GEOGRAPHY

SEMESTER – I

A110101T

UNIT 7

Table of Contents

इकाई – 7(I) – महासागरीय तल, जल का संघटन, तापमान एवं लवणता 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय तल के विन्यास का वर्णन कीजिए। 

अथवा 

महासागरीय तल विन्यास का संक्षिप्त विवरण देते हुए महासागरीय लवणता का वितरण दीजिए। 

अथवा  

महासागरीय तल के उच्चावच की सामान्य विशेषताओं का विवरण दीजिए। 

महासागरीय तल:- 

समस्त पृथ्वी के धरातल का 71 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है। पृथ्वी का कुल क्षेत्रफल 51 करोड़ वर्ग किमी. है, जिसके 36 करोड़ वर्ग मीटर में जल तथा 15 करोड़ वर्ग मीटर में स्थल है। आकार की दृष्टि से जल राशियों की खाड़ियों, झीलों, लघु-सागरों और महासागरों में बाँटा जाता है। पृथ्वी के नमकीन जल के विस्तार को सागर और बड़े सागर क्षेत्रों को महासागर कहा जाता है। इन महासागरों की तली की गहराई विभिन्नता लिए मिलती है। महासागरों की औसत गहराई 3800 मीटर है। यह गहराई महासागरों के तटों पर कम होती है और आन्तरिक भागों की ओर क्रमशः बढ़ती जाती है। महाद्वीपीय तटों से महासागरों की अथाह गहराई तक की सागरीय तली को गहराई के आधार पर चार उच्चावच मण्डलों में बाँटा गया है- 

1.महाद्वीपीय मग्नतट, 

2.महाद्वीपीय मग्नढाल, 

3.गहरे सागरीय मैदान, 

4.महासागरीय गर्त। 

1. महाद्वीपीय मग्नतट-

महाद्वीपों के वे किनारे वाले भाग जो धीमा ढाल रखते हैं तथा महासागरों के जल में डूबे हुए हैं, महाद्वीपीय मग्नतट कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में, महाद्वीपों के तट के समीप जो भूमि महासागरों के जल में डूब जाती हैं, महाद्वीपीय मग्नतट कहलाती हैं। मग्नतट की औसत गहराई 200 मीटर तक होती है। समस्त महाद्वीपीय मग्नतट का क्षेत्रफल लगभग 3 करोड़ वर्ग किमी० है जो समस्त सागरीय नितल का 8 प्रतिशत है। अटलांटिक महासागर अपने पूर्ण क्षेत्रफल के 13 प्रतिशत भाग पर, प्रशान्त महासागर अपने क्षेत्रफल के 6 प्रतिशत भाग पर तथा हिन्द महासागर अपने क्षेत्रफल के 4 प्रतिशत भाग पर महाद्वीपीय मग्नतट रखता है। महाद्वीपीय मग्नतटों की कुछ सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

(i) यदि तटवर्ती स्थलीय भाग नदियों के मैदानी भाग होते हैं तो यहाँ मग्नतट अधिक चौड़ा तथा विस्तृत होता है। 

(ii) यदि तटवर्ती भाग पर्वतीय होते हैं तो महाद्वीपीय मग्नतट सँकरे होते हैं। 

(iii) मग्नतटों पर सूर्य के प्रकाश, वनस्पति और भोजन की प्रचुरता होती है इसलिए यहाँ बड़ी मात्रा में मछलियों के भण्डार मिलते हैं। 

(iv) इन मग्नतटों का ढाल 20 से 30 के मध्य पाया जाता है। 

(v) मग्नतटों पर सागरीय निक्षेप, हिम निक्षेप तथा नदीय निक्षेप प्रधानता से मिलते हैं। 

2. महाद्वीपीय मग्नढाल-

महाद्वीपीय मग्नढाल के आगे महासागर की ढालयुक्त तली को महाद्वीपीय मग्नतट कहते हैं। कुल महासागरीय क्षेत्रफल के 8.5 प्रतिशत भाग में महाद्वीप मग्नढाल विस्तृत हैं। अटलांटिक सागर के 12 प्रतिशत भाग पर महाद्वीपीय मग्नढाल विस्तृत हैं। महाद्वीपीय मग्नढालों की कुछ सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i).मग्नढाल की गहराई 200 से 2,000 मीटर के मध्य होती है। 

(ii) मग्नढाल की औसत ढाल 50 होता है। स्पेन के तट के निकट मग्नढाल का ढाल 360 है। 

(iii) मग्नढाल पर जगह-जगह गहरी खाइयाँ तथा कन्दराएँ भी मिलती हैं।  

(iv) सामान्यतया मग्नडालों पर स्थलीय अवसादों का जमाव नहीं मिलता है। 

3. गहरे सागरीय मैदान-

महासागरीय मग्नढालों से नीचे की ओर गहरे सागरीय मैदान विस्तृत हैं। क्षेत्रफल की दृष्टि से गहरे सागरीय मैदान समस्त महासागरीय तली क्षेत्रफल का 76 प्रतिशत रखते हैं। प्रशान्त महासागर के 80 प्रतिशत, हिन्द महासागर के 80 प्रतिशत तथा अटलांटिक महासागर के 55 प्रतिशत भाग में गहरे सागरीय मैदान मिलते हैं।

