोकार्बन के द्वारा वायुमण्डलीय ओजोन में तेज गति से क्षरण हो रहा है। अण्टार्कटिका के ऊपर विस्तृत वायुमण्डलीय क्षेत्र में ओजोन पूर्णतया लुप्त हो गई है, जिस कारण ओजोन रहित छोटे-छोटे क्षेत्र बन गये हैं जिसे ओजोन छिद्र कहा जाता है।
ओजोन परत का अनुरक्षण-ओजोन परत की अल्पता तथा उसके क्षय से उत्पन्न होने वाले खतरों को लेकर सरकारों, वैज्ञानिक समुदायों एवं जनसाधारण में घोर चिन्ता व्याप्त हो गई है। परिणामस्वरूप इस समस्या से निपटने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारी प्रयास किये जा रहे हैं। ओजोन की अल्पता एवं क्षय को रोकने के लिए ओजोन की रक्षा तथा उसके अनुरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर दो रूपों में प्रयास किये जा रहे हैं: (i) ओजोन को नष्ट करने वाले रसायनों (CFCs) के उत्पादन तथा उपभोग में कमी करने का प्रयास, तथा (ii) इन ओजोननाशक रसायनों के स्थान पर ऐसे वैकल्पिक रसायनों के उत्पादन का प्रयास जिनके उपभोग से ओजोन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ सके।
(1).क्लोरोफ्लुरोकार्बन (CFCs) तथा हैलन के उत्पादन एवं उपभोग में कमी:-
ज्ञातव्य है कि विश्व के जिन विकसित देशों से CFCs तथा हैलन का वायुमण्डल में विमोचन होता है, उन देशों के वायुमण्डल तक ही ये गैसें सीमित नहीं रहती हैं वरन् वायुमण्डलीय परिसंरचरण द्वारा इनका सर्वत्र परिवहन हो जाता है। ओजोन को नष्ट करने वाले इन रसायनों (CFCs तथा हैलन) के वायुमण्डल में सकल विमोचन का 95 प्रतिशत भाग उत्तरी गोलार्द्ध के विकसित देशों से वायुमण्डल में निर्मुक्त होता है। उत्तरी गोलार्द्ध की तुलना में दक्षिणी गोलार्द्ध के वायुमण्डल में इन रसायनों का सान्द्रण मात्र 5 से 10 प्रतिशत ही कम है।
ओजोन की अल्पता तथा उसका क्षय एवं इससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं से निपटने के लिए ओजोन को नष्ट करने वाले कृत्रिम रासायनिक यौगिकों तथा हैलन के उत्पादन तथा उपभोग को सर्वप्रथम कम करना होगा। यह कार्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग द्वारा ही सम्भव हो सकता है। इस सन्दर्भ में पहला अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास 1987 में किया गया जबकि विश्व के 35 देशों ने ओजोन को नष्ट करने वाले तत्त्वों के उत्पादन एवं उपभोग को कम करने के लिए माण्ट्रियल समझौते पर हस्ताक्षर (सितम्बर, 1987) किया। इस समझौते में युनाइटेड नेशन्स इन्वायरनमेन्ट प्रोग्राम ने अहम् भूमिका निभायी है। माष्ट्रियल प्रोटोकाल के तहत निम्न प्रमुख प्रावधानों पर सहमति व्यक्त की गयी थी।
ज्ञातव्य है कि 2000 ई0 के बाद से समतापमण्डलीय ओजोन के क्षय में लगातार (यद्यपि मन्द गति से) कमी हो रही है। वास्तव में 2000 ई० से, जबकि माण्ट्रियाल प्रोटोकाल लागू हुआ, ओजोन के क्षय एवं कमी में उतार-चढ़ाव हो रहा है।
(2).वैकल्पिक प्रौद्योगिकी तथा प्रतिस्थानापन्न रसायनों की खोज:-
इस कार्यक्रम के तहत कई प्रयास किये गये हैं यथा (i) ओजोन नष्ट करने वाले रसायनों CFCs तथा हैलन के चालू उपभोग एवं रखरखाव में सुधार, तथा (ii) ऐसे रसायनों की खोज करना जो खतरनाक CFCs तथा हैलन का स्थान ले सकें तथा इनके उपभोग से ओजोन का क्षय न हो। ऐसी नयी तकनीकों को विकसित किया जाना चाहिए जिससे इन गैसों के रिसाव को रोका जा सके। इन रसायनों के उपभोग के लिए नये दक्ष उपकरणों का प्रयोग किया जाना चाहिए। कुछ वैज्ञानिकों तथा शोध संस्थानों ने क्लोरीन रहित ऐसे रसायनों को विकसित कर लेने का दावा किया है जिन्हें CFCs तथा हैलन के स्थान पर प्रयोग में लाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक अमेरिकी पेट्रोलियम कम्पनी ने Bioact EC-7 का विकास किया है। यह रसायन सूक्ष्म वियोजक जीवों द्वारा विघटित किया जा सकता है। जहरीला नहीं होता है तथा संक्षारक भी नहीं होता है। इस नवविकसित रसायन का ट्रेड नाम HFC 134a है। इस रसायन का रेफ्रीजरेटरों तथा एअरकण्डीशनरों में क्रियॉन 12 के स्थान पर उपयोग किया जा सकता है। यह रसायन क्लोरीन रहित बताया गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में फ्रियॉन-11 तथा फ्रियॉन 22 के स्थान पर CFC-22 नामक नये रसायन का विकास किया गया है। यह रसायन वास्तव में मोनोक्लोरोफ्लूरोमेथिन है। इस नवविकसित CFC-22 रसायन पर अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा किये गये शोधों के परिणाम से पता चला है कि CFC-22 प्रयोग में लाये जा रहे क्रियॉन-11 तथा क्रियॉन-12 की तुलना में ओजोन का अधिक क्षय करेगा। कुछ कम्पनियों की शोध प्रयोगशालाओं ने यह खोज की है कि यदि HCFCs या CFCs के साथ अतिरिक्त हाइड्रोजन एटम मिला दिया जाय तो इस रसायन का बिना क्षति के एयरकण्डीशनरों में प्रयोग किया जा सकता है। औद्योगिक स्तर पर विकसित देशों में ऐसे क्लोरीन रसायनों की खोज जारी है जिनका रेफ्रीजरेटरों में उपयोग किया जा सके परन्तु उनका ओजोन पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
प्रश्न 4. पर्यावरण अवबोध की संकल्पना की विवेचना कीजिए।
अथवा
पर्यावरण को परिभाषित कीजिए तथा पर्यावरणीय संकल्पनाओं एवं उपागमों की विवेचना कीजिए।
अथवा
पर्यावरण को परिभाषित कीजिए एवं भूगोल में इसके अध्ययन के विषय-क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
अथवा
पर्यावरण के अर्थ, उपागमों एवं विषय-क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
अथवा
पर्यावरण अध्ययन की संकल्पना, विषय-क्षेत्र, उपागम एवं सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
अथवा
पर्यावरण की परिभाषा देते हुए उसकी विशेषताओं और प्रकारों को समझाइए।
पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा:-
पर्यावरण शब्द परि+आवरण अर्थात् परिवृत्ति से मिलकर बना है। यह मानव को प्रत्येक ओर से घेरे हुये है और उसके जीवन तथा क्रियाओं पर प्रभाव डालता है। इस परिवृत्ति में मनुष्य से इतर समस्त तथ्य, वस्तुयें, स्थितियाँ और दशाएँ सम्मिलित हैं, जिसकी क्रियायें मानव के जीवन-विकास को प्रभावित करती हैं। जर्मन विद्वान एच० फिटिंग ने पर्यावरण का अर्थ ‘जीव के पारिस्थितिक कारकों का योग’ बतलाया है, अर्थात् जीव की परिस्थिति के समस्त तथ्य मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। ए० जी० ताँसले नामक पादप पारिस्थितिकीवेत्ता ने बतलाया है कि “प्रभावकारी दशाओं का वह सम्पूर्ण योग, जिसमें जीव निवास करते हैं पर्यावरण कहलाता है।“ अमेरिकन नृतत्त्वशास्त्री हर्सकोविट्स के शब्दों में, “पर्यावरण उन समस्त बाह्य दशाओं और प्रभावों का योग है, जो प्राणियों के जीवन और विकास पर प्रभाव डालते हैं।“ दूसरे शब्दों में, “पर्यावरण सम्पूर्ण बाह्य परिस्थितियों और उसका जीवधारियों पर पड़नेवाला प्रभाव है जो जैव जगत के जीवन-चक्र का नियामक है।“
स्पष्ट है कि कोई भी भौगोलिक दृश्य घटना जिस तन्त्र के द्वारा संचालित होती है, उस तन्त्र विशेष को पर्यावरण के नाम से अभिहीत किया जाता है।
सविन्द्र सिंह तथा दुबे के अनुसार, “पर्यावरण एक अविभाज्य समष्टि है तथा भौतिक, जैविक एवं सांस्कृतिक तत्त्वों वाले पारस्परिक क्रियाशील तन्त्रों से इसकी रचना होती है। ये तन्त्र अलग-अलग तथा सामूहिक रूप से विभिन्न रूपों में परस्पर सम्बद्ध होते हैं। भौतिक तत्त्व (स्थान, स्थल, रूप, जलीय भाग, जलवायु, मृदा, शैलें तथा खनिज), मानव निवास क्षेत्र की परिवर्तनशील विशेषताओं, उसके सुअवसरों तथा प्रतिबन्धक अवस्थितियों को निश्चित करते हैं। जैविक तत्त्व (पौधे, जीव-जन्तु, सूक्ष्म जीव तथा मानव) जीवमण्डल की रचना करते हैं। सांस्कृतिक तत्त्व (आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक तत्त्व मुख्य रूप से मानव-निर्मित होते हैं तथा सांस्कृतिक पर्यावरण की रचना करते हैं।)”
पर्यावरण अवबोध की संकल्पना एवं सिद्धान्त:-
पर्यावरण अध्ययन की मुख्य संकल्पनाएँ निम्न हैं–
1.आवास की संकल्पना–पालिमेण्ट्स एवं शैलफोड के अनुसार, “आवास यथार्थ भौतिक एवं रासायनिक परिस्थितियों (जैसे स्थान अपःस्तर एवं जलवायु का एक विशिष्ट समुच्चय है जो किसी स्पीशीज के समूह या एक वृहद् समुदाय के परिवेश का निर्माण करता है।“ जीवों के आवासों के आधार पर सम्पूर्ण जैवमण्डल को सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित पर्यावरणों में बाँटा जा सकता है- (i) अलवण जलीय पर्यावरण। (ii) समुद्री पर्यावरण। (iii) स्थलीय पर्यावरण।
2.जीवोम की संकल्पना-जीवोम का तात्पर्य उस वृहत्तम की पहचानी जा सकने वाली सामुदायिक इकाई से है जो क्षेत्रीय जलवायु समस्त जीव जाति अवस्तर की परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है।
3.समस्त जीव एवं उनके पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों के प्रति संवेदनशीलता की संकल्पना-इस सिद्धान्त के अनुसार कोई भी जीव पर्यावरण के प्रति अनुक्रिया हेतु आवश्यक क्रियाएँ पर सायनो के बिना अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। सभी जीवद्रव्यी इकाइयों की एक आधारभूत प्रतिक्रिया होती है।
4.समस्त जीवों द्वारा किसी-न-किसी रूप में पर्यावरण के प्रति अनुकूलता की संकल्पना- इस सिद्धान्त के अनुसार किसी जीव को जीवित रहने के लिए पर्यावरण द्वारा आरोपित परिस्थितियों के प्रति अनुकूल होना आवश्यक होता है।
5.समस्त जीवों में पर्यावरणीय परिवर्तनों से समायोजन की क्षमता की संकल्पना- यह यथार्थ में दशास्त्रकूल का सिद्धान्त है, जिसका तात्पर्य उस प्रक्रिया से होता है जिसके द्वारा कोई अपने जीवन-चक्र की सीमा में उन परिस्थितियों का अभ्यस्त होने में सक्षम होता है, जो सामान्यतः उसे हानि या चोट पहुँचा सकते हैं।
6.समस्त जीवों के परस्पर एवं अपने पर्यावरण के साथ योजनाबद्ध रूप से जुड़े होने की संकल्पना – कोई भी जीव अपने पर्यावरण से पृथक् जीवन-यापन नहीं कर सकता। समस्त प्राणी पर्यावरण बलों द्वारा प्रभावित हैं, पर यह परस्पर सम्बन्ध अयोग्य प्रकृति के होते हैं जिनमें जीव भी अपने पर्यावरण को प्रभावित करते हैं।
वातावरण अध्ययन के क्षेत्र:-
पर्यावरणात्मक शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य है कि लोगों में श्रम एवं सजगता आये, अपेक्षित दृष्टिकोण, कौशल एवं क्षमता का प्रादुर्भाव हो सके तथा वास्तविक जीवन की पर्यावरणात्मक समस्याओं के समाधान में वे भागीदार हो सकें।
पर्यावरण शिक्षा का क्षेत्र अति अनुशासनात्मक समाकलित एवं समग्र रूप से समन्वयात्मक होना चाहिए। आदिम जनजातियों, झोपड़पट्टियों एवं ग्रामीण तथा नगरीय परिवेश में रहने वाले सामान्य व्यक्तियों को ही नहीं बल्कि स्त्रियों, कालेजों एवं विश्वविद्यालयों, निर्माताओं एवं कार्यक्रमों का कार्यान्वयन करने वालों को भी पर्यावरण के बारे में शिक्षित करने की आवश्यकता है।
पर्यावरणात्मक विज्ञान कोई एक प्रथम एवं एकाकी विषय तो नहीं है बल्कि मूलभूत एवं व्यावहारिक विज्ञानों, इंजीनियरी, सामाजिक, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र तथा विधिशास्त्र का एक समुच्चय है। अतः पर्यावरणात्मक शिक्षा तथा जागृति का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य शिक्षा को एक ऐसा नवीन उपागम प्रदान करना है जो विभिन्न विषयों के अध्ययन क्षेत्रों से सम्बन्धित है। इस तरह हमारा लक्ष्य पर्यावरण शिक्षा को अध्ययन की विभिन्न पद्धतियों में प्रविष्ट कराना है। क्योंकि पर्यावरण मानव जीवन के बहुमुखी क्षेत्रों से सम्बद्ध है। सच तो यह है कि पर्यावरण सर्वव्यापी है। घर से लेकर कलकारखानों तक उपयोग-कृषि नगरीयकरण आदि के विभिन्न क्षेत्रों तक इसका फैलाव है।
पर्यावरणात्मक शिक्षा के क्षेत्रों को मोटे तौर पर दो प्रमुख उपक्षेत्रों में बाँटा जा सकता है-
(i).औपचारिक
(ii) अनौपचारिक।
औपचारिक ज्ञान को पुनः दो चरणों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम, स्कूलों व कालेजों की शिक्षा की अवस्था तथा द्वितीय, विश्वविद्यालयी शिक्षा की अवस्था। जिसमें प्राथमिक शिक्षा का लक्ष्य है पर्यावरण के प्रति जागृति पैदा करना। इसके लिए घर से पाठशाला तक की बाह्य परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त कराया जाना चाहिए और शिक्षण पद्धति के रूप में रेडियो, टेलीविजन तथा क्षेत्र विशेष तक विद्यार्थी को ले जाने की पद्धति अपनाना चाहिए। निम्न माध्यमिक शिक्षण की अवस्था का उद्देश्य वास्तविक जीवन की अनुभूति कराना, उनमें जागृति पैदा करना तथा समस्या से परिचित कराना है। उच्चतर माध्यमिक शिक्षा की अवस्था का लक्ष्य ज्ञान का संरक्षण एवं विलयन समस्याओं से परिचय प्राप्त कराना तथा क्रियात्मक कौशल पैदा करना है। इसमें विश्व पर आधारित तथा क्रियात्मक की ओर कमी का ज्ञान प्रदान किया जाता है। विद्यालयी शिक्षा का उद्देश्य संरक्षण के साथ-साथ अनुभूति के आधार पर उत्तरोत्तर विकास से बराबर अवगत कराना है। विश्वविद्यालय शिक्षा की अवस्था के तीन अंग हैं अध्यापन, शोध एवं ज्ञान प्रसार। इसमें पर्यावरणात्मक इंजीनियरी संरक्षण तथा प्रबन्ध पर्यावरणात्मक स्वास्थ्य तथा सामाजिक पारिस्थितिकी का समावेश महत्त्वपूर्ण है।
अनौपचारिक ज्ञान में प्रौढ़ शिक्षा का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अन्तर्गत महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, आदिवासियों, कृषि श्रमिकों, झोपड़पट्टी के निवासियों जैसे- कमजोर वर्गों को पर्यावरणात्मक ज्ञान प्रदान करने पर बल दिया जाना चाहिए। क्योंकि यही नव साक्षर आगे चलकर जनसाधारण तक पर्यावरण का संदेश पहुँचाने का कार्यक्रम संपादित करेंगे। आंचलिक बोली, पोस्टरों, स्लाइडों, रेडियो, टेलीविजन एवं बैलगाड़ियों पर आयोजित प्रदर्शनियों तथा अन्य ऐसी ही सामग्रियों को इस दिशा में प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। ग्रामीण युवाओं तथा गैर विद्यार्थी युवाओं को पर्यावरणात्मक शिक्षा की परिधि में लाना भी अत्यधिक आवश्यक है।
अनौपचारिक शिक्षा के अन्तर्गत बच्चों की गतिविधियाँ भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं। प्रतिवर्ष बच्चों के लिए पर्यावरणीय शिक्षा के लिए अल्पकालीन पाठ्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए।
भूगोल एवं पर्यावरण का सम्बन्ध-यथार्थतया भूगोल ने हमेशा ही पारिस्थितिकी का अध्ययन एक प्रणाली के रूप में इसके प्राकृतिक एवं मानव जनक (तकनीकी जनक) घटकों सहित किया है। पर्यावरण स्थैतिकी तौर पर अत्यन्त परिवर्तनशील होता है। इसका यह गुण धर्म इसको पारिस्थितिकी तौर पर अपार महत्त्व प्रदान करता है। अतः हम यह कह सकते हैं कि किसी भी पारिस्थितिकी छानबीन में पर्यावरण का भौगोलिक अध्ययन करना अनिवार्य है। इसके अतिरिक्त मूलभूत पारिस्थितिकी अनुसन्धान में भौगोलिक विज्ञानों की प्रधानता होनी चाहिए। क्योंकि अन्तर अनुसंधानीय आधार पर पारिस्थितिकी अनुसंधान करने के लिए किसी भी अन्य विज्ञान की तुलना में आधुनिक भूगोल सबसे उपयुक्त है। यह उसके अनुसंधान के लिए आवश्यक पद्धतियों को तय करता है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि भूगोल भौतिक वातावरण के और इसके प्राकृतिक संसाधनों के बारे में तथा उन पर विजय आर्थिक दोहन दर्जे एवं रूपों के बारे में अपर वैज्ञानिक सूचना प्रदान करता है।
इसके अतिरिक्त पारिस्थितिक समस्या से निपटने के लिए भौगोलिक विज्ञान अपने आपको प्रभाव की पहले से विकसित एक प्रणाली पर आधारित करते हैं। ये निम्न हैं- (1) भौतिक पर्यावरण के घटकों में होने वाले परिवर्तनों के रूपों की छानबीन करते हैं। (2) उस प्रभाव की खोज करते हैं जो जनसंख्या के क्षेत्रीय विभाजन और अर्थव्यवस्था के भिन्न-भिन्न प्राकृतिक परिस्थितियों में आबादी के जीवन की परिस्थितियों के कारण पर्यावरण पर पड़ता है।
भूगोल में पारिस्थितिकी जाँच पड़ताल के मुख्य वैज्ञानिक ज्ञानों के सार की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है- (1) मानव गतिविधि से उत्पन्न पर्यावरण के परिवर्तनों पर नियन्त्रण। (2) पर्यावरण पर आर्थिक गतिविधि के संघात परिणामों का वैज्ञानिक भौगोलिक पूर्वानुमान। (३) भौगोलिक प्राकृतिक आपदाओं को रोकना, हल्का करना और समाप्त करना। (4) मनुष्य द्वारा निर्मित प्राकृतिक तकनीकी प्रणालियों में पर्यावरण का शेषीकरण।
प्रश्न 5. पर्यावरण अध्ययन की परिभाषा सविस्तार देते हुए इसकी आवश्यकता एवं महत्त्व का प्रतिपादन कीजिए।
अथवा
पर्यावरण भूगोल की प्रकृति, परिभाषा एवं महत्त्व को समझाइए।
अथवा
पर्यावरण अध्ययन की अन्तर्विषयी उपागम के रूप में भूगोल की भूमिका को समझाइए।
अथवा
पर्यावरण भूगोल अध्ययन की संकल्पना, विषय-क्षेत्र, उपागम एवं सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
अथवा
पर्यावरण भूगोल की परिभाषा कीजिए। इसकी प्रकृति एवं महत्त्व को समझाइए।
पर्यावरण भूगोल की प्रकृति:-
पर्यावरण अध्ययन में अन्तर्विषयी उपागम के रूप में भूगोल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पर्यावरण का आशय उस वातावरण से है जो हमारे चारों ओर फैला हुआ है। यह चारों ओर का वातावरण प्राकृतिक दशाओं का एक मिला-जुला रूप है जो धरातल, मिट्टियाँ, हवा तथा पानी से निर्मित है। इन सभी तत्त्वों का प्रभाव न केवल मानव पर ही वरन् पशु-पक्षी, पेड़-पौधे पर भी देखा जाता है। इस प्रकार सभी प्रकृति प्रदत्त शक्तियाँ प्राकृतिक वातावरण या पर्यावरण को बनाती हैं।
पर्यावरण व भूगोल दो अलग-अलग पहलू न होकर एक ही रूप हैं। किसी भी मानव समाज को समझने के लिए उसके भौगोलिक पर्यावरण का अध्ययन आवश्यक है। उसी से उनकी पहचान होती है। इसी में मानव क्रियाकलापों का वैविध्य परिलक्षित होता है।
भूगोल में पर्यावरण अध्ययन की आवश्यकता:-