गहरे सागरीय मैदानों की कुल सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

(i).गहरे सागरीय मैदानों की गहराई 3,000 मीटर से 6,000 मीटर के मध्य मिलती है। 

(ii) इनका ढाल बहुत धीमा होता है तथा ये मैदान क्षेत्रफल की दृष्टि से विस्तृत होते हैं। 

(iii) इन मैदानों पर कहीं-कहीं लम्बी-लम्बी कटक तथा सँकरे गर्त मिलते हैं।  

(iv) इन मैदानों पर स्थलीय निक्षेप नहीं मिलते हैं, जबकि सागरीय जीवों, वनस्पति और सागर के नमकीन (क्षारीय) पदार्थों का जमाव प्रमुखता से मिलता है।  

(v) गहरे सागरीय मैदान 200 उत्तरी अक्षांश से 600 दक्षिणी अक्षांश के मध्य प्रमुखता से मिलते हैं। 

4. महासागरीय गर्त-

महासागरीय तली के लम्बे, सँकरे तथा सर्वाधिक गहरे भाग महासागरीय गर्त कहलाते हैं। समस्त महासागरीय नितल के 7 प्रतिशत भाग में महासागरीय गर्त स्थित हैं। कम क्षेत्रफल वाले गहरे गड्डे (गर्त) तथा लम्बे, सँकरे तथा गहरे गड्डों (खाइयों) के रूप में महासागरीय गर्त मिलते हैं। इनकी सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

(i).महासागरीय गतों की गहराई 6,000 मीटर से 15,000 मीटर के मध्य मिलती है। 

(ii) महासागरीय गर्तों के ढाल खड़े होते हैं। 

(iii) अधिक गहरे होने के कारण पूर्ण अन्धकार रहता है तथा किसी भी प्रकार के निक्षेपों का अभाव रहता है। 

वर्तमान में 57 महासागरीय गतौँ की उपस्थिति प्रमाणित हो चुकी है जिनमें से 32 प्रतिशत महासागर में, 19 अटलांटिक सागर में तथा 5 हिन्द महासागर में हैं। 

प्रश्न 2. समुद्री जल में तापमान के क्षैतिज एवं ऊर्ध्वाधर वितरण की व्याख्या कीजिए।  

अथवा 

“समुद्री जल में तापक्रम का ऊर्ध्वाधर वितरण” पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। 

महासागरों के जल का तापमान भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर कम होता जाता है। उत्तरी गोलार्द्ध में विस्तृत जलमण्डल है जिसमें दक्षिणी महासागर तथा अन्ध महासागर हैं जो ध्रुवीय एवं शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में फैले हुए हैं, किन्तु उत्तरी गोलार्द्ध में विस्तृत मण्डल है। इस गोलार्द्ध में अन्ध तथा प्रशान्त महासागर संकरे जलडमरूमध्य द्वारा उत्तरी गोलार्द्ध से मिले हुए हैं जिसके कारणा पारस्परिक जल का आदान-प्रदान सीमित है। 

समुद्र सतह पर तापमान का वितरण:- 

महासागरों की ऊपरी सतह का तापमान साधारणतया विषुवत रेखा पर 26.6° सेग्रे०, 45° अक्षांश पर 15.5 सेण्टीग्रेड और ध्रुवों के निकट 1.6 सेग्रे० रहता है। इस प्रकार से सामुद्रिक सतह के तापक्रम के वितरण के दृष्टिकोण में महासागरों को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है- 

  1. भूमध्यरेखीय क्षेत्र-इस क्षेत्र में समुद्र सतह का तापक्रम ऊँचा रहता है और वार्षिक तापान्तर बहुत कम होता है। इस प्रदेश का औसत तापमान 26.6 सेग्रे० रहता है। ग्रीष्म ऋतु में सबसे अधिक तापमान फारस की खाड़ी में 24° सेग्रे० रहता है, क्योंकि यह खाड़ी चारों ओर स्थल भाग से घिरी हुई है। 
  2. शीतोष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र-कर्क रेखा और उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र एवं मकर और दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र के बीच दो मध्यवर्ती भाग हैं जिसका औसत तापमान 15° सेग्र० के लगभग रहता है। इस क्षेत्र के समुद्री सतह का तापमान ग्रीष्म ऋतु में बढ़ जाता है और शीत ऋतु में घट जाता है। भूमध्य सागर के जल का औसत ताप 11° सेग्रे० रहता है, क्योंकि समीपवर्ती स्थल खण्ड का प्रभाव भी पड़ता है।
  3. ध्रुवीय क्षेत्र-यह क्षेत्र उत्तरी और दक्षिण क्षेत्र के आस-पास फैला हुआ है। ध्रुवों के निकट वर्ष भर बर्फ के जमे रहने और शीतल हवाओं के कारण समुद्री सतह का तापमान 1.6° सेग्रे. रहता है।

स्थानीय कारणों से भी समुद्री सतह पर तापमान में भिन्नताएँ मिलती हैं। वायु की गति तथा मेघावरण का तापमान में वितरण पर प्रभाव पड़ता है। प्रतिचक्रवात तीव्रगति से बहने वाली हवाएँ तापमान को सम बना देती हैं, गर्म हवाएँ समुद्री सतह के तापमान को नीचे गिरा देती हैं। 

गहराई के अनुसार महासागरों के जल का तापमान  ध्रुवीय क्षेत्रों को छोड़कर अन्य लगभग सभी भागों में महासागरीय जल का तापमान सतह से तल की ओर कम होता जाता है। भूमध्य रेखा पर समुद्र की सतह का तापमान 26.6° सेग्रे० है, किन्तु 1098 मीटर नीचे जाने पर तापमान 4.5° सेग्रे० रह जाता है। यह तापमान 3660 मीटर के नीचे 1.6° सेग्रे0 से कम नहीं होता है। इस प्रकार समुद्री सतह के नीचे की ओर प्रथम दो तापक्रम एक निश्चित गहराई तक बड़ी तीव्रता से कम होता है, परन्तु उसके बाद तापमान घटने की गति धीमी हो जाती है। ऋतुओं के अनुसार समुद्र जल का तापमान परिवर्तन नीचे की ओर कम होता है। यहाँ तक कि लगभग 600 फीट से अधिक गहरे भागों का तापमान वर्ष भर लगभग समान ही रहता है। गहरे समुद्रों में सदैव शीत का राज्य रहता है। गहराई में भी महासागरों के तापमान में भिन्त्रता मिलती है। इसके निम्नांकित कारण हैं-  

  1. समुद्रों द्वारा गृहीत तापमान की मात्रा।
  2. जल का ऊपर से नीचे एक साथ गर्म होना।
  3. समुद्री सतह के जल का महासागरी धाराओं के रूप में परिवर्तित होना।
  4. जल के नीचे से ऊपर तथा ऊपर से नीचे लम्बवत् गतिमान होना।

समुद्र की गहराई में जल का तापमान तीव्रता से घटता है, किन्तु कुछ गहरा होने के पश्चात् इसकी गति कम हो जाती है। 1830 मीटर की गहराई के पश्चात् गहरे भाग में समुद्री जल का तापमान प्रत्येक स्थान पर समान रहता है। यह तापमान प्रायः 1.7° से 2.2° सेण्टीग्रेड रहता है। 3660 मीटर की गहराई पर जल हिमांक से कुछ ऊपर रहता है। इसका कारण यह है कि गहरे भाग का जल ठण्डा हो जाता है और इसका तापमान समान रहता है। जिब्राल्टर जलडमरूमध्य के निकट भूमध्य सागर की सतह का तापमान 18.3 सेग्रे० रहता है जो अन्य महासागरीय भू-अभिनिति से 348 मीटर गहरी है। अतः इस गहराई तक दोनों महासागरों में जल समान रूप से ठण्डा होता रहता है। इसका तापमान 12.8° सेग्रे० तक हो जाता है, किन्तु इसके पश्चात् भूमध्य सागर के पेटे तक जल का तापमान वही होता है क्योंकि इससे अधिक गहराई पर अन्य महासागर का जल भूमध्य सागर में प्रवेश नहीं करता।  

प्रश्न 3. महासागरीय लवणता की उत्पत्ति का समीक्षात्मक परीक्षण करते हुए महासागरीय लवण एवं उसके संरचना अनुपात का विश्लेषणात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए। 

लवणता की परिभाषा:- 

साधारण लवणता उस अनुपात को कहते हैं जो घुले हुए पदार्थों के तौल तथा सागरीय जल के तौल में होती है। यह अनुपात प्रति हजारवे भाग में व्यक्त किया जाता है। 

डिट्टमार के अनुसार समुद्री जल की लवणता के मूल कारण उसमें मिश्रित नमक हैं। रासायनिक खोजों के आधार पर यह निश्चित हुआ है कि सागरीय जल से सोडियम क्लोराइड बहुत अधिक (27.213 प्रति हजार) घुलनशील व्यवस्था में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त मैग्नीशियम क्लोराइड 28.07 प्रति हजार, कैल्शियम सल्फेट 1.658 प्रति हजार, मैग्नीशियम सल्फेट 1.26 प्रति हजार पोटैशियम सल्फेट 0.863 प्रति हजार, कैल्शियम कार्बोनेट 0.123 प्रति हजार तथा मैग्नीशियम ब्रोमाइड 0.076 प्रति हजार सागरीय जल में घुले हुए रहते हैं। समुद्र के जल में संवहनीय गति है जिससे जल एक समान बना रहता है और घुले हुए तत्त्वों के सापेक्षिक अनुपात में स्थिरता बनी रहती है। 

1. वाष्पन के फलस्वरूप लाखों टन समुद्री जल उड़ जाता है, किन्तु लवणता की मात्रा समुद्र में ही रह जाती है। प्रति वर्ष इस लवणता में वृद्धि हो जाती है, क्योंकि वाष्पन एवं नदी प्रवाह का चक्र जारी रहता है। 

2. समुद्री जल में नदियों द्वारा नमक पहुँचाया जाता है। समुद्र के जल में सोडियम क्लोराइड होता है तथा नदियों के जल में चूने का कार्बोनेट होता है जो समुद्री जानवर प्रयोग करते हैं तथा जिससे घोंघे के ढाँचे बनाते हैं। इस प्रकार यह देखा जाता है कि सागरीय जल में नमक केवल नदियों द्वारा अथवा स्वयं समुद्रों द्वारा नहीं प्राप्त होता, बल्कि दोनों स्रोतों के द्वारा उपलब्ध हैं। लाखों वर्ष के क्रम में महासागरों में नमक की मात्रा बहुत बढ़ गयी है। 