भूगोल में पर्यावरणीय अध्ययन अन्तर्निहित पक्ष है। फिर भी पर्यावरण के अध्ययन की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में अग्रलिखित तथ्य अवलोकनीय हैं-
(1).भूगोल का समन्वित दृष्टिकोण–भूगोल ही ऐसा विज्ञान है जो पृथ्वी की सतह के सभी घटकों का समन्वित अध्ययन करता है। पर्यावरण अनेकानेक तत्त्वों और परिस्थितियों का एक विषम संगठन है। अतः अपने समन्वयन के उपागम से भूगोल ही पर्यावरण का सम्यक् अध्ययन कर सकता है। इसलिए इसे भौगोलिक अध्ययन का आधारी पक्ष कहा गया है। इसी के परिप्रेक्ष्य में मानवीय अनुक्रियाओं का अध्ययन भूगोल का परम लक्ष्य है। पर्यावरणीय विविधता क्षेत्रीय विषमता को जन्म देती हैं जिसका अध्ययन व विश्लेषण भूगोल में किया जाता है।
(2).प्राकृतिक तन्त्र का अध्ययन–भूगोल पृथ्वी के प्राकृतिक घटकों का क्रमबद्ध ढंग से अध्ययन करता है क्योंकि इन घटकों की सम्बद्धता में पृथ्वी की भौतिक रचना से लेकर भौम्याकृति, जलवायु, मृदा, वनस्पति, जीव–जन्तु, भूमि उपयोग आदि का श्रृंखलाबद्ध अध्ययन किया जाता है। चूंकि पर्यावरण के तत्त्व भी श्रृंखलाबद्ध रूप में समन्वित होते हैं, अतः भूगोल में पर्यावरणीय अध्ययन की व्यावहारिक क्षमता है।
(3).स्थानिक–कालिक अध्ययन–भूगोल पृथ्वी की सतह के लगभग सभी तथ्यों का (भौतिक एवं मानवीय) स्थानिक–कालिक परिप्रेक्ष्य में अध्ययन करता है तथा पर्यावरण एवं मनुष्य के अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या और अनुशीलन करता है।
(4) प्रादेशिकता-प्रादेशीकरण भूगोल की मूल विशेषता है। अतः पृथ्वी के पर्यावरणीय प्रदेशों की पहचान करना भूगोल की प्रमुख गुणवत्ता है। जीवोम की पहचान इसी प्रकार की जाती है।
(5).जैव मण्डल का अध्ययन–भूगोल जैव मण्डल का अध्ययन करता है। जैव मण्डल के सभी जैविक एवं अजैविक घटकों की विशेषताओं एवं सम्बन्धों का अध्ययन भूगोल की अपनी विशिष्टता है। पर्यावरण की वृहद् संकल्पना में ये घटक आते हैं। अतः भूगोल में पर्यावरण का अध्ययन प्रासंगिक है।
(6).भौतिक भूगोल की अवधारणा अपने अन्तर्जात गुणों के कारण भूगोल का अध्ययन पर्यावरण के अध्ययन पर आधारित होता है जिसे भौतिक भूगोल के रूप में स्वीकारा गया है। हम कह सकते हैं कि भूगोल के अध्ययन का प्रारम्भ ही पर्यावरण अध्ययन से होता है।
(7).पर्यावरण तत्त्वों का समन्वित अध्ययन–भौगोलिक अध्ययन में पर्यावरण के तत्त्व समूहों को स्पष्टतः चार वर्गों (i) स्थल मण्डल, (ii) जल मण्डल, (iii) वायु मण्डल और (iv) जीव मण्डल, में विभक्त कर अध्ययन किया जाता है। यह भूगोल की अपनी पर्यावरणीय अध्ययन की व्यवस्था है।
अतः पर्यावरण अध्ययन की प्रासंगिकता तथा अन्तर्जात विशिष्टता के दृष्टिकोण से पर्यावरण का सम्यक अध्ययन मूलरूप से भूगोल के विषय में आता है। हाल के दशकों में पारिस्थितिकी की बढ़ती उलझनों के कारण पर्यावरण के प्रति नयी जागरूकता पैदा हो रही है। ऐसी दशा में पर्यावरण अध्ययन को नया रूप देने का प्रयास किया जा रहा है। पर्यावरण भूगोल, पर्यावरण प्रबन्ध आदि नये आयाम इसके उदाहरण हैं।
पर्यावरण अध्ययन की परिभाषा:-
पर्यावरण भूगोल का मुख्य अध्ययन वस्तु मानव-पर्यावरण सम्बन्धों का अध्ययन है तथा इस विषय के अध्ययन का प्रमुख उपागम ‘पारिस्थितिक उपागम’ है। पारिस्थितिक उपागम के अन्तर्गत भूतल के प्राकृतिक पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकीय स्तर पर विकसित मानव के बीच अन्तर्सम्बन्धों के स्थानिक गुणों का पारिस्थितिक तंत्र के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता है। इस आधार पर सामान्य रूप में पर्यावरण भूगोल को सविन्द्र सिंह के शब्दों में निम्न रूप से परिभाषित किया जा सकता है-
“पर्यावरण भूगोल सामान्य रूप से जीवित जीवों तथा प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य मुख्य रूप से प्रौद्योगिक स्तर पर विकसित आर्थिक मानव एवं उसके प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य अन्तर्सम्बन्धों के स्थानिक गुणों का अध्ययन है।“
पर्यावरण भूगोल की परिभाषा को और अधिक विस्तृत किया जा सकता है ताकि यह इतनी लचीली तथा व्यापक हो सके कि इसके द्वारा पर्यावरण भूगोल के विषय-क्षेत्र को भी प्रदर्शित किया जा सके। पर्यावरण भूगोल की निम्न परिभाषा प्रस्तुत है-
‘पर्यावरण भूगोल’ भूगोल की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत प्राकृतिक पर्यावरण तंत्र के विभिन्न संघटकों की विशेषताओं, संघटन एवं कार्यों, विभिन्न संघटकों की पारस्परिक निर्भरता, संघटकों को आबद्ध करनेवाले विभिन्न प्रक्रमों एवं प्रक्रियाओं, विभिन्न संघटकों की एक-दूसरे के साथ तथा आपस में अन्तर्प्रक्रियाओं के स्थानिक तथा कालिक सन्दर्भ में परिणामों, प्रौद्योगिकीय स्तर पर विकसित आर्थिक मानव एवं भूपारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न संघटकों के मध्य अन्तर्प्रक्रियाओं तथा उनसे भूपारि-स्थितिक तंत्र में उत्पन्न परिवर्तनों तथा उनसे जनित पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण और प्रदूषण नियंत्रण की तकनीकों एवं रणनीतियों तथा प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन का अध्ययन किया जाता है।
पर्यावरण अध्ययन की भूमिका व महत्त्व:-
पर्यावरण का अध्ययन भूगोल का परम उद्देश्य है क्योंकि इसी के बलबूते पर मानवीय अनुक्रियाओं की विविधता एवं क्षेत्रीयता को जाना जा सकता है। भूगोल में पर्यावरण का अध्ययन स्थलमण्डल, जलमण्डल, वायुमण्डल और जीवमण्डल की उपशाखाओं में विभक्त करके किया जाता है। इन शाखाओं के तत्त्वों का मिश्रित प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है और स्वयं मानव इन तत्त्वों को प्रभावित भी करता है। मानव का पर्यावरण के तत्त्वों पर बढ़ता दबाव पर्यावरण के गुणात्मक ह्रास का कारण बनता जा रहा है। पर्यावरण अवमानना का परिणाम मानव सहित अन्य जीवधारियों के लिए कठिन प्रमाणित होने लगा है। इस स्थिति से निपटने के लिए पर्यावरण का संरक्षण और विकास आवश्यक हो गया है। अतः पर्यावरण के अध्ययन का उद्देश्य बहुआयामी और विस्तृत होता जा रहा है। आज विविध वर्गों के विज्ञानी पर्यावरण अध्ययन में जुटने लगे हैं जिसके कारण यह अन्तर्विषयक बन गया है।
पारिस्थितिकी की समस्याओं के उभड़ने के बाद पर्यावरण का अध्ययन अधिक जोर पकड़ता जा रहा है क्योंकि पहले इसे प्रकृति की जिम्मेदारी समझा जाता था। भौगोलिक अध्ययन में इसकी महत्ता प्राचीन काल से बनी हुई है। आज पर्यावरण अध्ययन के दो प्रमुख आधार हैं- (1) पर्यावरण के तत्वों और जीवों का अन्तःसम्बन्ध एवं (2) पर्यावरण की अवमानना से उत्पन्न समस्याएँ तथा उनका समाधान। पर्यावरण के प्रभाव को लेकर प्रकृतिवाद की अवधारणा भूगोल में वैचारिक मंथन का आधार है। पर्यावरण की अवमानना आधुनिक युग में इतनी प्रबल है कि आज मानव सहित अन्य जीवों के समक्ष संकट स्थिति की उत्पन्न हो गयी है। इस संकट का सबसे बड़ा कारण स्वयं मनुष्य है। मानव समाज और पर्यावरण का बिगड़ता सम्बन्ध महाप्रलय का कारण बन सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि उद्योग एवं अन्तरिक्ष कार्यक्रम के फलस्वरूप वायुमण्डल में ऐसी जहरीली गैसें इकट्ठी हो रही हैं जो ओजोन गैस की परत को विनष्ट कर रही हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो ओजोन की छतरी सूर्य की पराबैंगनी किरणें सोखने में असमर्थ हो जाएगी। फलस्वरूप पृथ्वी के धरातल पर इनका सीधा आगमन सभी जीवों को झुलसा कर नष्ट कर देगा। इसी प्रकार वायुमण्डल में कार्बन-डाइ-आक्साइड का बढ़ता प्रतिशत तापमान को बढ़ायेगा जिसके कारण मौसम और जलवायु अनेक विपत्तियों को सृजित करेगी। अस्तु पर्यावरण का अध्ययन एक सामयिक आवश्यकता है। इसका अध्ययन स्थानीय, क्षेत्रीय और विश्व स्तर पर करने की आवश्यकता है जैसा कि भूगोल में किया जाता है। भूगोल पर्यावरण के जैविक और अजैविक तत्त्वों का मूल्यांकन प्राकृतिक विधान के रूप में करता है। यही कारण है कि विश्व की विविध मानव प्रजातियों, विविध आर्थिक कर्मों और विविध आवश्यकताओं का मूल्यांकन पर्यावरण के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है। अफ्रीका के बौने और भारत के आर्य दो भिन्न मानव प्रजातियों के प्रतीक हैं क्योंकि दोनों भिन्न पर्यावरण से पोषित हैं। आज विश्व के विभिन्न क्षेत्रों की आर्थिक- सामाजिक विशिष्टता के लिए भौतिक परिवेश के तत्त्व, विशेषकर जलवायु, मृदा, खनिज पदार्थ और धरातलीय जल विशेष उत्तरदायी हैं। प्राविधिकी और विज्ञान के विकास के बावजूद जलवायविक अतिशयता के कारण कनाडा अपने उत्तरी भाग में जहाँ एस्किमो लोग निवास हैं, उस प्रकार सफल नहीं हो पा रहा है जैसा कि दक्षिणी हिस्से के विकास में सफल है। जहाँ कहीं भी पर्यावरण के तत्त्वों को नियन्त्रित करने का मानवीय प्रयास हुआ है वहाँ अनेक प्रतिक्रियामूलक परिणाम प्रकट होने लगे हैं जिसके कारण पर्यावरण संरक्षण की बात की जाने लगी है। स्पष्ट है कि पर्यावरण के संरक्षण और सहयोग से ही सामान्य जैविक क्रिया सम्पादित हो सकती है। पर्यावरण के तत्त्वों से अधिक छेड़-छाड़ की मनोवृत्ति पर अब नियन्त्रण की भावना प्रबल हो रही है। विकसित देश इस दिशा में अधिक सचेष्ट हैं क्योंकि ऐसी छेड़-छाड़ की क्रिया वहाँ अधिक हुई है।
पर्यावरण अध्ययन की संकल्पना एवं सिद्धान्त:-
पर्यावरण अध्ययन की मुख्य संकल्पनाएँ निम्न हैं-
1.आवास की संकल्पना–पालिमेण्ट्स एवं शैलफोड़ के अनुसार, “आवास यथार्थ भौतिक एवं रासायनिक परिस्थितियों (जैसे स्थान अपःस्तर एवं जलवायु का एक विशिष्ट समुच्चय है जो किसी स्पीशीज के समूह या एक वृहद् समुदाय के परिवेश का निर्माण करता है।“ जीवों के आवासों के आधार पर सम्पूर्ण जैवमण्डल को सुविधा की दृष्टि से निम्नलिखित पर्यावरणों में बाँटा जा सकता है – (i) अलवण जलीय पर्यावरण। (ii) समुद्री पर्यावरण। (iii) स्थलीय पर्यावरण।
2.जीवोम की संकल्पना–जीवोम का तात्पर्य उस वृहत्तम की पहचानी जा सकने वाली सामुदायिक इकाई से है जो क्षेत्रीय जलवायु समस्त जीव जाति अवस्तर की परस्पर क्रिया–प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है।
3.समस्त जीव एवं उनके पर्यावरण में होनेवाले परिवर्तनों के प्रति संवेदनशीलता की संकल्पना–इस सिद्धान्त के अनुसार कोई भी जीव पर्यावरण के प्रति अनुक्रिया हेतु आवश्यक क्रियाएँ कर सायनो के बिना अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता। सभी जीवद्रव्यी इकाइयों की एक आधारभूत प्रतिक्रिया होती है।
4.समस्त जीवों द्वारा किसी–न–किसी रूप में पर्यावरण के प्रति अनुकूलता की संकल्पना– इस सिद्धान्त के अनुसार किसी जीव को जीवित रहने के लिए पर्यावरण द्वारा आरोपित परिस्थितियों के प्रति अनुकूल होना आवश्यक होता है।
5.समस्त जीवों में पर्यावरणीय परिवर्तनों से समायोजन की क्षमता की संकल्पना–यह यथार्थ में दशानुकूलन का सिद्धान्त है, जिसका तात्पर्य उस प्रक्रिया से होता है जिसके द्वारा कोई अपने जीवन-चक्र की सीमा में उन परिस्थितियों का अभ्यस्त होने में सक्षम होता है, जो सामान्यतः उसे हानि या चोट पहुंचा सकते हैं।
6.समस्त जीवों के परस्पर एवं अपने पर्यावरण के साथ योजनाबद्ध रूप से जुड़े होने की संकल्पना-कोई भी जीव अपने पर्यावरण से पृथक् जीवन-यापन नहीं कर सकता। समस्त प्राणी पर्यावरण बलों द्वारा प्रभावित हैं, पर यह परस्पर सम्बन्ध अयोग्य प्रकृति के होते हैं जिनमें जीव भी अपने पर्यावरण को प्रभावित करते हैं।
पर्यावरण भूगोल का विषय-क्षेत्र एवं उपागम:-
स्थल, जल तथा वायु के सम्मिलन से निर्मित पृथ्वी के चारों ओर व्याप्त मोटी परत, जो सभी प्रकार के जीवों (वनस्पति तथा मानव सहित जन्तु) का पोषण करती है, को जीवमण्डल कहते हैं। इस जीवनदायी जीवमण्डल में बिना किसी रक्षक साधन के सभी प्रकार के जीवन-रूप सम्भव होते हैं। यह जीवमण्डल ही वृहद् स्तरीय भूपारिस्थितिक तंत्र है। जो कि पर्यावरण भूगोल के अन्तर्गत अध्ययन की मूलभूत क्षेत्रीय इकाई है। इस तरह पर्यावरण भूगोल के प्रमुख उद्देश्य हैं- (1) प्राकृतिक पर्यावरण के संघटकों का अलग-अलग एवं सम्मिलित रूप में एक साथ अध्ययन, (2) इन संघटकों में पर्यावरणीय (भौतिक) तथा जैविक प्रक्रमों के माध्यम से विभिन्न स्तरीय सहलग्नताओं का अध्ययन तथा (3) मानव एवं पर्यावरण के मध्य सम्बन्धों एवं अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन।
पर्यावरण भूगोल के विषय-क्षेत्र के अन्तर्गत पर्यावरण विज्ञान अथवा पर्यावरण अध्ययन के तीन प्रमुख उपागमों को सम्मिलित किया जाता है यथा–
(1) पर्यावरण की मूलभूत संकल्पनायें तथा प्रमुख पहलू तथा पर्यावरण एवं मानव तथा उसके समाज के मध्य सम्बन्ध-इसके अन्तर्गत पर्यावरण के निम्न पक्षों को सम्मिलित किया जाता है- पर्यावरण भूगोल की परिभाषा, उसका विषय-क्षेत्र तथा उसकी मूलभूत संकल्पनायें; पर्यावरण की परिभाषा, उसका संघटन तथा उसके प्रकार; पर्यावरण तथा भूगोल के मध्य सम्बन्ध; मनुष्य तथा प्रकृति; पर्यावरण तथा समाज, पारिस्थितिकी तथा उसकी मूलभूत संकल्पनायें तथा सिद्धान्त; पारिस्थितिक तंत्र; पारिस्थितिकी तथा भूगोल; मानव-पर्यावरण सम्बन्धः पर्यावरणीय प्रक्रमों के बीच अन्तर्सम्बन्ध ।
(2) पारिस्थितिक तंत्र, पर्यावरण अवनयन तथा प्रदूषण-इसके अन्तर्गत निम्न पक्षों का अध्ययन करते हैं-पारिस्थितिक तंत्र के संघटक तथा उनकी संरचना; पारिस्थितिक तंत्र में ऊर्जा प्रवाह; जैवभूरसायन चक्र तथा पारिस्थितिक तंत्र में तत्त्वों तथा पदार्थों का संचरण एवं चक्रण; पारिस्थितिक तंत्र की उत्पादकता; पारिस्थितिक तंत्र की स्थिरता एवं अस्थिरता; पारिस्थितिक परिवर्तन ‘पौधों तथा जन्तुओं की जातियों के उद्भवन, विसरण तथा विलोपन, पौधों तथा जन्तुओं का स्थानिक, क्षेत्रीय एवं प्रादेशिक वितरण; जीवोम प्रकार; पर्यावरण अवनयन तथा प्रदूषण-पर्यावरण अवनयन तथा पर्यावरण संकट की प्रकृति तथा परिणाम; पर्यावरण प्रदूषण तथा पर्यावरण अवनयन के प्रकार तथा उनके कारण; प्राकृतिक तथा मानव-जनित प्रकोप तथा आपदायें तथा पर्यावरण प्रदूषण के निवारक उपाय तथा प्रदूषण नियंत्रण कार्यक्रम।
(3) पर्यावरण प्रबन्धन-पर्यावरण प्रबन्धन की संकल्पना; पर्यावरण के पहलू तथा उपागम, पर्यावरण प्रबन्धन के पारिस्थितिकीय आधार- (i) संसाधन प्रबंधन संसाधन प्रबन्धन के उपागम संसाधनों का अर्थ तथा वर्गीकरण; पारिस्थितिकीय संसाधन पारिस्थितिकीय संसाधनों का प्रबन्धन, पारिस्थितिकीय संसाधनों का सर्वेक्षण, उनका मूल्यांकन तथा उनका संरक्षण तथा परिरक्षण (ii) पर्यावरण अधिप्रभाव आकलन तथा (iii) प्रमुख विश्वस्तरीय पर्यावरण कार्यक्रम।
प्रश्न 6.पर्यावरणीय उपागमों की संकल्पना का वर्णन कीजिए।
पर्यावरणीय उपागमों की संकल्पना:-
मनुष्य तथा पर्यावरण के बीच सम्बन्धों का अध्ययन किसी-न-किसी रूप में भूगोल में सर्वदा केन्द्रीय विषय रहा है, परन्तु पर्यावरण विज्ञान के रूप में भूगोल की संकल्पना तथा मानव-पर्यावरण सम्बन्ध के विभिन्न पक्षों में मानव-समाज तथा पर्यावरण के आयाम में विकास के साथ परिवर्तन होता रहा है। मनुष्य एवं उसके समाज के उद्भव एवं विकास की प्रक्रिया के प्रारम्भिक चरण में इस ग्रहीय पृथ्वी के भौतिक तत्त्वों में मनुष्य के पर्यावरण की रचना होती थी तथा मनुष्य मूलरूप में ‘भौतिक मानव’ था, क्योंकि उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं तथा वह पूर्णरूपेण ‘प्रकृति’ पर निर्भर होता था। जैसे-जैसे मनुष्य सामाजिक, आर्थिक तथा प्रौद्योगिकी मानव होता गया, बेहतर भोजन, शरण, गम्यता एवं आराम के लिए अपनी डिजाइन तथा बुद्धि कौशल के द्वारा अपना निजी पर्यावरण बनाता गया और इस तरह मनुष्य के पर्यावरण का दायरा बढ़ता गया। अब वह मात्र प्रकृति तथा पर्यावरण पर पूर्णतः आश्रित नहीं रहा वरन् उसने अपना पर्यावरण भी बना लिया और पर्यावरण तथा प्रकृति को प्रभावित करना आरम्भ कर दिया। इस तरह मानव- पर्यावरण के बीच सम्बन्धों में क्रमानुगत परिवर्तन होता रहा है। अतः मानव-पर्यावरण सम्बन्धों का बोध कई रूपों में तथा कई उपागमों द्वारा किया जा सकता है। मानव-पर्यावरण सम्बन्धों के अध्ययन के निम्न उपागमों का उल्लेख किया जा सकता है-
1.पर्यावरणीय निश्चयवादी उपागम–यह उपागम ‘पृथ्वी ने मानव को बनाया’ की मूलभूत अवधारणा पर आधारित है। यह उपागम मनुष्य तथा उसके क्रिया–कलापों पर भौतिक पर्यावरण के सम्पूर्ण नियन्त्रण पर जोर देता है।
पर्यावरणवाद/निश्चयवाद की संकल्पना 1910 में चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुई, जबकि अमेरिकन भूगोलविद् कुमारी ऐलन चर्चित सेम्पुल ने अपनी पुस्तक ‘Influences of Geographic Environment’ का प्रकाशन किया। इन्होंने प्रतिपादित किया कि ‘मनुष्य पृथ्वी की सतह की उपज है’। एल्सवर्थ हंटिंगटन ने निश्चयवादी/पर्यावरणवादी संकल्पना एवं उपागम को वैज्ञानिक तल पर सुसंगठित किया। इनके द्वारा लिखी पुस्तकें मनुष्य पर भौतिक पर्यावरण के प्रभावों को स्पष्ट रूप से उजागर करती हैं। हंटिंगटन की ‘जलवायु न केवल मानव-जीवन को प्रभावित करती है वरन् उसके जन्म को भी प्रभावित करती है’ की संकल्पना यह प्रमाणित करती है कि हंटिंगटन पर्यावरणवाद/निश्चयवाद के घोर अधिवक्ता तथा समर्थक थे।