सागरों की लवणता में भिन्नता:- 

प्रति घन किलोमीटर समुद्र में 4.5 करोड़ मीट्रिक टन नमक है। सागरों में लवणता साधारण तौर से 33 प्रति हजार और 37 प्रति हजार के बीच होती है। अधिक वर्षा वाले समुद्री भागों में तथा नदियों के मुहाने के निकट समुद्री भागों की सतह की लवणता बहुत कम होती है। कुछ अर्द्ध-बन्द क्षेत्र जैसे- बोधीनियों की खाड़ी का खारापन 5 प्रति हजार से भी कम होता है मध्यवर्ती अक्षांशों से घिरे समुद्रों की लवणता लगभग 35 हजार मानी गयी है। इससे कम लवणता भूमध्य रेखा के निकटवर्ती समुद्रों में होती है, क्योंकि वहाँ वर्षा अधिक होती है तथा बादलों का बाहुल्य रहता है। बड़ी नदियों द्वारा अपार स्वच्छ जल प्राप्त होता है। 

सागर एवं महासागर के खारेपन के प्रमुख कारण:- 

(1).स्वच्छ जल की पूर्ति, (2) वाष्पन की मात्रा, (३) सागरीय मिश्रण क्रिया द्वारा किये गये परिवर्तन, (4) वायुदाब हवाएँ एवं जलधाराएँ। 

सागरों से लवणता का प्रदर्शन सम-लवण रेखाओं के द्वारा किया जाता है जो समान लवणता के जलीय भागों को मिलाती हैं। लवणता के वितरण के सम्बन्ध में सबसे सामान्य तथ्य यह है कि लवण यौगिकों का विस्तार पूरब-पश्चिम होने की प्रवृत्ति मिलती है। 

सागरीय लवणता का वितरण:- 

सागरीय सतह के दो क्षेत्रों में, जो कर्क और मकर रेखाओं पर स्थित हैं, सबसे अधिक लवणता की मात्रा होती है। यहाँ इन क्षेत्रों में भूमध्य रेखा तथा ध्रुवों की ओर खारापन कम हो जाता है। इन क्षेत्रों में अधिक खारापन का कारण वर्षा की बहुत कमी, स्वच्छाकाश, नदियों का अधिक अभाव। कड़ी धूप, उष्ण कटिबन्धीय प्रतिचक्रवात तथा सन्मार्गी हवाएँ हैं जिससे वहाँ वाष्पन क्रिया बहुत तीव्र गति से होती है और सागरीय जल खारा हो जाता है। यह लवणता भूमध्य रेखा तथा ध्रुवों की ओर कम हो जाती है। 

विवृत्त सागर-भूमध्य रेखा के निकटवर्ती सागरीय सतह पर वर्षपर्यन्त अधिक संवहनीय वर्षा तथा अधिक बादलों के कारण वाष्पन की कमी जल को स्वच्छ रखती है और खारापन बहुत कम पाया जाता है। अमेजन, कांगो तथा नाइजर आदि विशाल नदियों के मुहानों पर नदियों द्वारा अपरिमित स्वच्छ जल के उड़ेलने से खारापन बहुत कम पाया जाता है। एक ही तापमान का स्वच्छ जल नमकीन जल की अपेक्षा हल्का होता है। अतः नदियों द्वारा लाया गया जल मिश्रण के पूर्व कुछ समय तक समुद्री जल के ऊपर तैरता रहता है। यहाँ 34 प्रति हजार लवणता है। 

ध्रुवों की ओर के क्षेत्रों में जल बहुत स्वच्छ रहता है, क्योंकि वह जल बर्फ के पिघलने से प्राप्त होता है। जल वर्षा से भी स्वच्छ रहता है, क्योंकि वह जल बर्फ के पिघलने से प्राप्त होता है। वाष्पन भी कम होता है। अधिक मेघाच्छादन रहता है। अतः सागरीय सतह पर जल का खारापन बहुत कम होता है। यहाँ 32 हजार प्रति लवणता है। 

सागरीय जल में खारेपन की भित्रता ही जल प्रवाह का कारण बनती है। ठण्डा तथा कम खारा जल महाद्वीपों के पूर्वी किनारे के सहारे तब तक बहता रहता है जब तक वह उष्ण कटिबन्धीय गरम तथा हल्के जल के नीचे नहीं बैठ जाता है। 

अर्द्ध विवृत्त सागर-भूमध्य सागर एवं बाल्टिक सागर जैसे समुद्र, जो सँकरे जलडमरूमध्य द्वारा महासागरों से मिले रहते हैं, खारापन की दृष्टि से भिन्न हैं। भूमध्य सागर के जल में बड़ी लवणता है। भूमध्य सागर में जिब्राल्टर के पास 36.5 प्रति हजार खारापन पाया जाता है जो पूरब की ओर बढ़ता जाता है। यहाँ तक कि पूर्वी भूमध्य सागर में खारापन 29 प्रति हजार रहता है। लाल सागर के दक्षिणी किनारे पर खारापन 36.5 प्रति हजार रहता है, जो उत्तर की ओर स्वेज नहर के समीप बढ़कर 41 प्रति हजार हो जाता है। इस प्रकार के खारेपन का उदाहरण संवृत सागरों में ही पाया जाता है जो खुले सागरों के खारेपन से बहुत अधिक होता है। 

वायुमण्डल का दाब एवं हवाओं का गहरा प्रभाव:- 

खारेपन के वितरण में वायुमण्डल का दाब तथा हवाओं का गहरा प्रभाव पड़ता है, बाहरी सागरों की अपेक्षा बाल्टिक सागर के ऊपर वायुदाब कम रहता है। अतः इसमें अन्य सागरों से कम खारापन पाया जाता है। इसमें रूजन द्वीपों के समीप खारापन केवल 7 या 8 प्रति हजार रहता है जो उत्तर की ओर क्रमशः कम हो जाता है, यहाँ तक कि बोथोनिया तथा फिनलैण्ड की खाड़ी में खारापन केवल 2 प्रति हजार हो पाया है अर्थात् जल लगभग स्वच्छ एवं ताजा रहता है। इसका मुख्य कारण वर्षा और ओडर, विश्चुअला नदियों तथा बर्फ द्वारा बहुत अधिक साफ जल की प्राप्ति है। यहाँ जल के ठण्डा होने के कारण अति अल्प वाष्पन होता है। परिबद्ध सागर एवं झीलें-संवृत्त जलीय भागों का खारापन स्वच्छ जल की प्राप्ति या पूर्ति या पूर्ति एवं वाष्पन पर निर्भर रहता है। यदि स्वच्छ जल की पूर्ति वाष्पन द्वारा प्राप्त जल से कम होती है तो धीरे- धीरे खारा होता है। अतः ऐसे जलीय भागों में जल का खारापन समय पर निर्भर करता है। 

जिस परिबद्ध सागर अथवा झील में पानी के बाहर निकलने का मार्ग रहता है उसका पानी कम नमकीन होता है, क्योंकि बाहर निकलने वाली नदियाँ खारेपन को दूर बहा ले जाती हैं। बन्द सागर अथवा झीलों में स्वच्छ जल की प्राप्ति एवं वाष्पन बराबर होता रहता है तो खारापन नहीं बढ़ने पाता है। अतः झील अथवा बन्द सागरों का खारापन बढ़ना उस समय तक जारी रहता है जब तक कि उनके खारे जल के बाहर निकलने के लिए कोई मार्ग नहीं मिलता है। 

सागरीय जल का दबाव 1 किलोमीटर गहराई पर 170 किलोग्राम प्रति वर्ग सेण्टीमीटर रहता है, किन्तु पानी दबाव से कम सिकुड़ता है। अतः अधिक गहराई पर भी सतह का ही घनत्व रहता है। इसी कारण कोई वस्तु, जो सतह पर डूब जायेगी, समुद्र तल पर पहुँच जायेगी। 

जल में मिश्रण के कारण घनत्व बढ़ जाता है। अतः कोई वस्तु डूब नहीं सकती है। मृत सागर में मनुष्य डुबकी नहीं लगा सकता है। उसका शरीर अपेक्षाकृत हल्का होने से उत्तराने लगता है। 

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. सागरीय जल की लवणता पर टिप्पणी लिखिए। 

अथवा 

महासागरीय जल में लवणता की विभिन्नता के चार कारणों का उल्लेख कीजिए। 

अथवा 

महासागरीय लवणता पर एक निबन्ध लिखिए। 

उत्तर- सागर लवणता के कारण-सागरीय जल में लवणता अनेक कारणों से उत्पन्न होती है। 

मानचित्रों पर लवणता का वितरण ‘समलवण रेखाओं’ द्वारा प्रकट किया जाता है। सागरीय जल में लवणता की उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी होते हैं- 

1. शुद्ध जल की पूर्ति-सागरों के जल में लवणता पहुँचाने का स्त्रोत नदियाँ हैं। नदियाँ अपने जल के साथ चट्टानों के रासायनिक तत्त्व तथा लवण के अंश बहाकर ले जाती हैं। ये अंश सागरीय जल में लवणता उत्पन्न कर देते हैं। नदियों के मुहानों की अपेक्षा सागर के आन्तरिक भागों में लवणता अधिक पायी जाती है। 

2. वाष्पीकरण-तापमान के कारण सागर का जल भाप बनकर ऊपर उठ जाता है जिसे ‘वाष्पीकरण’ कहते हैं। वाष्पीकरण सागरीय जल में लवणता उत्पन्न करने के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी होता है। वास्तव में वाष्पीकरण के कारण सागर का शुद्ध जल तो भाप बनकर उड़ जाता है, जबकि लवण की मात्रा वहीं रह जाती है। यही कारण है कि जिन सागरों में वाष्पीकरण अधिक होता है, वहाँ लवणता भी अधिक पायी जाती है। 