2.उद्देश्यमूलक उपागम– मानव–पर्यावरण सम्बन्धों के अध्ययन का उद्देश्यमूलक उपागम इस धार्मिक विचारधारा तथा अटूट विश्वास पर आधारित है कि मनुष्य प्राकृतिक तथा सभी अन्य जीवों से उत्कृष्ट तथा श्रेष्ठतम है। इस उद्देश्यमूलक सम्प्रदाय का अभ्युदय जुडो-क्रिश्चियन धार्मिक परम्पराओं के उपदेशों से हुआ है। इस धार्मिक विचारधारा की शिक्षाओं की प्रमुख मान्यता है कि ‘मनुष्य सभी जीवों से श्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट होता है तथा प्रत्येक वस्तु का सृजन उसके उपयोग तथा आनन्द के लिए होता है। मानव- पर्यावरण/प्रकृति सम्बन्धों की इस विचारधारा ने मनुष्य के प्राकृतिक संसाधनों का विदोहन तथा प्रकृति को पराजित करके उसे काबू में रखने के लिए प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप इस धार्मिक विचारधारा से प्रभावित मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों के बेधड़क, लापरवाह तथा अनियंत्रित लूट-खसोट से उत्पन्न होने वाले भावी खतरों से बेखबर होकर प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता से अधिक तथा तेज रफ्तार से विदोहन प्रारम्भ हो गया, जिस कारण कई प्रकार की पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं। अधिकांश वैज्ञानिकों तथा पर्यावरण विदों ने इस धार्मिक परम्परा को वर्तमान समय में भयावह पर्यावरणीय समस्याओं एवं पारिस्थितिकीय संकट के लिए जिम्मेदार माना है।
3.सम्भववादी उपागम– मानव–पर्यावरण सम्बन्धों के सम्भववादी उपागम का उदय पर्यावरणीय निश्चयवाद की आलोचना तथा उद्देश्यमूलक उपागम की अतिवादी विचारधारा की भर्त्सना के फलस्वरूप हुआ। ज्ञातव्य है कि पर्यावरणीय निश्चयवाद के सम्प्रदाय की स्थापना के समय से ही कुछ लोगों ने इस विचारधारा के खिलाफ आवाज बुलन्द करना प्रारम्भ कर दिया था। इन लोगों की मान्यता रही है कि निःसन्देह भौतिक पर्यावरण मनुष्य तथा उसके कार्य–कलापों को प्रभावित करता हैl
दो फ्रांसीसी भूगोलविदों, विडाल-डि-ला-ब्लाश तथा जीन्स ब्रून्स एवं अमेरिकी भूगोलविदों इसाया बोमन तथा कार्ल सावर ने सम्भववाद सम्प्रदाय की स्थापना की। सम्भववाद सम्प्रदाय, किसी निश्चित स्थान तथा समय में प्रकृति में प्रत्येक चरण पर सम्भावना के दर्शन पर आधारित है। इस संदर्भ में फेवर ने अपना मत व्यक्त किया है कि ‘कहीं भी विवशताएँ होती हैं वरन् प्रत्येक जगह सम्भावनाएँ होती हैं तथा मनुष्य इन सम्भावनाओं का स्वामी होने के नाते इनके उपयोग के लिए स्वयं निर्णायक होता है।‘ इसी आधार पर सम्भववादियों ने यह स्वीकार किया कि मनुष्य प्रकृति को पूर्ण रूप से पालतू बनाकर उसे वश में नहीं कर सकता तथा वह सदा विजेता नहीं होता है।
4. आर्थिक निश्चयवादी उपागम- यह आर्थिक निश्चयवादी उपागम इस मूलभूत विचारधारा पर आधारित है कि मनुष्य का पर्यावरण पर स्वामित्व होता है तथा आधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रयोग द्वारा आर्थिक तथा औद्योगिक विस्तार जारी रहना चाहिए। आर्थिक विकास तथा औद्योगिक विस्तार के सतत चलते रहने वाली विचारधारा को वृद्धि सम्प्रदाय कहते हैं। इस सम्प्रदाय की मान्यता है कि चूंकि राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिरता के लिए आर्थिक विकास जरूरी है अतः नियोजन प्रस्तावों के निर्माण तथा दीर्घकालिक नियोजन में पर्यावरण की गुणवत्ता को सामान्यतः कम प्राथमिकता दी जाती है, क्योंकि पर्यावरण में ह्रास सामान्यतः दीर्घकालिक होता है तथा यह अर्थव्यवस्था में ह्रास की तुलना में कम महत्त्वपूर्ण होता है। वास्तव में आर्थिक निश्चयवाद दो भ्रामक मान्यताओं पर आधारित है- (i) किसी निश्चित प्रदेश की जनसंख्या तथा उस प्रदेश में आर्थिक विकास एवं क्रियाशीलता के स्तर पर मध्य धनात्मक सहसम्बन्ध होता है। तथा (ii) जनता, संसाधन तथा समाज में पारस्परिक क्रिया सार्वभौमिक आर्थिक सिद्धान्तों द्वारा निर्धारित होता है। इस तरह आर्थिक निश्चयवाद इस बात में विश्वास करता है कि आर्थिक वृद्धि एवं औद्योगिक विस्तार के सतत चलते रहने से उत्पन्न पर्यावरणीय समस्याओं को सुलझाने में मनुष्य पूर्णतः सक्षम है।
5. पारिस्थितिकीय उपागम- मानव-पर्यावरण सम्बन्धों के अध्ययन का पारिस्थितिक उपागम पारिस्थितिकी के आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित है। पारिस्थितिकी भौतिक पर्यावरण एवं जीवधारियों के बीच तथा स्वयं विभिन्न जीवधारियों में पारस्परिक क्रियाओं तथा सम्बन्धों का अध्ययन है। इस प्रकार, इस उपागम के अन्तर्गत मनुष्य प्रकृति का अभिन्न अंग माना जाता है। इस उपागम की मान्यता है कि मनुष्य का प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सम्बन्ध परस्परावलम्बन का होना चाहिए कि न कि दमनात्मक। यह पारिस्थितिक सम्प्रदाय मानव को सर्वाधिक बुद्धिमान तथा कुशल होने के नाते सभी जीवधारियों का नेता तथा पृथ्वी रूपी जहाज का परिचालक तथा प्रबन्धक मानता है। यह उपागम पारिस्थितिक सिद्धान्तों तथा नियमों को ध्यान में रखकर प्राकृतिक संसाधनों के संयमित उपयोग, उपयुक्त पर्यावरण प्रबन्धन एवं कार्यक्रमों एवं योजनाओं, कार्यनीतियों एवं रणनीतियों के उपयोग तथा क्रियान्वयन पर बल देता है ताकि जहाँ तक सम्भव हो सके पहले से रिक्त प्राकृतिक संसाधनों की सम्पूर्ति की जा सके, अवनयित तथा प्रदूषित पर्यावरण को पुनः स्वस्थ किया जा सके तथा पारिस्थितिक सन्तुलन को कायम रखा जा सके।
प्रश्न 7. समुचित उद्धरण देते हुए भारत की पर्यावरणीय नीतियों का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति:-
‘मानव पर्यावरण’ पर 1972 में स्टाक होम में आयोजित विश्व स्तरीय कांफ्रेंस में पर्यावरण के प्रति विश्व समुदाय की चिन्ता खुलकर सामने आयी। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह पहला प्रयास था जहाँ पर्यावरण को बचाने की दिशा में सार्थक पहल की अपेक्षा व्यक्त की गई। इस सम्मेलन में दुनिया के सभी देशों के लिए कुछ नीतिगत निर्णय लिये गये और यह अपेक्षा व्यक्त की गई कि दुनिया के सभी राष्ट्र अपने- अपने स्तर पर राष्ट्रीय पर्यावरण नीति बनायें तथा पर्यावरण सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करें। इसी के तहत भारत में नेशनल कमेटी फॉर एनवायरमेंटल प्लानिंग एण्ड कोर्डनेिशन का गठन केन्द्र सरकार द्वारा किया गया। सरकार के निर्देश पर राज्यों में भी प्रदूषण निवारण और नियंत्रण बोर्ड का गठन किया गया।
सन् 1980 में तिवारी कमेटी का गठन हुआ, जिसकी अभिशंसा पर स्वतन्त्र रूप से केन्द्र तथा राज्यों में पर्यावरण विभागों की स्थापना की गयी तथा पर्यावरण की गुणवत्ता और उसके संरक्षण के लिए कारगर उपाय करने की शुरुआत हुई। राष्ट्रीय नीति निर्धारण समिति और पर्यावरण विशेषज्ञों ने राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के बारे में कुछ बिन्दु तय किये जो निम्न हैं-
- समुद्री पर्यावरण,
- वायु, जल स्त्रोतों का प्रदूषण,
- वनों का विनाश और संरक्षण,
- जलविद्युत की सम्भावनाएँ,
- कृषि भूमि की समस्याएँ,
- जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण,
- वन्य जीव संरक्षण,
- कानून निर्माण और उसकी क्रियान्विति।
राष्ट्रीय पर्यावरण में उपयुक्त बिन्दुओं को सम्मिलित किया गया। केन्द्र सरकार का पर्यावरण विभाग पर्यावरण संरक्षण एवं सुरक्षा के लिए कार्य करता है। इस विभाग ने पर्यावरण प्रबन्धन हेतु कई कदम उठाये हैं।
पर्यावरण संरक्षण तथा पर्यावरण प्रदूषण रोकने के लिए कई कानून बने हैं, जैसे-
1.जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974
2.जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981
3.वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972
4.पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1980
5.पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
पर्यावरण संरक्षण : न्यायिक प्रावधान:-
पर्यावरण संरक्षण-भारतीय संविधान– भारतीय संविधान में पर्यावरण संरक्षण और सुधार के लिए स्पष्ट निर्देशन दिये हैं। संविधान के प्रमुख अनुच्छेदों का प्रावधान इस प्रकार है- “
अनुच्छेद 21- यहाँ उल्लेखित है कि “संविधान यह आश्वस्त करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को उस गतिविधियों से बचाया जाना चाहिए जिससे उसके जीवन, स्वास्थ्य और शरीर को हानि पहुँचती हो।“
अनुच्छेद 48 A- “सरकार पर्यावरण के संरक्षण और सुधार तथा देश के वन एवं वन्य जीवों के संरक्षण का प्रयास करेगी।“
अनुच्छेद 51 A “यह भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण का संरक्षण और सुधार करे जिसमें वन, झीलें, नदी और वन्य जीव सम्मिलित है तथा प्रत्येक जीवधारी के प्रति सहानुभूति रखे।“
जल (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1974:-
संसद में विधेयक प्रस्तुत करने के पीछे उद्देश्य एवं कारण- इस विधेयक को संसद में प्रस्तुत करने के पीछे जो उद्देश्य एवं कारण रहा है उसे भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशित किया गया है। (दिनांक 5/12/1969 पृष्ठ 1153 से 1185 तक)। मोटे तौर पर इसे निम्न शब्दों में अभिव्यक्त किया गया- “उद्योगों की वृद्धि तथा शहरीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति के फलस्वरूप इन हाल के वर्षों में नदी तथा दरियाओं के प्रदूषण की समस्या काफी आवश्यक और महत्त्वपूर्ण बन गई हैं। अतः यह आश्वस्त किया जाना आवश्यक हो गया है कि घरेलू तथा औद्योगिक बहिस्स्राव उस जल में नहीं मिलने दिया जाये जो पीने के पानी के स्रोत, कृषि उपयोग तथा मत्स्य जीवन के पोषण के योग्य हो। नदी और तालाबों का प्रदूषण भी देश की अर्थव्यवस्था को निरन्तर हानि पहुँचाने का कारण बनती हैं।“
1.जल ( प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण) उपकर अधिनियम, 1977- इस अधिनियम के तहत जल प्रदूषण निवारण एवं नियन्त्रण हेतु केन्द्र तथा राज्य सरकारों को आर्थिक संसाधन उपलब्ध कराने के लिए जल उपयोग करने वाले उपयोग से उपकर प्राप्त करने का प्रावधान है। इसे 1/4/1978 से पूरे भारत में लागू किया गया।
2.वायु ( प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981-इस अधिनियम के निर्माण की पृष्ठभूमि 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण सम्बन्धी वह अन्तर्राष्ट्रीय कांफ्रेंस रही जिसमें मानव जीवन को प्रदूषण से मुक्त रखने के सन्दर्भ में व्यापक विचार-विमर्श हुआ था। बढ़ते औद्योगीकरण के कारण पर्यावरण में निरन्तर हो रहे वायु प्रदूषण के नियन्त्रण और इसके रोकथाम के लिए यह अधिनियम बनाया गया जो देश में संसद के दोनों सदनों में पारित होकर राष्ट्रपति की स्वीकृति से 16 मई, 1981 में लागू किया गया।
3.पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986- यह अधिनियम भी स्टाकहोम सम्मेलन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए पर्यावरणीय समस्याओं के निवारण के लिए बनाया और लागू किया गया। केन्द्र सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए नियम बनाये जिन्हें पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गाँधी के जन्म दिवस 19 नवम्बर, 1986 से सम्पूर्ण भारत में लागू किया गया।
पर्यावरण के क्षेत्र में बढ़ते प्रदूषण को रोकने तथा प्रदूषण न होने के लिए भारत सरकार का निश्चित ही एक महत्त्वपूर्ण प्रयास है। पर्यावरण की समस्या से निपटने के लिए ऐसे प्रभावी कदम उठाने की नितान्त आवश्यकता है साथ ही इस अधिनियम से जल स्रोतों की तथा वायुमण्डल और भूमि शुद्धता निरापदता की रक्षा सम्भव है। इसमें कुछ ऐसे कड़े प्रावधान भी किये गये जिसमें कठोर आर्थिक दण्ड और कारावास की सजा का प्रावधान रखा गया और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार प्रत्येक व्यक्ति को इसके दायरे में लाया गया जिससे की व्यक्ति या उद्योग पर्यावरण को किसी भी रूप में नुकसान न पहुँचाये और पहुँचाने की स्थिति में वह सीधे इसके लिए जवाबदेह हो।
4.राष्ट्रीय पर्यावरण ट्रिब्यूनल अधिनियम, 1992- इस अधिनियम का उद्देश्य दुर्घटनाग्रस्त और त्रस्त लोगों को तत्काल राहत और मुआवजा दिलाना है। इस ट्रिब्यूनल की सबसे पहले चार शाखाएँ – दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई में खोली गयीं। यह अधिनियम 17 जून, 1995 को राष्ट्रपति की मंजूरी से सम्पूर्ण देश में लागू किया।
5.राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलैट अथारिटी अधिनियम, 1997- यह अधिनियम 9 अप्रैल, 1997 से लागू किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य एक ऐसी राष्ट्रीय स्तर की पर्यावरण अपीलैट अथोरिटी का निर्माण करना है जो उन क्षेत्रों की अपीलों पर सुनवाई करें जहाँ पर उद्योग अथवा उद्योग सम्बन्धी कार्यकलाप न होते हों। यह ट्रिब्यूनल विकास सम्बन्धी योजनाओं और परियोजनाओं को सुचारु रूप से चलाये जाने में पारदर्शिता लाने के लिए निर्मित किया गया है।
6.पर्यावरण संरक्षण : राष्ट्रीय स्तर पर किये जा रहे प्रयास- तिवारी कमेटी की अनुशंसा के अनुसार ही केन्द्र सरकार के प्रशासनिक ढाँचे में पर्यावरणीय कार्यक्रम के नियोजन, प्रोत्साहन तथा समन्वयन के सम्बन्ध में कार्य करने के लिए केन्द्र स्तर पर एक अलग पर्यावरण विभाग की स्थापना की गयी। बाद में इस विभाग को ‘पर्यावरण और वन विभाग’ नाम दिया गया। पर्यावरण तथा वन मंत्रालय के अधीन वन तथा वन्य जीव विभाग के नाम से एक एकीकृत विभाग ने 25 सितम्बर, 1985 से कार्य करना प्रारम्भ किया। बाद में इसमें राष्ट्रीय भूमि उपयोग तथा परती भूमि विकास परिषद, राष्ट्रीय परती भूमि विकास बोर्ड, केन्द्र गंगा प्राधिकरण के कार्य भी जोड़ दिये गये। इस विभाग ने सन् 1980 से अब तक पर्यावरण संरक्षण, सुधार एवं सुरक्षा के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय कार्य किये हैं। इस विभाग के पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अनेक जन-जागरूकता कार्यक्रम तथा अच्छे कार्यों के प्रोत्साहन हेतु पुरस्कार प्रदान करने की योजना बनाई है।
कानूनी प्रावधान तो बने हैं परन्तु कानूनी प्रक्रिया इतनी लचीली है कि पर्यावरण प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण के क्षेत्र में कुछ खास कार्यवाई नहीं हो पा रही है। सरकारी विभाग प्रशासनिक इकाई के तौर पर कार्य करता है। अतः पर्यावरण प्रदूषण की रोकथाम तथा पर्यावरण के बेहतर प्रबन्धन के लिए आज भी यह आवश्यकता बनी हुई है कि कड़े कानून बनाये जायें और उनका पालन करना सुनिश्चित किया जाये।
पर्यावरण प्रबन्धन के द्वारा ही जीवन का स्तर ऊँचा उठाया जा सकता है, जीवन को सुरक्षित किया जा सकता है। पर्यावरण को प्रदूषण मुक्त करके ही सुखी जीवन की कल्पना की जा सकती है। इसके लिए राष्ट्रीय पर्यावरण नीति के साथ, पर्यावरण सम्बन्धी सख्त कानून का निर्माण, लोगों को पर्यावरण के प्रति उचित जानकारी आदि बेहतर पर्यावरण प्रबन्धन के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 8. पर्यावरण भूगोल की संकल्पनाओं की विवेचना कीजिए।
पर्यावरण भूगोल मूल रूप में जीवित ग्रह के रूप में पृथ्वी के सम्पूर्ण पर्यावरण (भौतिक तथा जैविक) का अध्ययन है। पर्यावरण भूगोल के अध्ययन की आधारभूत इकाई वायुमण्डलीय, स्थलमण्डलीय एवं जलमण्डलीय संघटकों से युक्त पृथ्वी की जीवनपोषी परत है। इसी परत को जीवमण्डल भी कहा जाता है जो सभी प्रकार के जीवन को सम्भव बनाता है। इस जीवनपोषी परत अर्थात् जीवमण्डल की प्रमुख – विशेषतायें इस प्रकार हैं: (i) इसमें विभिन्न भौतिक एवं जैविक प्रक्रम कार्यरत रहते हैं, (ii) जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न संघटकों (जैविक एवं अजैविक या भौतिक में परस्पर अन्तर्प्रक्रिया एवं अन्तर्निर्भरता होती है; पारिस्थितिक तंत्र में पारिस्थितिकीय संसाधनों में अन्तर्प्रक्रिया के फलस्वरूप विभिन्न प्रकार के सकारात्मक एवं नकारात्मक परिणाम उत्पन्न होते हैं जिस कारण जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र में विभिन्न स्तरों (स्थानीय, प्रादेशिक एवं विश्वस्तरीय) पर स्थिरता अथवा अस्थिरता उत्पन्न होती है, पर्यावरण पर आर्थिक एवं प्रौद्योगिक मानव के दिन प्रतिदिन बढ़ते दबाव (जनसंख्या में वृद्धि के कारण पर्यावरणीय संसाधनों के अधिकाधिक विदोहन के कारण) पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण का आविर्भाव होता है, मानव अपने सतत प्रयासों द्वारा विक्षुब्ध पारिस्थितिक तंत्र को स्थिरता प्रदान करने, पारिस्थितिकीय संसाधनों को संरक्षण प्रदान करने एवं उनका नियोजन करने तथा विभिन्न प्रदूषण के नियंत्रण हेतु संघर्षरत रहता है।
पर्यावरण के कुछ ऐसे आधारभूत नियम हैं जो पर्यावरण भूगोल के तीन प्रमुख पक्षों को प्रभावित एवं नियंत्रित करते हैं। ये तीन पक्ष इस प्रकार हैं: (i) जीवनपोषी परत अर्थात् जीवमण्डल में प्राकृतिक प्रक्रमों (भौतिक तथा जैविक प्रक्रम) तथा मनुष्य एवं पर्यावरण और मनुष्य तथा पर्यावरणीय प्रक्रमों के बीच सम्बन्ध तथा उससे सम्बन्धित पर्यावरण एवं पर्यावरणीय प्रक्रमों में परिवर्तन भूगोल के निम्नलिखित प्रमुख आधारभूत नियम एवं संकल्पनायें हैं:
(1).पर्यावरण तंत्र या पारिस्थितिकी तंत्र पर्यावरण भूगोल के अध्ययन के लिए आधारभूत पारिस्थितिकीय इकाई है।
(2).जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र निर्दिष्ट प्रक्रमों द्वारा संचालित होता है।
(3).पृथ्वी की सतह के पदार्थों का सतत् निर्माण, अनुरक्षण, विनाश और पुनर्निर्माण होता रहता है।
(4).भौतिक एवं जीवीय प्रक्रम एक रूपतावाद के नियमानुसार क्रियाशील होते हैं।
(5) प्राकृतिक पर्यावरण तंत्र होमियोस्टेटिक प्रक्रिया द्वारा संचालित एवं नियंत्रित होता है।
(6).प्राकृतिक पर्यावरणीय तंत्र के जैविक एवं अजैविक संघटकों में पारस्परिक सम्बन्ध होता है।
(7) जीवमण्डलीय पारिस्थिति तंत्र में ऊर्जा के प्रवाह एवं पोषक तत्त्वों के संचरण द्वारा पृथ्वी एवं जीवों का अस्तित्व संभव होता है।
(8) प्रजातियों में स्थानिक एवं कालिक परिवर्तन एवं विविधतायें होता है।
(9).पारिस्थितिक तंत्र की विविधता एवं जटिलता पारिस्थितिकीय स्थिरता में वृद्धि करती है एवं उसका अनुरक्षण करती है।
(10) पर्यावरण के साथ मनुष्य की अन्तर्क्रिया पर्यावरण की स्थिरता या अस्थिरता निर्धारित करती है।
प्रश्न 9. भारत में पर्यावरण परियोजन की नीतियों एवं बहुस्तरीय उपागम की विवेचना कीजिए।
भारत में पर्यावरण नियोजन:-