3. तापमान-तापमान सागरीय जल में पाये जाने वाले लवण कणों के लिए उत्तरदायी होता है। तापमान के कारण सागर का शुद्ध जल भाप बनकर उड़ जाता है, जबकि उसमें घुले हुए सोडियम क्लोराइड, मैग्नीशियम तथा कैल्शियम आदि लवण वहीं रहकर लवणता उत्पन्न करते हैं। ध्रुवीय क्षेत्रों में कम तापमान होने के कारण ही वहाँ सबसे कम लवणता पायी जाती है। 

4. सागरीय जलधाराएँ- सागरीय जलधाराएँ अपने साथ खारा और ताजा जल बहाकर लाती हैं। ये धाराएँ खारा जल एक स्थान में एकत्र करके सागरीय जल में खारापन बढ़ा देती हैं। अटलाण्टिक ड्रिफ्ट के कारण ही नार्वे के उत्तरी भागों में लवणता पायी जाती है। प्रायः देखने में आया है कि लवणता की मात्रा सागरीय जल में सर्वत्र एक समान नहीं पायी जाती है। खुले महासागरों की अपेक्षा घिरे महासागरों के जल में अधिक लवणता पायी जाती है। ध्रुवीय तथा विषुवत् रेखीय क्षेत्रों की अपेक्षा कर्क और मकर रेखा के क्षेत्रों में अधिक लवणता पायी जाती है। सागरीय जल में लवणता की भिन्त्रता के लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी हैं- (अ) स्वच्छ जल की आपूर्ति, (ब) वाष्पीकरण की मात्रा, (स) तापमान की मात्रा, (द) जलधाराएँ, (य) प्रचलित पवनें, (र) वर्षा। 

प्रश्न 2. महासागरीय तापमान के लम्बवत् वितरण की विशेषताएँ बताइए।  

अथवा 

समुद्र जल के तापमान वितरण को समझाइए। 

उत्तर- सागरीय जल के तापमान के लम्बवत् वितरण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 

1. विभिन्न अक्षांशीय क्षेत्रों पर गहराई की ओर तापमान के कम होने की दर में विभिन्नता पाई जाती हैं। भूमध्यरेखीय क्षेत्रों पर गहराई के साथ तापमान के गिरने की दर ध्रुवों की अपेक्षा धीमी होती है। 

2. जिन महासागरीय भागों में अधिक वर्षा होती है वहाँ सागरीय सतह का जल कम गर्म होता है, जबकि सागरीय सतह के नीचे तापमान अपेक्षाकृत अधिक रहता है। 

3. जिन महासागरीय भागों से गर्म जलधाराएँ गर्म जल बहाकर लाती हैं उन भागों में तापमान के गिरने की गति धीमी होती है, जबकि जिन महासागरीय भागों में गर्म जलधाराओं द्वारा यह गर्म जल इकट्ठा किया जाता है वहाँ तापक्रम गहराई के साथ गिरने की गति अपेक्षाकृत अधिक होती है।  

4. गर्म बन्द सागरों में 2,000 मीटर तक सागरीय जल के तापमान धीमी गति से कम होते हैं, लेकिन इसके बाद तापमान तेजी से गिरते हैं।

5. ठण्डे बन्द सागरों की सतह का तापमान बहुत कम होता है, जबकि इन सागरों के निचले भागों में तापमान सागरीय सतह की तुलना में अधिक मिलता हैं। 

प्रश्न 3. महासागरीय लवणता के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक। 

उत्तर- 

  1. नदियाँ-नदियों एवं भूमिगत जल नलिकाओं का अन्तिम प्रवाह महासागर में एकत्रित होता रहता है। नदियों के जल के द्वारा चूना, अनेक प्रकार के खनिज व रसायन पदार्थ प्रति वर्ष करोड़ों टन की मात्रा में समुद्र में एकत्रित किये जाते हैं, किन्तु इसमें सबसे अधिक चूना एवं चूना मिश्रित लवण होते हैं, जबकि सागर जल में चूने का मिश्रण 0.12 ग्राम प्रति किग्रा० ही है। इसके दूसरी ओर यहाँ कुल लवणता 35% ही पायी जाती है एवं इसमें भी सबसे अधिक सोडियम क्लोराइड पाया जाता है। अतः कैल्शियम की इस प्राप्ति से खारापन बढ़ने में विशेष या उल्लेखनीय सहायता नहीं मिलती है। फिर अधिकांश चूना तो प्रवाल एवं चूनामय पंक भी उपयोग करते रहते हैं। अतः उसकी भी सागर जल में वृद्धि नहीं हो पाती। 
  2. समुद्री लहरें-समुद्री लहरें तटवर्ती भागों एवं निमग्न तट (महाद्वीपीय चबूतरे) पर फैली चट्टानों की बराबर काट-छांट करती रहती हैं। ऐसा करते समय चट्टानों में पाये जाने वाले लवण, क्षार, चूना एवं अन्य घुलनशील पदार्थ खारे पानी में घुलते जाते हैं। इस विधि से भी सागर जल में अनेक प्रकार का खारापन स्थानीय रूप से प्राप्त होता रहता है, क्योंकि अनेक चट्टानों में क्लोराइड, फास्फेट, सल्फेट एवं कार्बोनेट व अन्य यौगिक के रूप में जमाव पाये जाते हैं। यह निरन्तर सागर जल में घुलते जाते हैं। तटीय लहरों के प्रभाव से सोडियम, कैल्शियम एवं सल्फेट यौगिकों की प्राप्ति अधिक होती है।
  3. अन्य-इसके अतिरिक्त पवनों द्वारा उड़ाकर लायी गयी वस्तु भी सागर जल में मिलकर अपने घुलनशील तत्त्व सागर जल में समा देती है। मरुस्थलीय प्रदेशों में तूफानी मौसम के समय अपार मात्रा में मिट्टी का प्रवाह होता रहता है। तब सागर जल को भी अधिक मात्रा में मिट्टी या बालू प्राप्त होती रहती है। इसी भाँति ज्वालामुखी विस्फोट द्वारा भी कहीं-कहीं तटीय प्रदेशों, द्वीपों एवं सागर तली में ज्वालामुखी से अनेक प्रकार के पदार्थ गैस व ठोस रूप में प्राप्त होते रहते हैं। ज्वालामुखी धूल, राख, मलवा एवं गैसों से भी लवणता प्राप्त होने में सहायता मिलती है। इस प्रकार उपर्युक्त स्रोतों से महासागरों एवं सागरों को खारापन प्राप्त होता रहता है।

प्रश्न 4. समुद्री जल के तापमान को प्रभावित करने वाले कारकों का विवरण प्रस्तुत कीजिए। 

उत्तर- समुद्री जल के तापमान को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं- 

1. स्थल खण्डों का वितरण- पृथ्वी पर उत्तरी गोलार्द्ध में स्थल खण्ड अधिक हैं, जबकि दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थल खण्डों की कमी है। यही कारण है कि दक्षिणी गोलार्द्ध के महासागरों की तुलना में उत्तरी गोलार्द्ध के महासागर गर्मियों में सबसे अधिक गर्म (150 से 300 उत्तरी अक्षांशों के मध्य) एवं शीतकाल में महाद्वीपों से चलने वाली बर्फीली हवाओं के प्रभाव से ठण्डे हो जाते हैं। 

2. प्रचलित पवनें- पवनों का प्रभाव सागर तल पर स्पष्ट दिखायी देता है। पवनें न सिर्फ उष्ण कटिबन्धीय वायुमण्डल के ताप को शीतोष्ण वायुमण्डलीय प्रदेशों की ओर प्रवाहित करती हैं, वरन् जिस सागर तल से होकर बहती हैं, उसे भी उष्ण या शीतल बनाती हैं। पछुआ पवनें अयनवृत्तों का ताप शीतोष्ण सागरों की ओर भी वितरित करती हैं। ऐसे प्रभाव से न सिर्फ सागर तल ही प्रभावित होता है, बल्कि विक्षोभमण्डल की संघनन क्रिया में पछुआ हवा के प्रदेशों में (शीतोष्ण प्रदेश में) हिम वर्षा के स्थान पर जल वृष्टि का महत्त्व बढ़ जाता है। 

3. हिमशिलाओं का प्रभाव – अण्टार्कटिका महाद्वीप एवं ग्रीनलैण्ड बर्फ से ढके प्रदेश हैं। यहाँ से हिमखण्ड सागर तल पर दूर तक बहते रहते हैं। ऐसे हिम शैलों (आइसबर्ग) के प्रभाव से उनके आस-पास के सागर जल का तापमान काफी नीचे गिर जाता है। न्यूफाउण्डलैण्ड के निकट, हडसन की खाड़ी में, पूर्वी साइबेरिया के तटीय भागों एवं सुदूर दक्षिणी ध्रुवीय सागरों के बर्फीले तापमान का एक मुख्य कारण हिम खण्डों का ध्रुवों से 500 से 600 अक्षांशों तक बहकर आना एवं वहाँ पिघलना रहा है। 

4.भूगर्भिक ताप- महासागरों की तली में कुछ भूगर्भिक ताप की भी प्राप्ति होती है। यद्यपि इसकी मात्रा सूर्यातप के एक हजारवें भाग से भी कम होती है, किन्तु सागरीय जल के तापमान पर इसके प्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता है। अन्य कारणों में स्थानीय रूप से तूफानी मौसम, सागर की गहराई में ऊँची श्रेणी का विस्तार, महासागरों की तटीय खाड़ियाँ एवं अधखुले सागरों की विशेष स्थिति आदि मुख्य हैं। 

प्रश्न 5. गल्फस्ट्रीम जलधारा पर एक टिप्पणी लिखिए। अथवा गल्फस्ट्रीम का वर्णन कीजिए। 

उत्तर-इस जलधारा की उत्पत्ति मैक्सिको की खाड़ी में होती है, इसलिए इसे ‘गल्फस्ट्रीम’ अर्थात् ‘खाड़ी की धारा’ कहा जाता है। मैक्सिको की खाड़ी में यह जलधारा 48 किलोमीटर चौड़ी है तथा एक किलोमीटर गहरी है। यहाँ इसकी गति 5 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। इस जलधारा का तापमान 27° सेल्सियस है। यह जलधारा फ्लोरिडा जल सन्धि से निकलकर उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के साथ-साथ उत्तर की ओर बढ़ती है। संयुक्त राज्य अमेरिका तट के निकट इसकी गति 10 किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। लगभग 40° उत्तरी अक्षांश ांश के के आगे हैलीफैक्स के दक्षिण से इसका प्रवाह पूर्णतः पूर्व की ओर हो जाता है। 45° पश्चिमी देशान्तर के निकट इसकी चौड़ाई बहुत बढ़ जाती है जिससे धारा के रूप में इसका चरित्र बिल्कुल नष्ट हो जाता है। फलतः यहाँ इसका नाम ‘उत्तरी अटलांटिक प्रवाह’ पड़ जाता है। यही प्रवाह आगे यूरोप में नार्वे के उत्तरी-पश्चिमी तट की ओर चला जाता है और उत्तरी ध्रुव सागर में विलीन हो जाता है।  