पूर्ववर्ती विवरण एवं विश्लेषण से स्पष्ट है कि भारत में पर्यावरण की अनेक ज्वलन्त समस्यायें हैं तथा पर्यावरण संकट दिनों-दिन अधिक होता जा रहा है और यह तथ्य सभी स्वीकार करते हैं कि अब वह समय आ गया है जब हमें पर्यावरण का न केवल संरक्षण करना है अपितु इसे और अधिक गुणवत्तापूर्ण बनाना है क्योंकि यह मात्र हमारे वर्तमान का प्रश्न नहीं है अपितु इसके साथ देश और समाज का भविष्य जुड़ा हुआ है और भविष्य के साथ खिलवाड़ करना उसे अंधकारमय बनाना होगा। इस तथ्य को आज की सरकार एवं नियोजनकर्त्ताओं ने स्वीकार कर लिया है और वे पर्यावरण नियोजन के प्रति सचेष्ट हैं। पर्यावरण नियोजन से तात्पर्य उन सभी प्रयासों से है जो पर्यावरण की रक्षा हेतु अथवा इनके सुधार हेतु किये जाते हैं। चाहे वे सुधार पर्यावरण सम्बन्धी कानून बना कर किये जायें या पर्यावरण चेतना जागृत करने सम्बन्धी हों अथवा पर्यावरण प्रबन्धन से उनका सम्बन्ध हो। संसाधनों का उचित उपयोग एवं संरक्षण भी पर्यावरण नियोजन का अंग है। पर्यावरण नियोजन के माध्यम से हम नियोजित रूप से क्रमिक प्रयास कर सकते हैं तथा उनका सही रूप में मूल्यांकन कर सकते हैं। भारत में पर्यावरण नियोजन की दिशा में जो कार्य किये गये, जो वर्तमान में किये जा रहे हैं तथा उनकी भविष्य में क्या दिशा होनी चाहिये इनका संक्षिप्त विवेचन अपेक्षित है-
पर्यावरण संरक्षण व सुरक्षा हेतु कानून:-
पर्यावरण के विविध पक्षों को कानून की परिधि में लेने तथा उनका अतिक्रमण करने वालों के विरुद्ध सजा अथवा जुर्माना का प्रावधान का वास्तविक स्वरूप भारत में स्वतन्त्रता के पश्चात् ही सामने आया। यद्यपि ब्रिटिश शासन के समय इंडियन पेनल कोड, 1860 की धारा 268, 290, 291, 426, 430, 431, 432 में पर्यावरण सम्बन्धी कतिपय पक्षों का सन्दर्भ है तथा धारा 277 ‘जल प्रदूषण’ और 278 ‘वायु प्रदूषण’ से सम्बन्धित है। इसी प्रकार मोटर वाहन एक्ट, 1938 में वाहन प्रदूषण तथा इण्डियन फारेस्ट एक्ट, 1927 में वनों को वर्गीकृत करने तथा वन्य जीवों के संरक्षण पर बल दिया गया है, किन्तु इन नियमों की ओर न कभी विशेष ध्यान दिया गया, न न्यायालय में ही कभी कोई गम्भीर मसला लाया गया। वास्तव में यह पर्यावरण के प्रति शासन एवं जनता की अपेक्षा ही थी, जिसका परिणाम पर्यावरण की क्षति में वृद्धि के रूप में आज का भारत भुगत रहा है।
स्वतन्त्रता के पश्चात् औद्योगिक विकास, परिवहन विकास, कृषि विकास और जनसंख्या वृद्धि से जब पर्यावरण का तीव्र विनाश होने लगा तो भारतीय संविधान के अन्तर्गत इसे संरक्षित करने के अनेक कदम उठाये गये और यह कार्य आज भी जारी है। विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों को रोकने हेतु निम्न अधिनियम बनाये गये-
1.दामोदर घाटी निगम नियमन, एक्ट, 1948
2.नदी बोर्ड एक्ट, 1956
3.जलयान एक्ट, 1970
4.जल संरक्षण एवं प्रदूषण नियन्त्रण एक्ट, 1974 एवं 1977
5.आणविक शक्ति एक्ट, 1962
6.रेडियोधर्मी रक्षा नियम, 1971
इस दिशा में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम संविधान में 42 वें संशोधन द्वारा उठाया गया जिसे 1977 में पास किया गया, जिसे विश्व के संविधान में ऐतिहासिक माना जाता है क्योंकि इसके द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा हेतु विस्तृत प्रावधान किये गये हैं। इसके द्वारा अनुच्छेद 48A में राज्य एवं केन्द्र सरकार का यह उत्तरदायित्व माना गया है कि यह वे पर्यावरण की सुरक्षा करें, उसे उन्नत बनायें तथा देश के वन एवं वन्य जीवों की सुरक्षा करें। इसके साथ ही नागरिकों के कर्तव्य का भी अनुच्छेद 51 A(g) में उल्लेख किया गया है कि उनका कर्तव्य है कि वे पर्यावरण की सुरक्षा करें, उन्नत बनायें साथ ही वन, झीलों, नदियों, वन्य जीवों की सुरक्षा करें और जीवित प्राणियों पर दया रखें।
इसके अतिरिक्त समय-समय पर अनेक कानूनों के प्रावधानों को बदला गया, उनकी सीमा में वृद्धि की गई तथा उन्हें अधिक प्रभावशाली बनाया गया। 23 मार्च, 1974 को सम्पूर्ण देश के लिये प्रदूषण नियन्त्रण कानून पास किया गया, जिसके अन्तर्गत जल प्रदूषण-भौतिक, रसायनिक, जैविक को रोकने हेतु व्यवस्था की गई और इसके लिये उत्तरदायी व्यक्ति को तीन माह से सात वर्ष की कैद या एक हजार रुपये तक जुर्माने का प्रावधान किया गया। इसी प्रकार 29 मार्च, 1981 को वायु प्रदूषण नियन्त्रण एक्ट में संशोधन कर इसे व्यापक बनाया गया तथा दोषी व्यक्ति को तीन से छह माह की सजा अथवा अधिकतम दस हजार रुपये के जुर्माने या दोनों का प्रावधान किया गया है और फिर भी यदि वह यही अपराध पुनः करता है तो प्रतिदिन 100 रु० जुर्माने की व्यवस्था है। तात्पर्य यह है कि भारत सरकार पर्यावरण की रक्षा एवं उसकी उत्तमता बनाये रखने के लिये सचेष्ट है। इन कानूनी प्रावधानों के फलस्वरूप पर्यावरण सम्बन्धी अनेक प्रकरण न्यायालय में जाने लगे हैं। जैसे-जैसे नागरिकों में पर्यावरण के प्रति चेतना आ रही है। पर्यावरण संरक्षण हेतु नियम व्यापक होते जा रहे हैं। 1986 में एक विशद् कानून पास किया गया जिसमें सम्पूर्ण पर्यावरण के पक्षों को कानूनी परिधि में लिया गया है, यह एक व्यापक कानून है जिसका उद्देश्य देश के पर्यावरण की रक्षा करना है।
मंत्रालय, बोर्ड, प्रतिष्ठानों की स्थापना-:
पर्यावरण प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि, जन चेतना के विकास तथा पर्यावरण के प्रति देशव्यापी अभियान को गति प्रदान करने, देश में पर्यावरण सम्बन्धी नीति का निर्धारण करने तथा इसके नियोजन हेतु नवम्बर, 1980 में केन्द्रीय सरकार ने पर्यावरण विभाग की स्थापना की जिसे बाद में पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय बनाया गया। इसकी स्थापना का उद्देश्य देश के पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचाना उसका संरक्षण करना तथा पर्यावरण नियोजन का प्रारूप तैयार करना है।
इसी दिशा में केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की स्थापना की गई जिसका प्रमुख उद्देश्य जल तथा वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करने हेतु समुचित उपाय करना है, जिसमें प्रचार-प्रसार एवं जन जागृति के साथ- साथ इस दिशा में शोध कार्य करवाना भी सम्मिलित है। अनेक राज्यों ने भी अपने-अपने राज्यों में सामान्यतया जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण बोर्ड आदि की स्थापना की है।
पर्यावरण को विकृत होने से बचाने, उसके संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु आज देश में अनेक शोध संस्थान राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर पर कार्यरत हैं। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियान्त्रिक अनुसंधान संस्थान, नागपुर इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। परमाणु ऊर्जा आयोग, टाटा इन्स्टीट्यूट, विभिन्न तकनीकी संस्थान, इंजीनियरिंग संस्थान तथा विश्वविद्यालयों में आज पर्यावरण पर पर्याप्त शोध हो रहा है न केवल विज्ञान के क्षेत्र में अपितु अनेक सामाजिक संस्थान भी इस दिशा में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। विशेष समस्याओं को लेकर विशिष्ट दल अथवा निगम, बोर्ड, विभाग आदि स्थापित किये जाते हैं जैसे गंगा के शुद्धीकरण हेतु अभिकरण की स्थापना की गई। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि देश में पर्यावरण अभियान को आज अत्यधिक महत्त्व दिया जा रहा है। इन सबका उद्देश्य वर्तमान पर्यावरण को रक्षित कर भविष्य के लिये उसे सुरक्षित रखना तथा उसकी उत्तमता में सुधार करना है।
पर्यावरण संरक्षण एवं इसके प्रति जन चेतना जागृत करने में सरकारी एवं अर्द्ध-सरकारी प्रतिष्ठानों के अतिरिक्त गैर-सरकारी संगठनों की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। भारत में यह कार्य प्राचीन काल से ही अनेक धर्म-गुरुओं ने किया है। महावीर एवं बुद्ध का अहिंसा सिद्धान्त हो या विश्नोई समाज के प्रवर्तक सन्त जाम्भोजी का वृक्ष एवं जीव रक्षा का उद्बोधन, सभी पर्यावरण संरक्षण को महत्त्व देते हैं। वर्तमान में अनेक गैर-सरकारी संगठन एवं प्रतिष्ठान इस दिशा में कार्यरत हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 10. पर्यावरण प्रबन्धन का अर्थ बताइए।
अथवा
पर्यावरण प्रबन्धन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-पर्यावरण प्रबन्धन का अर्थ:-
रियोरडान के अनुसार, प्रबन्धन का अर्थ है विभिन्न वैकल्पिक प्रस्तावों में से उपयुक्त प्रस्ताव का विवेकपूर्ण चयन करना ताकि वह निर्धारित एवं इच्छित उद्देश्यों की पूर्ति कर सके। जहाँ तक सम्भव होता है प्रबन्धन के अन्तर्गत अल्पकालिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रणनीति बनायी जाती है परन्तु दीर्घ कालिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भी भरपूर व्यवस्था की जाती है। पर्यावरण प्रबन्धन को परिभाषित करना कठिन कार्य है क्योंकि पर्यावरण अपने आप में अत्यन्त जटिल संकल्पना है। पर्यावरण प्रबन्धन के उद्देश्य जटिल, विविध प्रकार के तथा परस्पर विरोधी होते हैं तथा वैकल्पिक रणनीतियाँ एक-दूसरे के विरुद्ध होती हैं।
पर्यावरण प्रबन्धन से तात्पर्य है पर्यावरण के विभिन्न घटकों के सन्तुलन को बनाये रखना। यह स्वपोषण तन्त्र एवं स्वयं नियमन को संचालित रखता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है जो अपरिवर्तनशील है। पर्यावरण स्वपोषण एवं स्व-नियमन शक्तियाँ अनवरत क्रियाशील रहती हैं जो अपरिवर्तनशील हैं। पर्यावरण स्वपोषण एवं स्व-नियमन प्राकृतिक तत्त्वों का उपभोग करते समय यह भूल जाता है कि वह कितनी मात्रा और किन तत्त्वों का किस प्रकार उपभोग करे ताकि प्राकृतिक तत्त्वों में सन्तुलन स्थापित रहे। पेड़ काटते समय वह यह कभी नहीं सोचता कि इनके न रहने से मिट्टी व हवा भी प्रभावित हो सकते हैं। जब प्राकृतिक तत्त्वों की गुणवत्ता ह्रसित होती है तो उसका प्रबन्धन आवश्यक हो जाता है। मानव प्रकृति की गोद में ही पलता है और उसका सम्पूर्ण जीवन-चक्र प्रकृति के नियमों से संचालित होता है। वह अपनी आवश्यकताएँ प्राकृतिक तत्त्वों का दोहन करके ही पूरी करता है। विकास की दौड़ में मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का इतना अधिक दोहन किया है कि पर्यावरण का स्व-नियमन या सन्तुलन भंग हो गया है। इससे अनेकों पारिस्थितिकीय समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। इसलिए पर्यावरण प्रबन्धन समय की माँग है।
आज पर्यावरण के प्रति जागरूक होना या पर्यावरण का बोध होना अति आवश्यक है। मात्र एक विशिष्ट समुदाय या समाज का पर्यावरण के प्रति जागरूक होना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए सामान्य जन चेतना प्रचार-प्रसार माध्यमों से जगानी चाहिए। संगोष्ठी, विचार-विमर्श, प्रदर्शनी, सामूहिक प्रदर्शन, द्रश्य-श्रव्य माध्यम, रेडियो वार्ताएँ, फिल्म शो आदि के माध्यम से प्रभावी कार्य किये जा सकते हैं।
डेनिस मीडोज (1971) के अनुसार, “पर्यावरण प्रबन्ध की संकल्पना पर्यावरण प्रारूप से सम्बन्धित है जो यह सुनिश्चित करती है कि पूँजी, वार्षिक कृषि निवेश तथा भूमि विकास में वृद्धि के साथ खाद्य पदार्थों की आपूर्ति में भी वृद्धि होगी। पर्यावरण प्रबन्धन का प्रारूप कारकों की इन सीमाओं, आने वाली चुनौतियों तथा समस्याओं से निपटने के लिए नीतियों को भी समाहित करता है।“
प्रश्न 11. पर्यावरण प्रबन्धन के अन्तर्गत आनेवाले पक्षों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-पर्यावरण प्रबन्धन के पक्ष:-
पर्यावरण प्रबन्धन के अन्तर्गत निम्नलिखित पक्षों को सम्मिलित किया जाता है- (i) सामाजिक- आर्थिक विकास, तथा (ii) पर्यावरण की गुणवत्ता का परिरक्षण करना। (iii) पर्यावरण बोध एवं जन- चेतना। (iv) अवक्रमित पर्यावरण का पुनर्जनन।, (v) पर्यावरण शिक्षा एवं प्रशिक्षण का इन्तजाम करना।
(vi) प्रस्तावित योजनाओं एवं कार्यक्रमों के पर्यावरणीय अधिप्रभाव का मूल्यांकन करना। (vii) पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण को नियन्त्रित करना। (viii) पर्यावरण के सन्दर्भ में उत्पादन की वर्तमान तकनीकी उपादेयता का पुनरीक्षण तथा समीक्षा करना। (ix) उत्पादन की प्रौद्योगिक में परिवर्तन तथा सुधार। (x) संरक्षण की तकनीकी का विकास। (xi) प्रतिरक्षा सम्बन्धी तकनीकी का विकास। (xii) प्राकृतिक आपदाओं व प्रकोपों के प्रभाव में न्यूनीकरण करना। (xiii) पर्यावरण संरक्षण हेतु वैधानिक नियमों एवं कानूनों की व्यवस्था करना।
प्रश्न 12. मानव पर्यावरण अन्तर्सम्बन्ध के उपागम।
उत्तर- मानव पर्यावरण अन्तर्सम्बन्ध के उपागम:-
- निश्चयवादी उपागम-यह उपागम ‘मानव पर्यावरण की उपज,’ ‘मानव प्रकृति का दास है,’ ‘पृथ्वी ने मानव को बनाया’ इत्यादि अवधारणाओं पर आधारित है। यह उपागम मानव के क्रियाकलापों पर भौतिक पर्यावरण के नियन्त्रण को स्वीकार करता है। अरस्तू, स्ट्रैबो, चार्ल्स डार्विन, हम्बोल्ट, कार्ल रिटर, रैटजेल, एलेन चर्चिन सेम्पुल, मांटेस्क्यू, डिमालिन्स, ल्सवर्थ हंटिंगटन प्रभृति विद्वानों ने मानव पर प्रकृति का नियंत्रण जोर देकर स्वीकार किया है। आज भी टुंड्रा प्रदेश में मानव के क्रिया-कलापों पर प्रकृति का पूर्ण नियन्त्रण देखने को मिलता है। आज भी जब ज्वालामुखी उद्गार होता है तब मानव उसे असहाय होकर देखता है। लखनऊ के सफेदा आम को मानव आज भी टुंड्रा प्रदेश में पैदा नहीं कर सकता है।
- सम्भववादी उपागम-यह उपागम इस अवधारणा पर आधारित है कि मानव अपने पर्यावरण में परिवर्तन व संशोधन कर सकता है या उसके साथ समायोजन कर लेता है। इस उपागम के समर्थक मानव को प्रकृति का नियन्ता या स्वामी मानते हैं। उनका कहना है कि प्रकृति ने अवसर प्रदान किया है। यह मानव का कार्य है कि वह उस अवसर का लाभ उठाता है अथवा नहीं। जैसे प्रकृति ने भूमध्य सागर व लालसागर को प्रदान किया है। यह मानव का कार्य है कि वह दोनों सागरों के बीच स्थलीय भाग को काटकर स्वेज नहर का निर्माण करे। प्रकृति ने समुद्रों को प्रदान किया है। यह मानव का कार्य है कि वह जलयानों का विकास कर बाधक समुद्र को यातायात के लिए सस्ता व सुगम मार्ग के रूप में उपयोग करे। सर्वप्रथम केब्रे महोदय ने इस उपागम को जन्म दिया था। उनके अनुसार मनुष्य पशु नहीं है बल्कि वह एक भौगोलिक कारक है। जर्मन दार्शनिक हीगल, किरचाफ, विडाल डि-ला ब्लाश, जीन, बुंश, इसाइया बोमैन, कार्ल सावर इत्यादि विद्वान इस उपागम के समर्थक हैं। इस उपागम के कारण मानव नै प्रकृति का विदोहन प्रारम्भ किया है।
- नव निश्चयवादी उपागम-इस उपागम के प्रणेता ग्रिफिथ महोदय हैं। उनके अनुसार मानव न तो प्रकृति का दास है और न तो उसका स्वामी है और न तो मानव की कार्यक्षमता ही असीमित है। उन्होंने निश्चयवादी व संभववादी उपागमों के बीच की खाई कम करने का प्रयास किया है। उन्होंने निश्चयवाद को संशोधित कर ‘रुको और बढ़ो’ निश्चयवाद की संज्ञा प्रदान की है। टेलर ने मानव को पर्यावरण का स्वामी न मानकर उसकी तुलना बड़े नगर के चौराहे पर खड़े उस सिपाही से की है जो सड़क पर चलनेवाले वाहनों की गति को मन्द या तीव्र कर सकता है लेकिन उनकी दिशा को मोड़ नहीं सकता। जी. टायम का कहना है कि प्रकृति पर न तो विजय की भावना होनी चाहिए और न तो उसके सामने समर्पण का भाव होना चाहिए बल्कि प्रकृति के साथ सहयोग और साहचर्य की भावना होनी चाहिए। इस उपागम के अनुसार संसाधनों का उपयोग उस अंश तक किया जाना चाहिए जिस अंश तक प्रकृति सहयोग करने में सक्षम है।
प्रश्न 13. पर्यावरण भूगोल की परिभाषा बताइए। अथवा पर्यावरण भूगोल का अर्थ।
उत्तर-पर्यावरण भूगोल की परिभाषा:-
पर्यावरण भूगोल का मुख्य अध्ययन वस्तु मानव-पर्यावरण सम्बन्धों का अध्ययन है तथा इस विषय के अध्ययन का प्रमुख उपागम ‘पारिस्थितिक उपागम’ है। पारिस्थितिक उपागम के अन्तर्गत भूतल के प्राकृतिक पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकीय स्तर पर विकसित मानव के बीच अन्तर्सम्बन्धों के स्थानिक गुणों का पारिस्थितिक तंत्र के सन्दर्भ में अध्ययन किया जाता है। इस आधार पर सामान्य रूप में पर्यावरण भूगोल को सविन्द्र सिंह के शब्दों में निम्न रूप से पारिभाषित किया जा सकता है-
“पर्यावरण भूगोल सामान्य रूप से जीवित जीवों तथा प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य मुख्य रूप से प्रौद्योगिक स्तर पर विकसित आर्थिक मानव एवं उसके प्राकृतिक पर्यावरण के मध्य अन्तर्सम्बन्धों के स्थानिक गुणों का अध्ययन है।“
पर्यावरण भूगोल की परिभाषा को और अधिक विस्तृत किया जा सकता है ताकि यह इतनी लचीली तथा व्यापक हो सके कि इसके द्वारा पर्यावरण भूगोल के विषय-क्षेत्र को भी प्रदर्शित किया जा सके।
पर्यावरण भूगोल की निम्न परिभाषा प्रस्तुत है-
‘पर्यावरण भूगोल’ भूगोल की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत प्राकृतिक पर्यावरण तंत्र के विभिन्न संघटकों की विशेषताओं, संघटन एवं कार्यों, विभिन्न संघटकों की पारस्परिक निर्भरता, संघटकों को आबद्ध करनेवाले विभिन्न प्रक्रमों एवं प्रक्रियाओं, विभिन्न संघटकों की एक-दूसरे के साथ तथा आपस में अन्तर्प्रक्रियाओं के स्थानिक तथा कालिक सन्दर्भ में परिणामों; प्रौद्योगिकीय स्तर पर विकसित आर्थिक मानव एवं भूपारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न संघटकों के मध्य अन्तर्प्रक्रियाओं तथा उनसे भूपारि-स्थितिक तंत्र में उत्पन्न परिवर्तनों तथा उनसे जनित पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण और प्रदूषण नियंत्रण की तकनीकों एवं रणनीतियों तथा प्राकृतिक संसाधनों के प्रबन्धन का अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 14. पर्यावरण अध्ययन में भूगोल की भूमिका व महत्त्व क्या है?
उत्तर- पर्यावरण अध्ययन में भूगोल की भूमिका व महत्त्व:-
पर्यावरण का अध्ययन भूगोल का परम उद्देश्य है क्योंकि इसी के बलबूते पर मानवीय अनुक्रियाओं की विविधता एवं क्षेत्रीयता को जाना जा सकता है। भूगोल में पर्यावरण का अध्ययन स्थलमण्डल, जलमण्डल, वायुमण्डल और जीवमण्डल की उपशाखाओं में विभक्त करके किया जाता है। इन शाखाओं के तत्त्वों का मिश्रित प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है और स्वयं मानव इन तत्त्वों को प्रभावित भी करता है। मानव का पर्यावरण के तत्त्वों पर बढ़ता दबाव पर्यावरण के गुणात्मक ह्रास का कारण बनता जा रहा है। पर्यावरण अवमानना का परिणाम मानव सहित अन्य जीवधारियों के लिए कठिन प्रमाणित होने लगा है। इस स्थिति से निपटने के लिए पर्यावरण का संरक्षण और विकास आवश्यक हो गया है। अतः पर्यावरण के अध्ययन का उद्देश्य बहुआयामी और विस्तृत होता जा रहा है। आज विविध वर्गों के विज्ञानी पर्यावरण अध्ययन में जुटने लगे हैं जिसके कारण यह अन्तर्विषयक बन गया है।
पारिस्थितिकी की समस्याओं के उभड़ने के बाद पर्यावरण का अध्ययन अधिक जोर पकड़ता जा रहा है क्योंकि पहले इसे प्रकृति की जिम्मेदारी समझा जाता था। भौगोलिक अध्ययन में इसकी महत्ता प्राचीन काल से बनी हुई है। आज पर्यावरण अध्ययन के दो प्रमुख आधार हैं- (1) पर्यावरण के तत्त्वों और जीवों का अन्तःसम्बन्ध एवं (2) पर्यावरण की अवमानना से उत्पन्न समस्याएँ तथा उनका समाधान। यह बताया जा चुका है कि पर्यावरण के प्रभाव को लेकर प्रकृतिवाद की अवधारणा भूगोल में वैचारिक मंथन का आधार है। पर्यावरण की अवमानना आधुनिक युग में इतनी प्रबल है कि आज मानव सहित अन्य जीवों के समक्ष संकट स्थिति की उत्पन्न हो गयी है। इस संकट का सबसे बड़ा कारण स्वयं मनुष्य है। मानव समाज और पर्यावरण का बिगड़ता सम्बन्ध महाप्रलय का कारण बन सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि उद्योग एवं अन्तरिक्ष कार्यक्रम के फलस्वरूप वायुमण्डल में ऐसी जहरीली गैसें इकट्ठी हो रही हैं जो ओजोन गैस की परत को विनष्ट कर रही हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो ओजोन की छतरी सूर्य की पराबैंगनी किरणें सोखने में असमर्थ हो जाएगी। फलस्वरूप पृथ्वी के धरातल पर इनका सीधा आगमन सभी जीवों को झुलसा कर नष्ट कर देगा। इसी प्रकार वायुमण्डल में कार्बन डाइ आक्साइड का बढ़ता प्रतिशत तापमान को बढ़ायेगा जिसके कारण मौसम और जलवायु अनेक विपत्तियों को सृजित करेगी। अस्तु पर्यावरण का अध्ययन एक सामयिक आवश्यकता है।
प्रश्न 15. पर्यावरण के प्रकार।
उत्तर-पर्यावरण भौतिक एवं जैविक संकल्पना है। पर्यावरण की इस आधारभूत संरचना के आधार पर पर्यावरण को दो प्रकारों में विभक्त किया जाता है- (i) अजैविक या भौतिक पर्यावरण तथा (ii) जैविक पर्यावरण। भौतिक विशेषताओं तथा दशा के आधार पर अजैविक या भौतिक पर्यावरण को तीन प्रमुख श्रेणियों में विभक्त किया जाता है- (i) ठोस दशा, (ii) तरल दशा, (iii) वायव्य दशा। ये तीनों दशाएँ क्रमशः स्थलमण्डल, जलमण्डल तथा वायुमण्डल का प्रतिनिधित्व करती हैं। जैविक पर्यावरण को दो भागों में विभक्त किया जाता है- (i) वानस्पतिक पर्यावरण, (ii) जन्तुपर्यावरण। सभी जीवधारी अपने विभिन्न स्तरीय सामाजिक समूह तथा संगठन की रचना हेतु कार्य करते हैं। इस प्रकार सामाजिक पर्यावरण का आविर्भाव होता है। इसका सामाजिक संगठन सर्वाधिक नियमित एवं व्यवस्थित होता है।
प्रश्न 16. भारत में पर्यावरण चेतना।
उत्तर-पर्यावरण चेतना से तात्पर्य उस ज्ञान अथवा बोध से है जो प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती है। आज पर्यावरणीय चेतना के अभाव में जल, वायु, मिट्टी और वनस्पति तक प्रदूषित हो रहे हैं जो मानव जीवन के आधार होते हैं। पर्यावरण जीवधारियों का आश्रय स्थल ही नहीं, उनका साथी भी है। भारतीय मनीषियों ने हजारों वर्ष पूर्व प्राकृतिक व्यवस्था को बनाये रखने का मार्ग सुझाया था। भारत में पर्यावरण के तत्त्वों में धरती या मिट्टी को माँ (धरती माँ), पेड़ को देवता (तरु देव), जीव को ईश्वर का अंश, जल को (वरुण देव), हवा को (मारुत देव) तथा जलवायु को ‘इन्द्रदेव’ माना जाता रहा है। संसार की प्राचीनतम पुस्तक ऋग्वेद में वनों को समस्त सुखों का स्त्रोत कहा गया है। ऋग्वेद के अनुसार जिस घर में तुलसी का पौधा बार-बार मुरझा जाये अथवा न लगे वहाँ का पर्यावरण प्रदूषित होता है। मत्स्य पुराण में वृक्षारोपण को पुण्य हेतु इस प्रकार आदेशित किया गया है कि जो एक तालाब बनवायेगा उसे दस कुँआ बनाने का पुण्य प्राप्त होगा। किन्तु जो एक वृक्ष लगायेगा उसे तालाब बनाने का पुण्य मिलेगा। वृहदारण्य में पृथ्वी को माँ तथा मानव को उसका शिशु कहा गया है तो वृक्ष को माँ के पोषणकारी स्तनों की तरह जो समस्त जन्तुओं तथा मानव शिशु को भोजन, पानी, वस्त्र-ऊर्जा और ऊष्मा निःशुल्क देते हैं। आजादी के बाद भारत में अनेक पर्यावरण संरक्षण हेतु आन्दोलन किये गये। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छता अभियान भी एक राष्ट्रीय आन्दोलन है।
प्रश्न 17. पर्यावरण प्रबन्धन के आयामों की विवेचना कीजिए।
उत्तर- पर्यावरण प्रबन्धन के आयाम:-
पर्यावरण नियोजन या प्रबन्धन के निम्न आयाम हैं-
(1).पर्यावरण बोध एवं जन–चेतना–मनुष्य जन्म से ही पर्यावरण के तत्त्वों के सम्पर्क में आता है। वह ग्रीष्म, शीत, वर्षा, हवा, बाढ़, भूकम्प, सूखा, जल, वनस्पति, पशु–पक्षियों आदि विविध प्राकृतिक तत्त्वों से परिचित होता है। प्राकृतिक तत्त्वों की तुलना में मानव अधिक वाचाल होता है। वह अल्पकालीन लाभों के लिए प्रकृति का अन्धाधुंध दोहन करने लगता है। वह अल्पकाल में तीव्र प्रगति करना चाहता है। वह जब पर्यावरण की अवहेलना करता है तो कई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। अतः मानव को जागृत करने की आवश्यकता पर्यावरण प्रबन्धन का प्रमुख आयाम है। जब लालची ग्वाला गाय का दूध निकालते समय यह भूल जाय कि उसका बछड़ा भी है तो बछड़ा स्वस्थ कैसे रह सकता है ? आज अनेक विकसित देशों ने अपने पर्यावरण के घटकों के साथ ऐसा ही व्यवहार किया है। इसलिए आज पर्यावरण बोध एवं जन-चेतना की आवश्यकता महसूस हो रही है। पर्यावरण बोध पर्यावरण पहचान से आता है। पर्यावरण बोध उस जागरूकता एवं भविष्य दृष्टा गुण को कहते हैं जो मनुष्य में प्रकृति प्रेम और संवर्द्धन की प्रवृत्ति को जाग्रत कर उसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनाये रखता है। भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों तथा संन्यासियों को पीपल, बरगद, तुलसी, नीम, आम, केला, कुश, दूब घास आदि वनस्पतियों के पर्यावरणीय गुणों का बोध था। वे इनकी पूजा करते थे। लेकिन आज मनुष्य ‘तरु देवो भव’ अर्थात् ‘पेड़ों का पुजारी’ होने के बजाय तरुओं का विनाशक बन गया है।
(2).पर्यावरणीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण पर्यावरण नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण आयाम पर्यावरणीय शिक्षा एवं प्रशिक्षण से जुड़ा हुआ है। पर्यावरणीय शिक्षा और प्रशिक्षण जन–चेतना जगाने में सहायक होती है। जल प्रबन्ध, वृक्षारोपण, प्रदूषण निदान, मलमूत्र–उपचार, औद्योगिक अपशिष्टों का शोधन, यातायात नियंत्रण, सूचना सहायता जैसे कार्य प्रशिक्षण के प्रमुख रूप हैं। पर्यावरणीय शिक्षा की चेतना 1972 ई० में स्टाकहोम संगोष्ठी से प्रारम्भ हुई है। पर्यावरणीय शिक्षा को पर्यावरणीय अध्ययन का नाम भी दिया जाता है।
(3).शोध या अनुसंधान–पर्यावरण प्रबन्धन के उचित संचालन के लिए पर्यावरणीय समस्याओं से सम्बन्धित शोध कार्य आवश्यक है। प्राकृतिक विपदाओं, बाढ़ों, अकाल, सूखा, महामारी, भूकम्प, तूफान, हरीकेन आदि घटनाओं तथा वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, नाभिकीय प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण आदि महत्त्वपूर्ण समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए निरन्तर शोध एवं अनुसंधान पर बल देना भी पर्यावरण प्रबन्धन का महत्त्वपूर्ण आयाम है।
प्रश्न 18. जलीय चक्र पर प्रकाश डालिए। अथवा जलीय चक्र की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-जलीय चक्र:-
जीवमण्डल में जीवित जीवों के अस्तित्त्व के लिए आक्सीजन, कार्बन तथा हाइड्रोजन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व होते हैं क्योंकि ये जैविक पदार्थों के शुष्क वजन का लगभग 90 प्रतिशत भाग का निर्माण करते हैं। इनमें से जल के रूप में हाइड्रोजन तथा आक्सीजन सम्मिलित रूप से समस्त जीवों के सकल भार के 80.5 प्रतिशत भाग का प्रतिनिधित्व करते हैं। जीवमण्डल में हाइड्रोजन का निवेश जल के रूप में होता है अतः इस तत्त्व के चक्र को जलीय चक्र के रूप में व्यक्त किया जाता है। जीवमण्डल में जल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है। इसका निर्माण हाइड्रोजन के दो एटम (H₂) तथा आक्सीजन के एक एटम (0) के मिलने से होता है (H,O)। यह तत्त्व जीवमण्डल में अत्यधिक मात्रा में मिलता है यद्यपि इसके स्थानिक वितरण में पर्याप्त विभिन्नतायें पायी जाती हैं। जल विभिन्न रूपों में पाया जाता है यथा (1) गैसीय या वाष्प रूप में (जलवाष्प तथा आर्द्रता), (2) ठोस रूप में (हिम) तथा (3) तरल रूप में (जल)। जल विभिन्न अवस्थितियों में पाया जाता है यथा-झील, नदी, सागर एवं महासागर, भूमिगत जल, धरातलीय शैलों एवं मिट्टियों में भण्डारित जल, जीवित जीवों एवं जैविक पदार्थों में तरल रूप में, वायुमण्डल में जलवायु के रूप में, उच्च अक्षांशों (ध्रुवीय क्षेत्रों) तथा उच्च पर्वतीय भागों में, हिम के रूप में आदि। जल जीवमण्डल में जीवों के लिए एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है क्योंकि (i) यह प्रायः सभी तत्त्वों को घुलाने में समर्थ होता है, (ii) यह ऊष्मा को भण्डारित करने की अधिक क्षमता रखता है, (iii) यह विभिन्न जीवों (पौधे तथा जन्तु) के पोषण में भरपूर सहयोग करता है, (iv) यह जीवमण्डल में तत्त्वों के संचरण में सहायक होता है।
धरातल पर प्राप्त होने वाली जलवर्षा का एक बड़ा भाग प्रभावी स्थल प्रवाह का रूप धारण कर लेता है। धरातलीय सतह पर फैलकर बहने वाले जल को वाहीजल भी कहते हैं। यह भू-सतह के नीचे अन्ततः नदियों में मिल जाता है। वर्षा के जल के कुछ भाग का भूसतह के नीचे अन्तःसंचरण हो जाता है जो मिट्टियों में भण्डारित होता है। मृदा में स्थित इस जल के भण्डार को मृदा जल भण्डार कहते हैं। इस मृदा जल भण्डार से कुछ जल का वाष्पीकरण द्वारा तथा कुछ जल का पौधों से वाष्पोत्सर्जन द्वारा वायुमण्डल में क्षय हो जाता है। कुछ जल चश्मों एवं स्रोतों के रूप में पुनः सतह पर आ जाता है तथा मृदा जलभण्डार के कुछ जल का नीचे की ओर अन्तः संचरण हो जाता है। धरातल के नीचे भण्डारित इस जल के भण्डार को भूमिगत जल भण्डार कहते हैं। इस भूमिगत जल भण्डार से कुछ जल आधार प्रवाह के रूप में नदियों में पहुँच जाता है, कुछ जल केशिका क्रिया द्वारा ऊपर उठता है तथा मृदा जल भण्डार से मिल जाता है तथा कुछ जल और नीचे चला जाता है। तथा गहराई में स्थित आधार शैलों में अवरुद्ध हो जाता है।
प्रश्न 19. कार्बन चक्र क्या है?
उत्तर- कार्बन चक्र:-
जीवमण्डल में कार्बन का विभिन्न मार्गों से गमन तथा संचरण होता है। इस संचरण के दौरान कार्बन के भण्डार तथा गमन की तीन प्रावस्थाएँ होती हैं- (i) गैसीय प्रावस्था-इस प्रावस्था के अन्तर्गत कार्बन (C) वायुमण्डल में गैस रूप (CO₂) में होता है। (ii) तरल प्रावस्था के अन्तर्गत कार्बन जल में घुली अवस्था में होती है। (iii) ठोस प्रावस्था के अन्तर्गत कार्बन ठोस रूप में होता है जो अवसादों, जीवाश्म ईंधनों तथा जैविक पदार्थों में भण्डारित होता है। जीवमण्डल में कार्बन के ठोस, तरल तथा गैसीय (CO₂) रूपों में संचरण का अत्यधिक महत्त्व होता क्योंकि जैविक पदार्थों के सकल शुष्क भार का 50 प्रतिशत भाग कार्बन का होता है। जीवमण्डल में कार्बन का गमन उर्जा-प्रवाह के साथ सम्बन्धित होता है।
वायुमण्डल में वर्तमान समय में कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का सान्द्रण वायुमण्डल के समस्त गैसीय संघटन का 0.033 प्रतिशत है जो 0.007 प्रतिशत कार्बन के बराबर है। वायुमण्डलीय कार्बन- डाइ-ऑक्साइड के सान्द्रण में लगातार वृद्धि हो रही है। यह अनुमान किया जाता है कि औद्योगिक क्रान्ति के प्रारम्भ (1860 ई0) में वायुमण्डल में CO, का सान्द्रण 290 p.p.m. या 0.029 प्रतिशत था। तब से वायुमण्डल में कार्बन की मात्रा में निरन्तर वृद्धि होती रही है और वर्तमान समय में यक मात्रा 330 p.p.m या 0.033 प्रतिशत हो गयी है। यह अनुमान किया जाता है कि विभिन्न उपयोगां के लिए जीवाश्म ईंधनों (कोयला, पीट, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस आदि) को जलाने के कारण वायुमण्डल में प्रतिवर्ष 5 से 6×10° टन की दर से कार्बन की अतिरिक्त मात्रा पहुँच रही है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वायुमण्डल में कार्बन की 2 से 3 p.p.m. प्रति वर्ष की दर से वृद्धि हो रही है।
प्रश्न 20. ऑक्सीजन चक्र को समझाइए।
उत्तर-ऑक्सीजन चक्र:-
जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तन्त्र में आक्सीजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है तथा यह जीवित जीवों के लिए एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है क्योंकि यह समस्त जीवों के जीवन को सम्भव बनाती है तथा उससे उत्पन्न भी होती है। आक्सीजन जीवमण्डल में अन्य तत्त्वों के संचरण तथा गमन में सहायक भी होती है। रासायनिक दृष्टि से आक्सीजन अत्यधिक सक्रिय होती है क्योंकि यह जीवमण्डल में स्थित अधिकांश तत्त्वों के साथ संयुक्त हो जाती है। जीवित जीवों के समस्त अणुओं के 70 प्रतिशत भाग का निर्माण ऑक्सीजन द्वारा ही होता है तथा यह कार्बोहाइड्रेट के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पौधों तथा जन्तुओं की श्वसन प्रक्रिया के लिए आक्सीजन की आवश्यकता होती है। अर्थात् पौधे तथा मानव सहित जन्तु आक्सीजन का साँस लेने के लिए प्रयोग करते हैं। पौधों द्वारा प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के दौरान आक्सीजन की आवश्यकता होती है। आक्सीजन प्रोटीन तथा चर्बी के निर्माण में भी सहायता करती है। जीवमण्डल में आक्सीजन चक्र अत्यन्त जटिल होता है क्योंकि आक्सीजन के रासायनिक रूप कई तरह के होते हैं यथा-आणविक आक्सीजन जल, कार्बन-डाइ-आक्साइड, विभिन्न अकार्बनिक यौगिक यथा-आक्साइड्स, कार्बोनेट्स आदि। अर्थात् आक्सीजन कई रासायनिक रूपों में विद्यमान होती है।
आक्सीजन चक्र के अन्तर्गत स्थलीय तथा सागरीय जीवों द्वारा प्रकाशसंश्लेषण के समय जनित आक्सीजन तथा ज्वालामुखी उद्भेदन के समय CO, एवं H₂O के रूप में निकली आक्सीजन का वायुमण्डलीय आक्सीजन भण्डार में प्रवेश होता है तथा सागरीय एवं स्थलीय जन्तुओं द्वारा श्वसन, खनिजों के आक्सीकरण तथा लकड़ियों और जीवाश्म खनिजों के जलने में वायुमण्डलीय आक्सीजन भण्डार से आक्सीजन खर्च होती है और इस आक्सीजन का चक्रण चलता रहता है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न:-
प्रश्न 21. नाइट्रोजन चक्र क्या है?
उत्तर– जीवमण्डल में नाइट्रोजन का सभी प्रकार के जीवों (पौधों, मानव सहित जन्तुओं तथा वियोजक सूक्ष्म जीवों) के लिए महत्त्व होता है क्योंकि यह एमिनो एसिड का एक आवश्यक भाग होती है तथा जीवों में प्रोटीन के निर्माण में एमिनो एसिड की आवश्यकता होती है। “पौधों तथा जन्तुओं के सम्बर्द्धन के लिए नाइट्रोजन की यौगिक के रूप में आवश्यकता होती है। यद्यपि वायुमण्डल में नाइट्रोजन सर्वाधिक मात्रा (वायुमण्डल के समस्त गैसीय संघटन का 78 प्रतिशत) में पायी जाती है, परन्तु जीवित जीव इनका प्रत्यक्ष उपभोग नहीं कर पाते हैं।“
प्रश्न 22. पर्यावरण बोध।
उत्तर-पर्यावरण बोध से तात्पर्य है पर्यावरण को सही ढंग से समझना अर्थात् पर्यावरण के प्रति हमारी चेतना से है। मनुष्य की चेतना जन्म से ही पर्यावरण के प्रति जाग्रत हो जाती है, क्योंकि मानव स्वयं पर्यावरण की ही देन है। मानव जन्म से ही पर्यावरण के साथ समायोजन करने लगता है और उसका यह समायोजन प्रकृति के साथ परिवार एवं समाज के रूप में होता है। जब मनुष्य बड़ा होकर जन्मदाता प्रकृति का ही शोषण करने लगता है तो पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हुई। फलतः मानव में नई चेतना जाग्रत हुई कि इस तरह हमारा अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, अतः उसमें पर्यावरण के प्रति एक नया अवबोध पैदा हुआ कि पर्यारण का संरक्षण होना चाहिए। इसी समझ को पर्यावरण बोध कहते हैं।
प्रश्न 23. पर्यावरण के संघटक ।
उत्तर-पर्यावरण के संघटकों को तीन प्रमुख प्रकारों में विभक्त किया गया है-
(i).भौतिक या अजैविक (जल, स्थल, वायु, मृदा आदि), (ii) जैविक घटक (पौधों एवं जन्तु), (iii) ऊर्जा संघटक (सौर्थिक या भूतापीय ऊर्जा)। जैविक संघटक के अन्तर्गत 3 प्रमुख उपसंघटक आते हैं-पादप संघटक, जन्तु संघटक तथा सूक्ष्म जीव संघटक ।
इकाई-1(II) पारिस्थितिकी और पारिस्थितिकी तंत्र
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जैव मण्डल की एक पारिस्थितिकी तन्त्र के रूप में विवेचना कीजिए।
अथवा
पारिस्थितिक तंत्र को परिभाषित कीजिए। पारिस्थितिक तंत्र की अवधारणा, संरचना एवं कार्य की विस्तृत विवेचना कीजिए।
अथवा
आहार-श्रृंखला क्या है? यह किस प्रकार ऊर्जा प्रवाह में सहायक होती है?
अथवा
पारिस्थितिक तंत्र की अवधारणा और इसकी विशेषताओं की विवेचना कीजिएl
अथवा
पारिस्थितिक तंत्र के अर्थ की व्याख्या कीजिए तथा इसकी कार्य-प्रक्रिया को समझाइए।
पारिस्थितिक तंत्र की अवधारणा (संकल्पना ):-
अब तक ज्ञात अन्तरिक्ष में सम्भवतः पृथ्वी ही ऐसा खगोलीय पिण्ड है, जहाँ स्थलमण्डल, जलमण्डल एवं वायुमण्डल की अनुकूल दशाएँ उपलब्ध होने से जीवमण्डल का विकास हो पाया। पृथ्वी के जीव-जगत तथा भौतिक पर्यावरण के मध्य पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया होती रहती है। जीवों (वनस्पति एवं प्राणी) तथा उनके पर्यावरण के पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं।
किसी भी क्षेत्र में पाये जाने वाले समुदाय और पर्यावरण के कारक, संरचना एवं कार्य की दृष्टि से एक तन्त्र के रूप में कार्य करते हैं, जिसे पारिस्थितिक तन्त्र कहते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र या ‘Ecosystem’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अंग्रेज पारिस्थितिकीविद् ए. जी. टान्सले ने 1935 में प्रकाशित ग्रन्थ ‘Ecology’ में किया। ‘Eco’ एवं ‘System’ शब्दों से मिलकर बने Ecosystem का अर्थ है घर एवं व्यवस्था। इसके लिए विद्वानों द्वारा अन्य शब्दों का भी प्रयोग किया गया, किन्तु सर्वाधिक ग्राह्यता पारिस्थितिक तन्त्र को ही मिली।
पारिस्थितिक तन्त्र की परिभाषा:-
पारिस्थितिक तंत्र को अनेक विद्वानों ने परिभाषित किया है-
1.ए. जी. टान्सले के शब्दों में, “वातावरण के समस्त जैविक एवं अजैविक कारकों के एकीकरण के फलस्वरूप निर्मित तन्त्र पारिस्थितिक तन्त्र कहलाता है।“
2.एफ. आर. फॉसबर्ग के शब्दों में, “पारिस्थितिक तन्त्र एक ऐसा कार्यशील एवं परस्पर क्रियाशील तन्त्र होता है, जिसका संघटन एक या अधिक जीवों तथा उनके पर्यावरण से होता है।“
3.ई. पी. ओडम के अनुसार, “कोई इकाई जिसमें निहित क्षेत्र विशेष के समस्त जीव अपने भौतिक पर्यावरण से अन्योन्यक्रिया क्रिया करते करते हैं, जिससे कि ऊर्जा का प्रवाह बना रहे तथा व्यवस्थित रूप से सजीवों व निर्जीवों के मध्य पदार्थों का विनिमय होता हो, वही एक पारिस्थितिक तन्त्र होता है।“
सारांश रूप में कह सकते हैं कि एक क्षेत्र विशेष में विकसित वह व्यवस्था जिसमें विभिन्न प्रकार के जीव अजैविक तत्त्वों से अन्योन्यक्रिया करके विकसित होते हैं, पारिस्थितिक तन्त्र कहते हैं। समस्त पृथ्वी जिस पर जैविक व अजैविक घटक निरन्तर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं, एक वृहद् पारिस्थितिक तन्त्र है। अन्य शब्दों में, जीवमण्डल भी एक वृहद् एवं आधारभूत पारिस्थितिक तन्त्र है।
पारिस्थितिक तंत्र के प्रकार:-
जीवमण्डल में अनेक प्रकार के पारिस्थितिक तन्त्र कार्यरत हैं। पारिस्थितिक तन्त्र की इकाई का आकार एक छोटे तालाब से लेकर बड़ी झील या महासागर तक तथा एक खेत से लेकर द्वीप व महाद्वीप तक हो सकता है। अर्थात् इसके फैलाव की कोई निर्धारित सीमा नहीं है। पारिस्थितिक तन्त्रों को विभिन्न आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। वातावरण के आधार पर पारिस्थितिक तन्त्रों को दो भागों में विभक्त किया जाता है-
1.प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र, 2. कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र ।
1.प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र-ऐसे तन्त्र प्रकृति में मानव हस्तक्षेप के बिना स्वतः ही प्राकृतिक अवस्थाओं के अनुसार बनते हैं। आवास की भिन्नता के आधार पर प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्रों को दो भागों में विभक्त किया जाता है-
(i).स्थलीय पारिस्थितिक तन्त्र-स्थल पर पाये जाने वाले पारिस्थितिक तन्त्र, जैसे-पर्वत, पठार, वन-क्षेत्र, घास के मैदान, मरुस्थल आदि इसमें सम्मिलित हैं।
(ii).जलीय पारिस्थितिक तन्त्र-जल में पाये जाने वाले पारिस्थितिक तन्त्र इसमें सम्मिलित हैं, जैसे- नदी, तालाब व समुद्र। जल के मीठेपन व खारेपन के आधार पर इन्हें पुनः दो भागों में विभक्त किया जाता है-
A.ताजा (मीठा) जल पारिस्थितिक तन्त्र-इसमें ताजा जल या मीठे जल में पाये जाने वाले पारिस्थितिक तन्त्र आते हैं। ताजा जल भी दो अवस्थाओं में पाया जाता है- बहता हुआ तथा ठहरा हुआ। बहते हुए जल में नदी, धारा, झरना, सोता तथा स्थिर जल में तालाब, झील, तलैया आदि पारिस्थितिक तन्त्र आते हैं।
B.सागरीय (खारा) जल पारिस्थितिक तन्त्र खारे जल में पाये जाने वाले पारिस्थितिक तन्त्र जैसे-समुद्र, महासागर, नदी मुहाना, प्रवाल भित्ति, समुद्र तट आदि इसमें सम्मिलित हैं।
2.कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र मानव द्वारा निर्मित व नियन्त्रित पारिस्थितिक तन्त्र को कृत्रिम या अप्राकृतिक तन्त्र कहते हैं। मानव अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बौद्धिक स्तर के पर्यावरण में परिवर्तन करता है तथा कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र का निर्माण करता है। खेत, उद्यान, वन, फलोद्यान, बांध, नहर, चरागाह आदि मानव निर्मित या कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र के उदाहरण हैं।
पारिस्थितिक तंत्र की संरचना व विशेषताएँ:-
कोरमॉण्डी के शब्दों में, “किसी क्षेत्र विशेष में पाये जाने वाले अजैविक भौतिक रासायनिक पर्यावरण तथा पादप, जन्तु व सूक्ष्म जीवों का समूह मिलकर एक पारिस्थितिकीय व्यवस्था या पारिस्थितिक तन्त्र की रचना करते हैं।“ पारिस्थितिक तन्त्र की संरचना से तात्पर्य उसके जैविक समुदाय के गठन, अजैविक पदार्थों की मात्रा तथा जलवायु सम्बन्धी कारकों से है। इसके अन्तर्गत विभिन्न पादप व जन्तु जातियाँ, संख्या, वितरण, जैव भार, पोषक तत्त्व, जल, वायु, तापक्रम, आदि तत्त्व सम्मिलित हैं।
प्रत्येक पारिस्थितिक तन्त्र की संरचना दो प्रकार के घटकों से होती है, जैविक घटक तथा अजैविक घटक।
जैविक घटक-इसमें सभी जीवधारियों को सम्मिलित किया जाता है। पारिस्थितिक तन्त्र में जन्तु एवं पादप समुदाय साथ-साथ रहते हैं, जो किसी-न-किसी प्रकार से परस्पर सम्बद्ध होते हैं। लिण्डमेन ने इस सम्बन्ध में 1942 ई० में अपनी संकल्पना प्रस्तुत करते हुए बताया कि विभिन्न प्रकार के जीवों के परस्पर सम्बन्धों का आधार भोजन है। एक पारिस्थितिक तन्त्र के जैविक घटक उसकी पोषक संरचना को दर्शात हैं। पोषण सम्बन्धों की दृष्टि से जैविक घटकों को तीन भागों में विभक्त किया जाता है- उत्पादक, उपभोक्ता तथा अपघटक।
उत्पादक-पारिस्थितिक तन्त्र के वे सभी सजीव घटक जो सूर्य की ऊर्जा के प्रयोग से प्रकाश- संश्लेषण व रसायन संश्लेषण क्रिया द्वारा अपने पोषण हेतु भोजन का निर्माण स्वयं करते हैं, उत्पादक कहलाते हैं। अपना पोषण स्वयं करने में सक्षम होने के कारण इन्हें स्वपोषी कहते हैं। हरित लवक युक्त हरे पादपों तथा प्रकाश-संश्लेषी व रसायन संश्लेषी जीवाणुओं में यह क्षमता होती है। ये विभिन्न जीव- जन्तुओं द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भोजन के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं। प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक स्थितिज ऊर्जा में परिवर्तित कर जटिल कार्बनिक पदार्थों का निर्माण करने के कारण इन्हें उत्पादक कहा जाता है।
उपभोक्ता-इसके अन्तर्गत वे समस्त सजीव आते हैं, जो अपना पोषण स्वयं करने की क्षमता न होने के कारण भोजन के लिए पादपों व अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं। इसी कारण इन्हें पारिस्थितिक तन्त्र के परपोषी घटक कहते हैं। ये अपने पोषण के लिए उत्पादकों द्वारा तैयार संश्लेषित भोजन का उपभोग करते हैं, अतः उपभोक्ता कहलाते हैं। उपभोक्ता जीवों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में रखा जाता है-
(1).प्राथमिक उपभोक्ता- इसमें हरे पादपों अर्थात् उत्पादकों से भोजन प्राप्त करने वाले समस्त शाकाहारी जीव आ जाते हैं, जैसे-गाय, भैंस, बकरी, हिरन, खरगोश, हाथी, टिड्डा आदि। पौधों में संचित ऊर्जा के प्रथम उपभोक्ता होने के कारण इन्हें प्राथमिक उपभोक्ता कहते हैं। इन्हें द्वितीयक उत्पादक भी कहा जाता है, क्योंकि ये मांसाहारी जन्तुओं का भोजन बनाते हैं।
(2) द्वितीयक उपभोक्ता-इसमें वे मांसाहारी जींव सम्मिलित हैं, जो प्राथमिक उपभोक्ताओं अर्थात् शाकाहारी जन्तुओं को भोजन के रूप में प्रयुक्त करते हैं, जैसे-शेर, लोमड़ी, मेढक, छिपकली आदि।
(3) तृतीयक उपभोक्ता- इस श्रेणी में वे मांसाहारी जीव आते हैं, जो अन्य मांसाहारी जन्तुओं या द्वितीयक उपभोक्ता से अपना भोजन प्राप्त करते हैं, जैसे-सांप, गिद्ध, बाज, शेर आदि। इन्हें उच्च उपभोक्ता भी कहते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र में कुछ सर्वाहारी या सर्वभक्षी जीव हैं, जो अपना भोजन पादपों, शाकाहारियों व मांसाहारियों से प्राप्त करते हैं, जैसे-पक्षी, मछली, बिल्ली आदि। स्वयं मानव भी इसी श्रेणी में आता है।
अपघटक-इसे मैक्रो उपभोक्ता भी कहा जाता है। ये पादप एवं पशु दोनों के मृत जैव पदार्थों के अपघटक तैयार करते हैं। ये अपघटक तालाब के जीवाणु, पोषक पदार्थों और चल रहे जैव भौगोलिक रासायनिक चक्र के विरुद्ध खनिज तत्त्वों की वापसी में सहायता करते हैं।
पारिस्थितिक तन्त्र के कार्य:-
पारिस्थितिक तन्त्र सदैव क्रियाशील रहता है। इसके क्रियात्मक स्वरूप या कार्य प्रणाली का सम्बन्ध पोषकता प्रवाह, ऊर्जा प्रवाह तथा खनिज प्रवाह से है। विभिन्न पदार्थों का प्रवाह एक चक्र के रूप में होता है। आवश्यकतानुसार सजीव विभिन्न तत्त्वों को जलमण्डल, स्थलमण्डल तथा वायुमण्डल से ग्रहण करते हैं और कुछ समय बाद पुनः इन मण्डलों में मुक्त कर देते हैं। इस प्रकार के चक्र में जैविक एवं अजैविक दोनों ही प्रकार के घटक निरन्तर क्रियाशील रहते हैं, अतः इसे जैव-भू-रासायनिक चक्र कहते हैं। एक पारिस्थितिक तन्त्र की कार्य प्रणाली को समझने के लिए उसकी खाद्य श्रृंखला, पारिस्थितिक पिरामिड, खनिज पदार्थों के चक्रीकरण तथा ऊर्जा प्रवाह को समझना आवश्यक है।
खाद्य श्रृंखला:-
खाद्य श्रृंखला या भोजन श्रृंखला विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का एक क्रम है जिसके द्वारा एक पारिस्थितिक तन्त्र में खाद्य ऊर्जा का प्रवाह होता है पारिस्थितिक तन्त्र में खाद्य श्रृंखला का विचार लिण्डमन ने 1942 ई० में प्रस्तुत किया है। हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण की सहायता से भोजन का निर्माण करते – हैं, जिसका उपयोग प्राथमिक उपभोक्ता अर्थात् शाकाहारी जीव करते हैं। प्राथमिक उपभोक्ताओं का द्वितीयक उपभोक्ता (मांसाहारी) एवं द्वितीयक उपभोक्ताओं का तृतीयक उपभोक्ता भोजन के रूप में उपयोग करते हैं। उदाहरणार्थ, एक घास स्थल पारिस्थितिक तन्त्र की खाद्य श्रृंखला में पादप, शाकभक्षी व मांसाहारी आते हैं।
खाद्य श्रृंखला का प्रत्येक स्तर पोषण स्तर या ऊर्जा स्तर कहलाता है। इस श्रृंखला के एक सिरे पर हरे पौधे अर्थात् उत्पादक होते हैं तथा दूसरे सिरे पर अपघटक होते हैं। इनके मध्य विभिन्न स्तर के उपभोक्ता होते हैं। प्रत्येक पोषण स्तर में ऊर्जा प्रवाह में कमी होती जाती है। अतः खाद्य श्रृंखला जितनी छोटी होगी, उतनी ही अधिक ऊर्जा मूल उत्पादक से उपभोक्ता को प्राप्त होगी। एक पारिस्थितिक तन्त्र में अनेक भोजन श्रृंखलाएँ होती हैं, जो किसी स्तर पर परस्पर सम्बन्धित भी हो सकती हैं।
खाद्य-जाल:-
एक जीव, एक से अधिक पोषण स्तरों के जीवों से अपने भोजन की पूर्ति कर सकता है। इसी प्रकार किसी जीव को अनेक जीवों द्वारा भोजन बनाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में पारिस्थितिक तन्त्र में एक से अधिक खाद्य श्रृंखलाएँ किसी-न-किसी क्रम में परस्पर सम्बद्ध होकर एक जटिल जाल बना लेती हैं, जिसे खाद्य-जाल कहते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र का स्थायित्व एवं सन्तुलन बनाए रखने में खाद्य-जालों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। खाद्य-जाल के अन्तर्गत प्रत्येक पोषण स्तर में विकल्प उपस्थित रहता है। उदाहरणार्थ, एक घास स्थलीय खाद्य-जाल में निम्न रेखात्मक खाद्य श्रृंखलाएँ हो सकती हैं-
(i)पादप ➡️चूहा ➡️सांप ➡️बाज
(ii)पादप ➡चूहा ➡️बाज
(iii) पादप ➡️खरगोश ➡️लोमड़ी ➡️बाज
(iv) पादप ➡️खरगोश ➡️बाज
(v) पदप ➡️टिड्डा ➡️मेढक ➡️सांप ➡️बाज
(vi) पादप ➡️टिड्डा ➡️मेढक ➡️बाज
(vii) पादप ➡️चिड़िया ➡️बाज
(viii) पादप ➡️टिड्डा ➡️चिड़िया ➡️बाज
प्रश्न 2. पारिस्थितिकी के उप-क्षेत्र एवं प्रकारों का वर्णन कीजिए।
पारिस्थितिकी के उप-क्षेत्र तथा प्रकार:-
पारिस्थितिकी के विधितंत्रात्मक विकास के विभिन्न चरणों के समय इसके विषय-क्षेत्र एवं उप विभागों में पर्याप्त परिवर्तन हुए हैं। अतः पारिस्थितिकी के उप-विभागों का निर्धारण पारिस्थितिकी के अध्ययन के विभिन्न उपागमों के आधार पर किया जाना चाहिए। पारिस्थितिकी के अध्ययन के विभिन्न उपागमों के प्रमुख आधारों के अन्तर्गत वर्गीकरण-विषयक सजातीयता, निवास्य क्षेत्र, संगठन के स्तर, प्रादेशिक एवं विश्व स्तरों पर आधुनिक सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियाँ आदि को सम्मिलित किया जाता है। पारिस्थितिकी का निम्न आधारों पर विभाजन किया जाता है-
1.वर्गीकरण-विषयक सजातीयता के आधार पर उपविभाजन-आरम्भ में पारिस्थितिकी एकमात्र जीव विज्ञानों (वनस्पति विज्ञान तथा जन्तु विज्ञान) से ही सम्बन्धित थी, अतः पौधों (वनस्पति विज्ञान में) तथा जन्तुओं (जन्तु विज्ञान में) का अलग-अलग अध्ययन किया जाता था। पारिस्थितिकी के इस उपागम के आधार पर पारिस्थितिकी के दो प्रमुख विभाग अलग किये गये थे- (i) पादप पारिस्थितिकी तथा (ii) प्राणी पारिस्थितिकी। इनमें से प्रत्येक विभागों को पुनः लघु विभागों में विभक्त किया गया। इस उप- विभाजन का मुख्य आधार एकाकी संघटकों का विशिष्ट अध्ययन था, यथा- पादप पारिस्थितिकी का ओक पारिस्थितिकी, पाइन पारिस्थितिकी, सागौन पारिस्थितिकी आदि में विभाजन तथा जन्तु पारिस्थितिकी का कीट पारिस्थितिकी, बैक्टीरिया पारिस्थितिकी, मत्स्य पारिस्थितिकी आदि में विभाजन। ज्ञातव्य है कि जीवों के ये दो वर्ग (पौधे तथा जन्तु) इतने अविभाज्य तथा एक दूसरे से इतने अधिक अन्तर्सम्बन्धित हैं कि एकाकी प्रजाति के पारिस्थितिक अध्ययन के लिये एकाकी जीव को जैव समूहों से अलग करना न केवल अनुचित है वरन् तर्कसंगत भी नहीं है। अतः पारिस्थितिकी का यह वर्गीकरण, कम से कम पर्यावरण भूगोल के लिये, वर्तमान समय में स्वीकार्य नहीं है क्योंकि सभी प्रकार के जीवों तथा उनके निवास्य क्षेत्रों (भौतिक पर्यावरण) में अत्यन्त जटिल अन्तर्सम्बन्ध तथा परम्परावलम्बन होते हैं और इनका (अन्तर्सम्बन्धों का) अध्ययन किसी एकाकी प्रजाति के सन्दर्भ में नहीं किया जा सकता।
2.निवास क्षेत्र के आधार पर उपविभाजन-निवास क्षेत्र के आधार पर ज्वालामुखी के उप-विभाजन का वैज्ञानिक सिद्धांत यह है कि भौतिक भंडार (यथा- स्थलाकृति, मिट्टी, सूर्यताप और तापमान, जल, खनिज, मौसम और जलवायु आदि) के सन्दर्भ में निवास्य क्षेत्र में विभिन्नताएँ होती हैं, शेष तीसरे पर निवास्य क्षेत्र का निश्चित प्रभाव होता है तथा बायोलॉजिकल कम्यूनिटी के सामान्य प्रवेश में एक निवास्य क्षेत्र से दूसरा निवास्य क्षेत्र में अंतर होता है। इस उपागम के अध्ययन के आधार पर निवास क्षेत्र का विकास हुआ। ‘निवास क्षेत्र परिचय’ में निवास वाले क्षेत्र के अवशेष शामिल हैं और इसमें निवास वाले क्षेत्र शामिल हैं। , जरनादमुख ज्वालामुखी, द्वीपीय तट, सागरीय तट, पर्वतीय तट, झील तट, कोरल रीफ तट आदि।
3.संगठन के स्तर के आधार पर उपविभाजन-पारिस्थितिकी के अध्ययन का तीसरा उपागम किसी खास परिस्थितिक तंत्र के एकाकी जीव या जीवों के समूह के अध्ययन से सम्बन्धित है। अर्थात् पारिस्थितिकी का अध्ययन दो स्तरों पर किया जा सकता है- (i) प्रजातियों के मध्य सम्बन्धों का परिस्थितिक अध्ययन तथा (ii) पारिस्थितिक तंत्र में वर्तमान सभी जीवों के मध्य पारिस्थितिकीय सम्बन्धों का अध्ययन। इस उपागम के फलस्वरूप पारिस्थितिकी की दो प्रमुख शाखाओं का विकास हुआ-(i) स्वपारिस्थितिकी तथा (ii) समुदाय पारिस्थितिकी। स्वपारिस्थितिकी एकाकी प्रजाति का उसके पर्यावरण के साथ सम्बन्धों का अध्ययन है। अतः स्पष्ट है कि स्वपारिस्थितिक उपागम के अन्तर्गत एकाकी प्रजाति अध्ययन की मूलभूत इकाई होती है जिसके तहत प्रजाति के विभिन्न पक्षों यथा-प्रजातियों के भौगोलिक वितरण, उनकी आकारकीय एवं वर्गीकरण-विषयक स्थितियों, उनके जीवन-चक्र तथा अनुक्रम तथा उनकी (प्रजातियों की) वृद्धि एवं विकास की विभिन्न अवस्थाओं एवं चरणों को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन किया जाता है। समुदाय पारिस्थितिकी जीवों। के समूहों अर्थात् जैविक समुदायों के जटिल अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन है, क्योंकि सम्स्त जीवधारी (पौधे, जन्तु तथा सूक्ष्म जीव) एक-दूसरे को पारस्परिक रूप में प्रभावित करते हैं तथा अपने निवास क्षेत्रों या प्राकृतिक पर्यावरण के साथ पारस्परिक क्रिया करते हैं। अतः समुदाय पारिस्थितिकी के अध्ययन के लिये जैविक समुदाय अध्ययन की इकाई होता है। समुदाय पारिस्थितिकी को पुनः कई उपभागों में विभाजित किया जाता है, यथा-जनसंख्या पारिस्थितिकी इसके अन्तर्गत एक प्रजाति के जीवों के मध्य पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। ‘समुदाय पारिस्थितिकी’ इसके अन्तर्गत पौधों तथा जन्तुओं की विभिन्न प्रजातियों के जीव-समूहों के मध्य पारस्परिक क्रियाओं तथा परस्परावलम्बन का अध्ययन किया जाता है। ‘बायोम पारिस्थितिकी’, इसके अन्तर्गत किसी खास क्षेत्र में समान जलवायु सम्बन्धी दशाओं के अन्तर्गत एक से अधिक जैविक समुदायों के अनुक्रम की विभिन्न अवस्थाओं में पारस्परिक क्रियाओं तथा अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है, तथा ‘पारिस्थितिक तंत्र पारिस्थितिकी’ इसके अन्तर्गत किसी क्षेत्र विशेष में समस्त जीवधारियों-पौधे, जन्तु तथा सूक्ष्म जीव, के आपस में तथा उनके भौतिक पर्यावरण के साथ पारस्परिक क्रियाओं तथा अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। अतः पारिस्थितिक तन्त्र अध्ययन की आधारभूत इकाई होता है। पारिस्थितिक तंत्र इस प्रकार एक कार्यशील क्षेत्रीय इकाई होता है जिसकी रचना जैविक एवं भौतिक संघटकों द्वारा होती है। ज्ञातव्य है कि पर्यावरण भूगोल के अध्ययन का मूल आधार पारिस्थितिक तंत्र पारिस्थितिकी ही है।
प्रश्न 3. नाइट्रोजन एवं फास्फोरस चक्र पर एक निबन्ध लिखिए।
अथवा
नाइट्रोजन भू-जैव रसायन चक्र पर एक निबन्ध लिखिए।
नाइट्रोजन भू-जैव रसायन चक्र:-
वायुमण्डल में मिलनेवाली गैसों में 78% मात्रा नाइट्रोजन की होती है जो जीवों के विकास एवं सम्वर्द्धन में महत्त्वपूर्ण है। इसमें एमीनो एसिड मिलता है जिसकी सहायता से जीवों में प्रोटीन निर्माण होता है। नाइट्रोजन सभी जीवों के लिए आवश्यक है परन्तु जीवों द्वारा इसका उपभोग प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता है वरन् पौधे इसे अमोनियम लवण एवं नाइट्रेट के रूप में मिट्टी से प्राप्त करते हैं। आहार-श्रृंखला के माध्यम से अन्य जीव विभिन्न पोषण स्तरों द्वारा भक्षण के उपरान्त नाइट्रोजन प्राप्त करते हैं। सामान्य रूप में वायुमण्डल में नाइट्रोजन सात रूपों में मिलती है-आणविक नाइट्रोजन, नाइट्रस ऑक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड, नाइट्रोजन पैराक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, एमीनो, अमोनिया तथा नाइट्रस एसिड ।‘
नाइट्रोजन का यौगिकों में परिवर्तन एवं स्थिरीकरण:-
नाइट्रोजन चक्र के अन्तर्गत वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का विभिन्न यौगिकों में परिवर्तन होता है। इसमें सम्मिलित प्रक्रिया को नाइट्रोजन स्थिरीकरण कहते हैं। पौधों में जड़ों के माध्यम से मिट्टियों से नाइट्रोजन यौगिकों का स्थानान्तरण होता है तथा गैस रूप में नाइट्रोजन की वायुमण्डल में वापसी हो जाती है जिसे अनाइट्रीकरण कहते हैं। इस प्रकार जीवों के लिए वायुमण्डलीय गैस का उपयुक्त विभिन्न यौगिकों में परिवर्तन तथा जीवों का विघटन एवं वियोजन के उपरान्त पुनः गैस में वायुमण्डल में वापस जाने की प्रक्रिया को नाइट्रोजन चक्र कहा जाता है।
नाइट्रोजन चक्र की प्रक्रिया:-
नाइट्रोजन चक्र की प्रक्रिया निम्न चरणों में सम्पादित होती है-
1.मृदा में नाइट्रोजन स्थिरीकरण-नाइट्रोजन स्थिरीकरण का तात्पर्य वायुमण्डलीय नाइट्रोजन • का नाइट्रेट के विभिन्न स्वरूपों में परिवर्तित करके मृदा में स्थिर करना है। वायुमण्डलीय नाइट्रोजन के गैसीय स्वरूप का स्थिरीकरण या रूपान्तरण की दो प्रक्रियाएँ होती हैं- (i) तड़ित विसर्जन प्रक्रिया, (ii) जैविक क्रियायें तथा (iii) अप्राकृतिक प्रक्रिया।
वायुमण्डल में आणविक नाइट्रोजन तथा आणविक आक्सीजन के तड़ित विसर्जन के साथ संयुक्त होने पर नाइट्रिक आक्साइड का निर्माण होता है। इसके साथ आक्सीजन के मिलने पर नाइट्रोजन परऑक्साइड का निर्माण होता है। इसको जल के साथ संयोग होने पर नाइट्रिक एसिड में परिवर्तन होता है। वर्षा-जल के साथ नाइट्रिक एसिड घुलकर मिट्टी में पहुँचती है जहाँ चूना पत्थर तथा क्षारों से रासायनिक अभिक्रिया होने पर नाइट्रेट में रूपान्तरण होता है। इसी नाइट्रेट का मृदा में संचय होता रहता है जिसे पौधे जड़-परासरण द्वारा ग्रहण करते हैं।
जैविकीय प्रक्रियाओं द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण में बैक्टीरिया तथा नीलीहरी शैवाल की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। इस प्रक्रिया में सम्मिलित जीवों को दो वर्गों में विभक्त किया जाता है- (i) मुक्त रूप से रहनेवाले जीव तथा (ii) सहजीवी जीव। प्रथम प्रकार के जीव मिट्टी में स्वतन्त्र रूप से रहते हैं। ये स्वपोषित प्रकार के शैवाल जैसे जीव होते हैं। इसमें परपोषित बैक्टीरिया भी मिलते हैं।
वर्तमान समय में मानव द्वारा अनेक प्रकार के कृत्रिम रासायनिक उर्वरकों का उत्पादन किया जा रहा है जो मिट्टियों में संचित होकर कृत्रिम स्थिरीकरण सम्पादित करते हैं।
2.पादपों एवं जन्तुओं में नाइट्रोजन स्थिरीकरण-इस प्रक्रिया में नाइट्रेड के रूप में पाये जाने वाले नाइट्रोजन का उपभोग पौधों द्वारा जड़ों की सहायता से मिट्टी से ग्रहण करके किया जाता है जिनका रूपान्तरण जटिल यौगिकों जैसे प्रोटीन में होता है। जब इन प्राथमिक उत्पादकों का भक्षण शाकाहारी जीवों द्वारा किया जाता है तो पादपों में पाये जानेवाले जटिल यौगिकों या प्रोटीन का स्थानान्तरण माँसाहारी जन्तुओं में होता है जहाँ इसका स्वरूप जन्तु-प्रोटीन का हो जाता है। इसी प्रकार अगले पोषण-स्तरों पर इनका स्थानान्तरण होता जाता है। जन्तुओं में प्रोटीन विघटन से एमिनो एसिड, यूरिया आदि में रूपान्तरित हो जाता है।
3.पौधों एवं जन्तुओं द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण-मिट्टियों में स्थित अमोनिया पैदा करने वाले बैक्टीरिया द्वारा पादपों एवं जन्तुओं द्वारा त्याज्य एवं अपशिष्ट पदार्थों जैसे मल-मूत्र आदि में स्थित एमिनो एसिड तथा यूरिया को अमोनिया तथा अमोनियम लवण में परिवर्तित किया जाता है। इसी प्रकार ये बैक्टीरिया मृत पादपों तथा जन्तुओं को भी वियोजित करके उसमें स्थित एमिनो एसिड तथा यूरिया को अमोनिया तथा अमोनियम लवण में परिवर्तित करते हैं। बैक्टीरिया द्वारा इनका परिवर्तन नाइट्रेड में होता है जो नीचे मृदा में संचयित होते रहते हैं। इस प्रकार नाइट्रोजन का स्थानान्तरण मिट्टी से जीवों में तथा जीवों से मिट्टियों की ओर होता रहता है।
4.अनाइट्रीकरण द्वारा पुनः वापस लौटना-अनाइट्रीकरण प्रक्रिया के अन्तर्गत नाइट्रेटों का गैसीय नाइट्रोजन में रूपान्तरण होता है। मृदा मण्डल में कुछ ऐसे बैक्टीरिया तथा कवक मिलते हैं जो बिना आक्सीजन के जीवित रहते हैं जो नाइट्रेटों को नाइट्रोजन में रूपान्तरित करते हैं। इस प्रकार उत्पन्न नाइट्रोजन, गैस रूप में निर्मुक्त होकर वायुमण्डल में पहुँच जाती है। इस प्रकार नाइट्रोजन चक्र पूर्ण होता हैl
उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि नाइट्रोजन चक्र में सूक्ष्म जीवों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इन्हें ही नियंत्रक एवं नियामक कहा जा सकता है क्योंकि वायुमण्डलीय भण्डार से मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने में सहायक होते हैं तथा साथ ही कुछ बैक्टीरिया नाइट्रेट को पुनः नाइट्रोजन गैस में परिवर्तित करती हैं।
फास्फोरस चक्र:-
जल के बाद जीवमण्डल में फास्फोरस दूसरा सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इस तत्त्व की पौधों के लिए पर्याप्त मात्रा में आवश्यकता होती है। वास्तव में जीवमण्डलीय पारिस्थितिक तंत्र में फास्फोरस जीवों द्वारा जैविक पदार्थों के उत्पादन को निर्धारित एवं नियंत्रित करता है। जीवमण्डल में फास्फोरस की सुलभ मात्रा पर्याप्त नहीं है क्योंकि फास्फोरस फास्फेट शैलों में पाया जाता है तथा विश्व में फास्फेट शैलों का वितरण कुछ सीमित क्षेत्रों में ही पाया जाता है। फास्फोरस एक ऐसा रासायनिक तत्त्व (खनिज) है जिसकी गैसीय प्रावस्था में स्थिति कम समय के लिए होती है। यह अवसादी प्रावस्था में अधिक समय तक रहता है। वायुमण्डल में फास्फोरस बहुत कम मात्रा में होता है तथा यह वायुमण्डल में अस्थायी रूप में ही विद्यमान रहता है। वायुमण्डल में फास्फोरस की स्थिति धूलिकणों तथा नमक के कणों के रूप में होती है। फास्फोरस के कण सागरीय भागों में नमक की बौछारों से तथा स्थलीय भागों पर स्थित फास्फेट भण्डारों तथा फास्फेट की खदानों से हवा द्वारा उड़ाकर वायुमण्डल में पहुँचते हैं।
फास्फोरस चक्र की सबसे दिलचस्प तथा महत्त्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि यह चक्र क्रमशः तथा अति मन्द गति से सम्पादित होता है तथा फास्फोरस का जीवमण्डल में संचरण तथा गमन एक मार्गीय रूप में ही सम्पन्न होता है। अर्थात् स्थलीय भागों से फास्फोरस का धरातलीय वाही जल तथा नदियों से होकर सागरों में परिवहन हो जाता है जहाँ पर वह भण्डारित होता रहता है तथा सागरों से फासफोरस बहुत ही न्यून मात्रा में स्थलों पर वापस पहुँचता है। अधिकांश फासफोरस अवसादी शैलों में फासफेट शैलों के रूप में भण्डारित (संचित) रहता है। जब इन फास्फेट शैलों का अपक्षय होता है तो फास्फोरस का मृदा भण्डार में स्थानान्तरण हो जाता है। ज्ञातव्य है कि मिट्टियों में फास्फोरस खनिज रूप में पाया जाता है तथा सामान्यतया यह कैल्सियम, पोटैशियम के साथ मिला रहता है। मिट्टियों तथा शैलों में स्थित समस्त फास्फोरस चक्र में हिस्सा नहीं लेता है। वास्तव में समस्त फास्फोरस का मात्र 10 प्रतिशत ही चक्रीय मार्गों में सम्मिलित होता है क्योंकि फास्फोरस जल में अपेक्षाकृत अघुलनशील होता है। पौधे अपनी जड़ों द्वारा मिट्टियों से फास्फोरस को अकार्बनिक फास्फेट के रूप में ग्रहण करते हैं।
पौधों में अकार्बनिक फास्फोरस का कार्बनिक या जैविक रूप में परिवर्तन हो जाता है। फास्फेट के इन कार्बनिक भागों का आहार श्रृंखला के विभिन्न पोषण स्तरों के विभिन्न जीवों में स्थानान्तरण तथा गमन होता है। कार्बनिक फास्फोरस का पौधों से शाकभक्षी जन्तुओं में, शाकभक्षी जन्तुओं से मांसभक्षी जन्तुओं में तथा पौधों, शाकभक्षी एवं मांसभक्षी जन्तुओं से सर्वभक्षी जन्तुओं में संचरण होता है। जब मृत पौधों तथा जन्तुओं का एवं विभिन्न जन्तुओं द्वारा परित्यक्त अपशिष्ट पदार्थों (गोबर, मलमूत्र आदि) का मृदावासी सूक्ष्म वियोजक जीवों द्वारा विघटन तथा वियोजन हो जाता है तथा फास्फेट के जैविक/कार्बनिक रूप का खनिज रूप में परिवर्तन (खनिजीकरण) हो जाता है। (कार्बनिक फास्फेट का अकार्बनिक फास्फेट में रूपान्तरण) तो फास्फेट पुनः मिट्टियों में वापस पहुँच जाता है। फास्फेट के कुछ भाग का धरातलीय वाही जल तथा नदियों द्वारा सागरों में स्थानान्तरण हो जाता है तथा सागरतटीय भागों से फास्फोरस की स्थलीय भागों पर वापसी निम्न कारकों द्वारा होती है (i) सागरीय जल की बौछारों से। तटीय भाग पर लहरों के वेग के कारण सागरीय जल ऊपर उछलता है। इस जल के साथ फास्फोरस भी ऊपर उठ कर स्थल पर पहुँच जाता है। इस क्रिया को लवण बौछार कहते हैं। (ii) मछलियों द्वारा। सागरीय मछलियों में फास्फोरस कार्बनिक रूप में पर्याप्त मात्रा में रहता है। जब स्थलीय जन्तु, खासकर मनुष्य, इन सागरीय मछलियों को खाते हैं, तो मछलियों में संचित फास्फोरस का स्वल्पांश ही स्थलीय जन्तुओं में स्थानान्तरित हो जाता है, तथा (iii) पक्षियों द्वारा। ज्ञातव्य है कि इन कारकों तथा क्रियाओं द्वारा सागरीय फास्फोरस का स्वल्पांश ही स्थलीय भागों पर वापस पहुँच पाता है। स्थलीय भागों से सागरों में स्थानान्तरित फास्फोरस का अधिकांश भाग सागरों की तली में स्थित अवसादों में पहुँचकर अवसादी भण्डार में संचित होता रहता है। इस सागरीय अवसादी भण्डार से फास्फोरस का विमोचन तथा उसकी प्राप्ति तभी सम्भव हो सकती है जबकि विवर्तनिक घटनाओं के कारण सागरीय तली का उत्थान या उन्मज्जन हो जाय तथा सागरीय तली स्थलीय भागों की ऊँचाई के बराबर हो जाय या उससे ऊँची हो जाय।
यह अनुमान किया गया है कि लगभग 20,000, 000,000 मिलियन मिट्रिक टन फास्फोरस पृथ्वी की क्रस्ट की शैली में भण्डारित है परन्तु मात्र 10,000 से 60,000 मिलियन मिट्रिक टन फास्फोरस का ही परम्परागत तकनीकों से खनन किया जा सकता है। सागरीय भागों में भण्डारित फास्फोरस की अनुमानित मात्रा 100,000,000 मिलियन मिट्रिक टन बतायी गयी है। चूँकि स्थलीय भागों में फास्फोरस का निरन्तर निष्कासन तथा सागरीय भागों में स्थानान्तरण होता रहता है परन्तु सागरीय भागों से फास्फोरस की स्थलीय भागों पर वापसी अत्यन्त मन्द गति से तथा अति न्यून मात्रा में ही होती है (लगभग नहीं के बराबर), अतः स्थलीय फास्फोरस की मात्रा निरन्तर घटती जा रही है जबकि पौधों के लिए फास्फोरस की माँग बढ़ती जा रही है। परिणामस्वरूप रासायनिक खादों के रूप में फास्फोरस की अतिरिक्त मात्रा का फसलों के लिए प्रयोग करना पड़ रहा है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 4. भूगोल और पारिस्थितिकी को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-एकरमैन के अनुसार, “भूगोल वह विज्ञान है जो पृथ्वी तल पर समस्त मानव जाति और उसके प्राकृतिक वातावरण की पारस्परिक क्रियाशील विस्तृत प्रणाली का अध्ययन करता है।“
अमेरिकन शब्दकोश में भूगोल को परिभाषित किया गया है-“भूगोल भूतल की क्षेत्रीय विभिन्नताओं का अध्ययन है, यहाँ पर क्षेत्रों की लक्षण व्यवस्था के अन्तः सम्बन्धों में ऐसी अनेक विभिन्नताएँ दिखाई देती हैं। धरातल पर पाये जाने वाले प्रमुख तत्त्वों, जैसे-जलवायु, वनस्पति, जनसंख्या, भूमि, उपयोग, उद्योग आदि का इसमें वर्णन किया जाता है।“
भूगोल और पारिस्थितिकी में निकट सम्बन्ध है। पारिस्थितिकी की परिभाषा है- “पारिस्थितिकी वह – विज्ञान है जिसके अन्तर्गत एक तरफ प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के जैविक एवं अजैविक संघटकों के मध्य तथा दूसरी तरफ विभिन्न जीवों के मध्य अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।“ अथवा “पारिस्थितिकी सामान्य रूप में वह विज्ञान है जो एक तरफ सभी जीवों तथा उनके भौतिक पर्यावरण में तथा दूसरी तरफ विभिन्न जीवों में परस्पराश्रित, परस्पर अभिक्रियाशील तथा परस्पर सम्बद्ध अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन करता है।“
पर्यावरण भूगोल पारिस्थितिक तंत्र (भूजैवतंत्र) के विभिन्न संघटकों की विशेषताओं, ऊर्जा के निवेश द्वारा पारिस्थितिकतंत्र की क्रियाशीलता, विभिन्न संघटकों को जोड़ने वाली भौतिक, रासायनिक एवं जैविक प्रक्रियाओं तथा विभिन्न संघटकों के मध्य आपसी अन्तर्सम्बन्धों एवं अन्तर्क्रियाओं का अध्ययन करता है। पारिस्थितिकीय परिदृष्टि के साथ भूगोल मानव पर्यावरण सम्बन्धों का सुचारु रूप से अध्ययन कर सकता है।
प्रश्न 5.पौधों के ऊर्ध्वाधर स्तरीकरण की विवेचना कीजिए।
उत्तर-पौधों का ऊर्ध्वाधर स्तरीकरण:-
किसी भी क्षेत्र में पादप समुदाय की विभिन्न प्रजातियों के पौधों की ऊँचाई में अन्तर होता है। ज्ञातव्य है कि एक प्रजाति के पौधों की ऊँचाई प्रायः समान होती है। सामान्य रूप से किसी भी प्रदेश में पूर्ण रूप से विकसित पादप समुदाय में (खासकर शीतोष्ण वर्षा वन) में चार ऊर्ध्वाधर स्तर पाये जाते हैं-
(i).प्रधान या प्रबल स्तर- किसी भी क्षेत्र के पादप समुदाय के सर्वोच्च भाग या शिखर को प्रधान या प्रबल स्तर कहते हैं। वृक्षों के इस सर्वोच्च आवरण का निर्धारण सबसे ऊँचे वृक्षों के ऊपरी वितान द्वारा होता है। वास्तव में यह स्तर किसी भी प्रदेश के पादप समुदाय की सर्वोच्च सीमा को प्रदर्शित करता है। इसे वितान स्तर या मुकुट स्तर भी कहते हैं। इस प्रधान स्तर या प्रबल स्तर के ठीक नीचे सर्वोच्च वृक्षों से अपेक्षाकृत कम ऊँचे वृक्षों द्वारा एक गौण प्रबल स्तर का निर्माण होता है। इसे सहप्रधानस्तर या सहप्रबल स्तर कहते हैं।
(ii).द्वितीय स्तर-प्रधान या मुकुट ऊर्ध्वाधर स्तर से ठीक नीचे द्वितीय स्तर की स्थिति होती है। इस स्तर में झाड़ियों वाले पौधों की प्रधानता होती है। इस स्तर को झाड़ी स्तर भी कहते हैं।
(iii).तृतीय स्तर-द्वितीय स्तर के नीचे शाकीय पौधों की प्रधानता होती है। इस स्तर को शाक स्तर कहते हैं।
(iv).चतुर्थ स्तर का निर्माण धरातलीय सतह या मृदा सतह पर विकसित मॉस द्वारा होता है। इस स्तर को भूतलीय स्तर या मॉस स्तर कहते हैं।
पौधों में निरन्तर ऊपर की ओर वृद्धि होती जाती है। सर्वोच्च स्तर से नीचे जाने पर द्वितीय, तृतीय तथा धरातलीय स्तरों में प्रकाश की क्रमशः कमी होती जाती है, वायु तथा वर्षण का प्रभाव घटता जाता है, तापमान घटता जाता है परन्तु नमी बढ़ती जाती है। इन बदलती पर्यावरण सम्बन्धी दशाओं (सर्वोच्च स्तर से सबसे निचले स्तर तक) के विभिन्न स्तरों की प्रजातियों को अपने को समायोजित करना पड़ता है। सर्वोच्च स्तर की प्रजाति ओक वृक्ष की है। इसे प्रभावी प्रजाति कहते हैं। यदि प्रभावी प्रजाति के पौधों को काट दिया जाय तो इस पादप समुदाय की संरचना तथा उनके अन्तर्सम्बन्ध नष्ट हो जाते हैं।
प्रश्न 6.पारिस्थितिक पिरामिड या स्तूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-पारिस्थितिक पिरामिड या स्तूप:-
एक पारिस्थितिक तन्त्र में उपस्थित उत्पादकों व उपभोक्ताओं को उनकी संख्या, जैव भार तथा ऊर्जा के आधार पर क्रमानुसार व्यवस्थित किया जाय तो पिरामिड की आकृति बनती है, जिसे पारिस्थितिक पिरामिड कहते हैं। पारिस्थितिक पिरामिड की संकल्पना एल्टन ने 1927 ई० में प्रस्तुत की। पिरामिड आरेखों द्वारा किसी पारिस्थितिक तन्त्र में उपस्थित विभिन्न जैविक घटकों के पोषण स्तरों के सम्बन्ध प्रदर्शित किये जाते हैं। इनमें उत्पादक तथा प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक उपभोक्ता पिरामिड के आधार से शीर्ष की ओर अवरोही क्रम में व्यवस्थित होते हैं। पारिस्थितिक पिरामिड सामान्यतः तीन प्रकार होते हैं-
(i).जीवों की संख्या पिरामिड-किसी पारिस्थितिक तन्त्र के जीवों की संख्या को उत्पादक व उपभोक्ता के क्रम में व्यवस्थित करने पर जीवों की संख्या पिरामिड बनते हैं, जैसे-घास स्थल में उत्पादकों (पादप व घास) की संख्या सर्वाधिक होगी, प्राथमिक उपभोक्ताओं या शाकभक्षी जीवों की संख्या उससे कम होगी। मांसाहारी जीवों या द्वितीयक व तृतीयक उपभोक्ताओं की संख्या कम होती जाएगी।
(ii).जैव भार पिरामिड-किसी पारिस्थितिक तन्त्र के विभिन्न पोषण स्तरों में उपस्थित जीवों के भार के आधार पर बनाया गया पिरामिड जैव भार पिरामिड कहलाता है। इसमें भी उत्पादकों से उपभोक्ताओं की ओर जैव भार घटता जाएगा। जलीय पारिस्थितिक तन्त्र में जैव पिरामिड उल्टा बनता है।
(iii).ऊर्जा पिरामिड-किसी पारिस्थितिक तन्त्र में समय विशेष में निश्चित इकाई क्षेत्र में विभिन्न पोषण स्तरों पर उपस्थित जीवों द्वारा प्रयुक्त की गयी ऊर्जा की कुल मात्रा को प्रदर्शित करने वाले पिरामिड ऊर्जा पिरामिड कहलाते हैं। उत्पादकों से उपभोक्ताओं के पोषण स्तरों की ओर ग्रहण की हुई ऊर्जा की मात्रा कम होती जाती है।
प्रश्न 7. पारिस्थितिकी अनुक्रमण के सिद्धान्त क्या हैं?
उत्तर- पारिस्थितिकी अनुक्रमण के सिद्धान्त:-
(1).अनुक्रमण के द्वारा पौधों तथा जन्तुओं की किस्मों में निरन्तर परिवर्तन होता जाता है। प्रारम्भ जो जातियाँ प्रमुख होती हैं, वे चरमावस्था में गौण अथवा विलुप्त हो जाती हैं।
(2) अनुक्रमण के दौरान जैव पुंज तथा जैव पदार्थों की खड़ी फसल में वृद्धि होती जाती है।
(3) जैवीय संरचना में परिवर्तन तथा में उनकी मात्रा में वृद्धि के कारण जीवों की स्पीशीज में परिवर्तन होता जाता है।
(4) अनुक्रमण की प्रगति के अनुसार स्पीशीज में विविधता बढ़ती जाती हैं। विशेषकर परपोषी जीवों में अधिक विविधता आती है।
(5) अनुक्रमण की प्रगति के साथ जीव समुदाय के शुद्ध उत्पादन में कमी होती जाती है अर्थात् कुल जीव समुदाय से उत्पन्न जैव पुंज की मात्रा घटती जाती है। जीव समुदाय अधिक ऊर्जा का उपभोग करता है।
(6) समुदाय में जीवों पर प्राकृतिक चयन का प्रभाव बढ़ता जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे पारितन्त्र स्थिर सन्तुलन की ओर अग्रसित होता है प्राणियों की संख्या घटती जाती है। जो जीव परिवर्तित परिस्थितियों से अनुकूलन नहीं कर पाते वे नष्ट हो जाते हैं।
(7) साम्यावस्था में पारितन्त्र में प्रति इकाई ऊर्जा के उपभोग से अधिकतम जैव पुंज का पोषण होता है।
(8) सामान्य जलवायु वाले निवास्य में चरमावस्था में सभी पूर्ववर्ती सेरे समाहित हो जाते हैं। जैव संरचना, स्पीशीज, समूह एवं उत्पादकता में स्थायित्व आ जाता है इस स्थिति में सभी जातियाँ पुररुत्पादन करती हैं।
(9) अब किसी नयी स्पीशीज के समुदाय में प्रविष्ट होने के प्रमाण नहीं मिलते।
प्रश्न 8.पारिस्थितिकीय पिरामिड।
उत्तर-किसी भी पारिस्थितिकी तन्त्र के प्राथमिक उत्पादको एवं विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं उच्चतम श्रेणी के जन्तुओं) की संख्या, जीव भार तथा संचित, ऊर्जा में परस्पर एक प्रकार का सम्बन्ध होता है। इन सम्बन्धों को जब चित्र रूप में दिखलाया जाता है तो इन्हें पारिस्थितिक पिरामिड कहते हैं। पारिस्थितिक पिरामिड का विचार सर्वप्रथम चार्ल्स एल्टन ने 1927 में रखा था। अतः इन्हें एल्टिमन पिरामिड भी कहा जाता है। पारिस्थितिक पिरामिड मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं- (i) जीव-संख्या पिरामिड, (ii) जीव भार पिरामिड, (iii) संचित ऊर्जा का पिरामिड। जिस पिरामिड द्वारा पारिस्थितिक तन्त्र के प्राथमिक उत्पादकों तथा विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्याओं के सम्बन्ध के बारे में बोध होता है, उसे जीव संख्या का पिरामिड कहते हैं। ऐसे चित्रों का आधार भाग सदैव प्राथमिक उत्पादकों एवं विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं के भार के सम्बन्ध के बारे में बोध होता है, उसे जीव भार का पिरामिड कहते हैं। जो पिरामिड किसी पारिस्थितिक तंत्र के विभिन्न पोषण-तलों के जीवधारियों द्वारा प्रयोग में लाई गयी ऊर्जा के सम्पूर्ण परिणाम का बोध कराता है उसे संचित ऊर्जा का पिरामिड कहते हैं।
प्रश्न 9. ‘पारिस्थितिकीय सूची स्तम्भ’ संकल्पना की विवेचना कीजिए।
उत्तर-किसी भी पारिस्थितिक तन्त्र के प्राथमिक उत्पादकों एवं विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं उच्चतम श्रेणी के जन्तुओं) की संख्या, जीवभार तथा संचित ऊर्जा में परस्पर एक प्रकार का सम्बन्ध होता है। इन सम्बन्धों को जब चित्र रूप में दिखलाया जाता है तो इन्हें पारिस्थितिक पिरॅमिड्स कहते हैं। पारिस्थितिक पिरॅमिड्स का विचार सर्वप्रथम चार्ल्स एल्टन ने 1927 में रखा था। अतः इन्हें ‘Eltonian Pyramids’ भी कहा जाता है। मुख्य रूप से ये तीन प्रकार के होते हैं-
1.जीव-संख्या का पिरामिड,
2.जीवभर का पिरामिड,
3.संचित ऊर्जा का पिरामिड।
जीव-संख्या का पिरॅमिड-:
जिस पिरॅमिड द्वारा पारिस्थितिक तंत्र के प्राथमिक उत्पादकों तथा विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्याओं के सम्बन्ध के बारे में बोध होता है, उसे जीव संख्या का पिरॅमिड कहते हैं। ऐसे चित्रों का आधार भाग सदैव प्राथमिक उत्पादकों की संख्या बतलाता है। आधार के ऊपर के भाग क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय व उच्चतम श्रेणी के उपभोक्ताओं की संख्या बतलाते हैं। इन चित्रों का सबसे ऊपरी भाग सदैव उच्चतम श्रेणी के मांसाहारी जन्तुओं की संख्या दर्शाता है। ये पिरॅमिड्स सीधे तथा उल्टे दोनों प्रकार के हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, घास स्थलीय एवं फसल स्थलीय पारिस्थितिक तन्त्रों के पिरैमिड सीधे बनेंगे जबकि एक पेड़ के पारिस्थितिक तन्त्र का पिरॅमिड बिल्कुल उल्टा बनेगा। घास स्थलीय होता है, उसे जीव भार का पिरॅमिड कहते हैं।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 10. ओजोन परत क्या है?
उत्तर– ऊपरी वायुमण्डल (समताप मण्डल) में ओजोन एक प्राकृतिक घटक है जहाँ चक्रीय रूप में इसका निर्माण एवं विघटन होता रहता है जिसमें सौर प्रकाश ही चालक बल होता है। यह गैस समतापमण्डल में सागर तल से 15 से 35 किलोमीटर की ऊँचाई पर एक सतह के रूप में मिलती है। इस परत को पृथ्वी का रक्षा कवच या अनुरक्षा छतरी कहा जाता है क्योंकि यह गैस प्रवेशी सौर्थिक विकिरण की पराबैगनी किरणों को अवशोषित करके पृथ्वी पर पहुँचने में प्रतिरोधित करती है।
प्रश्न 11. ओजोन परत का निर्माण कैसे होता है?
उत्तर-वायुमण्डल में ओजोन सूक्ष्ममात्रिक तत्त्व के रूप में मिलता है। समतापमण्डल में लगभग 25 किमी की ऊँचाई तक इसका अधिकतम सान्द्रण होता है। सामान्य रूप से सागर तल पर वायुमण्डल में यह 0.5 ppm मिलती है। इसका आविर्भाव मुख्यतः आक्सीजन तथा SO2, NO, जैसे आक्सीजन युक्त अणुओं का पराबैगनी विकिरण के साथ अभिक्रिया करने से होता है। ओजोन गैस प्रायः ऊँचाई पर मिलती है।
प्रश्न 12. पर्यावास की संकल्पना।
उत्तर– पर्यावास का अर्थ है निवास्य-क्षेत्र। भौतिक विशेषताओं के सन्दर्भ में निवास्य क्षेत्रों में विभिन्नताएँ होती हैं। अतः जीवों पर पर्यावास या निवास्य क्षेत्र का निश्चित प्रभाव पड़ता है तथा जैविक समुदाय की सामान्य विशेषताओं में निवास्य क्षेत्र से दूसरे निवास्य क्षेत्र में अन्तर होता है। पर्यावास या निवास्य क्षेत्र पारिस्थितिकी का विकास हुआ है। निवास्य क्षेत्र की विशेषताओं तथा उसमें रहने वाले जीवों एवं उसके निवास्य क्षेत्र के बीच संबंधों के आधार पर उन्हें विभिन्न उप-विभागों में विभाजित किया जाता है। अनुकूलन पर्यावरणीय दशाओं वाले किसी भी पर्यावास में पौधों की विभिन्न प्रजातियों का उद्भव एवं विकास होता है। क्योंकि भौतिक पर्यावरण पौधों तथा जन्तुओं को एक साथ समाहित करता है। सभी प्रकार के जीवों एवं पर्यावास क्षेत्रों में अत्यन्त अन्तर्सम्बन्ध एवं परस्परावलम्बन होता है। स्पष्ट है कि भौतिक पर्यावरण की जलवायु दशाएँ जैविक समुदायों के लिए पर्यावास का सृजन करती हैं।
प्रश्न 13. भू-जैवरसायन चक्र क्या है?
उत्तर– “पृथ्वी के वायुमण्डल, महासागरों एवं अवसादों से प्राप्त रासायनिक तत्त्वों के चक्रों को भू-ज्वरसायन चक्र कहा जाता है।“ भू-जैवरसायन चक्र वृहद्र नक्षत्र चक्र जहाँ से उत्पन्न होते हैं वहाँ अजैविक तत्त्वों का जैविक प्रक्षेप से गमन होता है तथा अन्त में ये तत्त्व पुनः अजैविक दशा में वापस आ जाते हैं। अर्थात अजैविक तत्वों/रासायनिक तत्त्वों के जैविक प्रसंस्कृति में परिवर्तन तथा इन जैविक तत्त्वों के अजैविक रूप में पुनरागमन के स्वरूप को जैवभूसायण चक्र कहा जाता है।
प्रश्न 14. पारिस्थितिकी तंत्र की संकल्पना।
उत्तर– किसी भी समुदाय में विभिन्न जातियों के प्राणी साथ-साथ निवास करते हैं। ये सभी जीव परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं, साथ ही अपने आस-पास के वातावरण से भी प्रभावित होते हैं। इस प्रकार रचना एवं कार्य की दृष्टि से समुदाय एवं वातावरण एक तन्त्र की तरह कार्य करते हैं। इसे ही पारिस्थितिक तन्त्र कहा जाता है। इस प्रकार पारिस्थितिकी तन्त्र एक आधारभूत कार्यात्मक इकाई है जिसके अन्तर्गत वातावरण के जैव एवं अजैव तत्त्व, जो एक- दूसरे की विशेषताओं को प्रभावित करते हैं, सम्मिलित हैं। ‘पारिस्थितिकी तन्त्र’ शब्द का सर्वप्रथम प्रतिपादन 1935 ई0 में टेन्सले महोदय ने किया था। पारिस्थितिकी तन्त्र को ‘पारिस्थितिकीय तन्त्र’ भी कहा जाता है।
प्रश्न 15. विकास बनाम पारिस्थितिकी सन्तुलन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर– 1960 के दशक के अन्त तक सामान्यतः यह माना जाता था कि वातावरण संरक्षण तथा विकास एक-दूसरे के प्रतिलोम (Opposite) हैं। दूसरे शब्दों में, वातावरण को क्षति पहुँचाये बिना विकास असंभव है। यदि विकास करना है तो वातावरण की गुणवत्ता के ह्रास के रूप में उसकी कीमत चुकानी होगी। परन्तु अब यह अनुभव अनुभ किया जाने लगा है कि दोनों एक-दूसरे के प्रतिलोम या विरोधी नहीं वरन् अन्योन्याश्रित हैं।
प्रश्न 16. पारिस्थितिक तंत्र के घटक।
उत्तर– पारिस्थितिक तंत्रों की संरचना दो संघटकों से होती है- (i) अजैविक या भौतिक संघटक, (ii) जैविक संघटक। यदि भौतिक संघटक के ऊर्जा पक्ष को अलग रूप में रखा जाय तो पारिस्थितिक तंत्रों के तीन संघटक होते हैं- (1) ऊर्जा संघटक, (ii) अजैविक या भौतिक संघटक, (iii) जैविक संघटक ऊर्जा संघटक के अन्तर्गत सौर्थिक प्रकाश, सौर्थिक विकिरण तथा उसके विभिन्न पक्षों को सम्मिलित किया जाता है। भौतिक संघटक के अन्तर्गत स्थल, मृदा, जल, वायु तथा उनके विभिन्न पक्षों को सम्मिलित करते हैं। जैविक संघटक के अन्तर्गत पौधों, जन्तुओं तथा सूक्ष्म जीवों एवं उनके मृत भागों को सम्मिलित किया जाता है।
प्रश्न 17. पोषण स्तर।
उत्तर– पारिस्थितिक तंत्र में आहार पोषण कई स्तरों पर सम्पन्न होता है इन स्तरों या बिन्दुओं को जिनसे होकर आहार ऊर्जा का एक वर्ग के जीवों से दूसरे वर्ग के जीवों में स्थानान्तरण या गमन होता है, इसे पोषणस्तर कहते हैं। अथवा आहार श्रृंखला के उस बिन्दु को जहाँ पर आहार ऊर्जा का एक वर्ग के जीवों (यथा, शाकभक्षी जीव) से दूसरे वर्ग के जीवों (यथा मांसभक्षी जीव) में स्थानान्तरण होता है, पोषण स्तर कहते हैं। आहार श्रृंखला में चार पोषण स्तर होते हैं। पोषण स्तर 1 में हरे पौधे आते हैं जो प्रकाश से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। पोषण स्तर 2 में शाकभक्षी चरने वाले जन्तु आते हैं। पोषण स्तर 3 में मांसभक्षी जन्तु और पोषण स्तर 4 में सर्वाहारी जन्तु आते हैं। मनुष्य इस पोषण स्तर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सदस्य है।
प्रश्न 18. पारिस्थितिक तन्त्र के प्रकार बताइए।
उत्तर– वातावरण के आधार पर पारिस्थितिक तन्त्रों को दो भागों में विभक्त किया जाता है-
1.प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र- ऐसे तन्त्र प्रकृति में मानव हस्तक्षेप के बिना स्वतः प्राकृतिक अवस्थाओं के अनुसार बनते हैं।
2.कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र मानव द्वारा निर्मित व नियन्त्रित पारिस्थितिक तन्त्र को कृत्रिम या अप्राकृतिक तन्त्र कहते हैं। मानव अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बौद्धिक स्तर से पर्यावरण में परिवर्तन करता है तथा कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र का निर्माण करता है। खेत, उद्यान, वन, फलोद्यान, बाँध, नहर, चरागाह आदि मानव निर्मित या कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र के उदाहरण हैं।
प्रश्न 19. पारिस्थितिक तंत्र की संरचना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर– पारिस्थितिक तन्त्र की संरचना से तात्पर्य उसके जैविक समुदाय के गठन, अजैविक पदार्थों की मात्रा तथा जलवायु सम्बन्धी कारकों से है। इसके अन्तर्गत विभिन्न पादप व जन्तु जातियाँ, संख्या, वितरण, जैव भार, पोषक तत्त्व, जल, वायु, तापक्रम आदि तत्त्व सम्मिलित हैं।
प्रश्न 20. खाद्य श्रृंखला का वर्णन कीजिए।
अथवा
भोजन श्रृंखला एवं भोजन जाल।
उत्तर-खाद्य श्रृंखला या भोजन श्रृंखला विभिन्न प्रकार के जीवधारियों का एक क्रम है जिसके द्वारा एक पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा का प्रवाह होता है। पारिस्थितिक तन्त्र में खाद्य श्रृंखला में हरे पौधे प्रकाश संश्लेषण की सहायता से भोजन का निर्माण करते हैं, जिसका उपयोग प्राथमिक उपभोक्ता अर्थात् शाकाहारी जीव करते हैं। प्राथमिक उपभोक्ताओं का द्वितीयक उपभोक्ता (मांसाहारी) एवं द्वितीयक उपभोक्ताओं का तृतीयक उपभोक्ता भोजन के रूप में उपयोग करते हैं।
एक जीव, एक से अधिक पोषण स्तरों के जीवों से अपने भोजन की पूर्ति कर सकता है। इसी प्रकार किसी जीव को अनेक जीवों द्वारा भोजन बनाया जा सकता है। ऐसी स्थिति में पारिस्थितिक तन्त्र में एक से अधिक खाद्य श्रृंखलाएँ किसी-न-किसी क्रम में परस्पर सम्बद्ध होकर एक जटिल जाल बना लेती हैं, जिसे खाद्य-जाल कहते हैं।
प्रश्न 21. पारिस्थितिक पिरामिड।
उत्तर– किसी भी पारिस्थितिक तन्त्र के प्रथम उत्पादकों एवं विभिन्न श्रेणी के उपभोक्ताओं (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं उच्चतम श्रेणी के जन्तुओं) की संख्या, जीवभार तथा संचित ऊर्जा में परस्पर एक प्रकार का सम्बन्ध होता है। इन सम्बन्धों को जब चित्र के रूप में दिखलाया जाता है तो इन्हें पारिस्थितिक पिरामिड कहते हैं। पारिस्थितिक पिरामिड का विचार सर्वप्रथम चार्ल्स एल्टन ने 1927 में रखा था।
प्रश्न 22. अजैविक एवं जैविक तत्त्व।
उत्तर– अजैविक संघटक के अन्तर्गत समस्त जैवमण्डल या उसके किसी भाग के भौतिक पर्यावरण को सम्मिलित किया जाता है। इस भौतिक संघटक के अन्तर्गत सामान्य रूप से स्थलमण्डल, वायुमण्डल तथा जलमण्डल को सम्मिलित करते हैं।
जैविक संघटक का निर्माण तीन उपतंत्रों द्वारा होता है पादप तन्त्र, जन्तु तन्त्र एवं सूक्ष्मजीव तंत्र।
प्रश्न 23. उपभोक्ता किसे कहते हैं?
उत्तर– उपभोक्ता के अन्तर्गत वे समस्त जीव आते हैं, जो अपना पोषण स्वयं करने की क्षमता न होने के कारण भोजन के लिए पादपों व अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं। इसी कारण इन्हें पारिस्थितिक तन्त्र के परपोषी घटक कहते हैं। ये अपने पोषण के लिए उत्पादकों द्वारा तैयार संश्लेषित भोजन का उपयोग करते हैं, अतः उपभोक्ता कहलाते हैं।
प्रश्न 24. ऑक्सीजन चक्र क्या है?
उत्तर– ऑक्सीजन चक्र के अन्तर्गत स्थलीय तथा सागरीय जीवों द्वारा प्रकाशसंश्लेषण के समय जनित आक्सीजन तथा ज्वालामुखी उद्भेदन के समय CO, एवं H,O के रूप में निकली आक्सीजन का वायुमण्डलीय आक्सीजन भण्डार में प्रवेश होता है तथा सागरीय एवं स्थलीय जन्तुओं द्वारा श्वसन, खनिजों के आक्सीकरण तथा लकड़ियों और जीवाश्म खनिजों के जलने में वायुमण्डलीय आक्सीजन भण्डार से आक्सीजन खर्च होती है और इस आक्सीजन का चक्रण चलता रहता है।
प्रश्न 25. फॉस्फोरस चक्र का अभिप्राय बताइए।
उत्तर– जीव मण्डलीय पारिस्थितिक तन्त्र में फॉस्फोरस जीवों द्वारा जैविक पदार्थों के उत्पादन को निर्धारित एवं नियन्त्रित करता है। जीवमण्डल में फॉस्फोरस की सुलभ मात्रा पर्याप्त नहीं है क्योंकि फॉस्फोरस फासफेट शैलों में पाया जाता है तथा विश्व में फासफेट शैलों का वितरण कुछ सीमित क्षेत्रों में ही पाया जाता है। फॉस्फोरस एक ऐसा रासायनिक तत्त्व (खनिज) है। जिसकी गैसीय प्रावस्था में स्थिति कम समय के लिए होती है। यह अवसादी प्रावस्था में अधिक समय तक रहता है। वायुमण्डल में फॉस्फोरस बहुत कम मात्रा में होता है तथा यह वायुमण्डल में अस्थायी रूप में ही विद्यमान रहता है।
प्रश्न 26. संधृत विकास को परिभाषित कीजिए।
अथवा
सततीय विकास को परिभाषित कीजिए।
उत्तर– ‘संधृत विकास’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1980 में अंतर्राष्ट्रीय संघ द्वारा प्रस्तुत World Conservation Strategy द्वारा किया था। 1987 में पर्यावरण एवं विकास पर विश्व आयोग ने Our Common Future नाम से बुंटलैंड रिपोर्ट से सामान्य रूप से परिभाषित किया-
“भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं से बिना समझौता किए वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करने के रूप में परिभाषित किया।“
पीयर्स और वारफोर्ड के अनुसार, “संधृत विकास ऐसी प्रक्रिया का वर्णन करता है जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास नहीं होने दिया जाता है। यह जीवन की गुणवत्ता और वास्तविक आय बढ़ाने की प्रक्रिया में पर्यावरणीय तथा पर्यावरणीय आगतों की अब तक अपेक्षित भूमिका पर बल देता है।“
प्रश्न 27. पारिस्थितिकीय उत्पादन।
उत्तर– पारिस्थितिक तंत्र की उत्पादकता का अर्थ होता है पोषण स्तर एक में स्वपोषित पौधों द्वारा सौर्थिक ऊर्जा तथा पोषक तत्त्वों का प्रयोग करके प्रकाश संश्लेषण विधि से प्रति समय इकाई में जैविक पदार्थों या ऊर्जा की वृद्धि दर। अर्थात् किसी भी पारिस्थितिकी तन्त्र में स्वपोषित हरी पत्ती वाले पौधों द्वारा प्रति समय इकाई में संचयित या स्थिर ऊर्जा या जैविक पदाथों की सकल मात्रा को पारिस्थितिक तंत्र की उत्पादकता कहते हैं।
प्रश्न 28. अनुक्रम एवं सेरे।
उत्तर– पादप समुदाय या समस्त पारिस्थितिक तंत्र में समय के परिवेश में एक दिशा में होने वाले क्रमिक परिवर्तनों की समस्त प्रक्रिया को अनुक्रम कहते हैं।
सेरे (Sere)-एक वनस्पति समुदाय से दूसरे वनस्पति समुदाय में क्रमिक परिवर्तनों की संक्रमणकालीन अवस्थाओं को सेरे (Sere) कहते हैं। सेरे उस समय पूर्ण होती है जब विभिन्न प्रावस्थाओं से गुजरने के बाद वनस्पतियों का अनुक्रम समस्थिति की दशा में परिणत हो जाता है।
प्रश्न 29. नीश की संकल्पना।
अथवा
पारिस्थितिकीय कर्मता क्या है?
उत्तर– पारिस्थितिकीय नीश की संकल्पना का प्रतिपादन सर्वप्रथम जे० ग्रिनेल द्वारा 1917 में किया गया। इसका विकास एवं संवर्द्धन चार्ल्स एल्टन ने किया।
परिभाषा – पारिस्थितिकीय नीश किसी खास प्रजाति को उसके पर्यावरण में कार्य की भूमिका तथा स्थिति को प्रदर्शित करता है। इसके अंतर्गत प्रजातियों द्वारा उपयोग किये जाने वाले संसाधनों की प्रकृति, उनके उपयोग के तरीकों एवं समय तथा उसके (प्रजाति) अन्य प्रजातियों के साथ अन्तक्रिया को सम्मिलित किया जाता है।
प्रश्न 30. खाद्य-श्रृंखला एवं खाद्य-जाल में अन्तर बताइए।
उत्तर- खाद्य-श्रृंखला एवं खाद्य-जाल में अन्तर:-
खाद्य – श्रृंखला (Food Chain):-
1.इकोसिस्टम में एक जीव से दूसरे जीव में भोज्य पदार्थों का स्थानान्तरण खाद्य-श्रृंखला कहलाता है।
2.इसमें ऊर्जा का प्रवाह एक दिशा में होता है।
3.इसमें उत्पादक, विभिन्न श्रेणी में उपभोक्ता तथा अपघटक होते हैं।
खाद्य जाल (Food Web):-
1.विभिन्न खाद्य श्रृंखलायें परस्पर मिलकर खाद्य-जाल बनाती हैं।
2.इसमें ऊर्जा का प्रवाह एक दिशा में होते हुए भी कई पथों से होकर गुजरता है।
3.इसमें अनेकों जीव समुदाय के उपभोक्ता तथा अपघटक होते हैं।
प्रश्न 31. पर्यावरणीय प्रतिबल किसे कहते हैं?
उत्तर– पर्यावरणीय प्रकोप, पर्यावरणीय आपदा तथा पर्यावरण अवनयन एवं प्रदूषण के संयमी प्रभाव जब इतने अधिक हो जाते हैं कि वे प्राकृतिक पर्यावरण की सहन शक्ति की सीमा को पार कर जाते हैं तथा पर्यावरण सन्तुलन विक्षुब्ध हो जाता है तो ऐसी स्थिति को पर्यावरणीय प्रतिबल कहते हैं।