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय नितल। 

उत्तर- पृथ्वी के तीन-चौथाई भू-भाग पर महासागरों का विस्तार है। इन नितलों पर पर्वत, गहरी खाइयाँ तथा विशालतम मैदान हैं। महासागरीय नितल को उच्चावच के आधार पर चार भागों में बाँटा गया है- (i) महाद्वीपीय मग्नतट, (ii) महाद्वीपीय मग्नढाल, (iii) महासागरीय मैदान और (iv) महासागरीय गर्त। 

प्रश्न 2. महाद्वीपीय मग्नतट। 

उत्तर- समुद्रतट से समुद्र की ओर मंद ढाल वाला जल मग्न धरातल महाद्वीपीय मग्नतट कहलाता है। यह महासागर का सबसे उथला भाग होता है जिसका औसत ढाल 19 से 3° के बीच होता है। यह शेल्फ अत्यन्त तीव्र ढाल पर समाप्त होता है, जिसे शेल्फ अवकाश कहा जाता है। सामान्यतः मग्नतट की चौड़ाई और ढाल में विपरीत सम्बन्ध होता है। 

प्रश्न 3. महाद्वीपीय मग्नढाल। 

उत्तर- मग्नतट तथा सागरीय मैदान के बीच तीव्र ढाल वाले मंडल को महाद्वीपीय मग्नढाल कहते हैं। इसकी ढाल प्रवणता मग्नतट के मोड़ के पास से सामान्यतः 40 से अधिक होती है। मग्नढाल पर जल की गहराई 200 मीटर से 3000 मीटर के बीच होती है। इस क्षेत्र में सागरीय निक्षेप का अभाव पाया जाता है। मग्नढाल समस्त सागरीय क्षेत्रफल के 8.5 प्रतिशत भाग पर फैला है।  

प्रश्न 4. गहरे समुद्री मैदान। 

उत्तर- गहरे समुद्री मैदान महासागरीय बेसिनों के मंद ढाल वाले क्षेत्र होते हैं। इनकी गहराई 3000 से 6000 मीटर तक होती है। समस्त महासागरीय क्षेत्रफल के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र पर इनका विस्तार पाया जाता है। प्रशान्त महासागर में इसका सर्वाधिक विस्तार है। ये मैदान महीन कणों वाले अवसादों जैसे मृतिका एवं गाद से ढके होते हैं।  

प्रश्न 5. महासागरीय गर्त।  

उत्तर- ये महासागर के सबसे गहरे भाग होते हैं। ये महासागरीय नितल के लगभग 7 प्रतिशत भाग पर फैले हैं। आकार की दृष्टि से महासागरीय गर्तों को दो भागों में विभाजित किया जाता है। लम्बे गर्त को ‘खाई’ जबकि कम क्षेत्रफल वाले किन्तु गहरे गर्त को ‘गर्त’ कहते हैं। विश्व का सबसे गहरा गर्त ‘मेरियाना गर्त’ है जो प्रशान्त महासागर में अवस्थित है। 

प्रश्न 6. निमग्न द्वीप।  

उत्तर– यह चपटे शिखर वाले एक प्रकार के समुद्री टीले ही होते हैं। इनका निर्माण भी ज्वालामुखी क्रिया के परिणामस्वरूप ही होते हैं। 

प्रश्न 7. महासागरीय तापमान को प्रभावित करने वाले कारक। 

उत्तर- महासागरीय तापमान को प्रभावित करने वाले कारक इस प्रकार हैं- (1) अक्षांश, (ii) बल एवं स्थल के वितरण में असमानता, (iii) दिन की अवधि, (iv) वायुमण्डल की स्वच्छता, (v) सूर्य से पृथ्वी की दूरी, (vi) सौर्य कलंकों की संख्या, (vii) समुद्री धाराएँ। इन सभी कारकों में से अक्षांशीय स्थिति में भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर बढ़ने पर तापमान कम हो जाता है। 

प्रश्न 8. सागरीय लवणता को प्रभावित करने वाले कारक। 

उत्तर- सागरीय लवणता को प्रभावित करने वाले कारक इस प्रकार हैं- (i) वाष्पीकरण, (ii) वर्षा द्वारा जल की आपूर्ति, (iii) नदी के जल का आगमन, (iv) प्रचलित पवनें, (v) महासागरीय धाराएँ, (vi) महासागरीय जल का संचरण। वाष्पीकरण की मात्रा कम ज्यादा होने से लवणता नियंत्रित होती है। वर्षा का जल जितना अधिक आता है लवणता कम हो जाती है। 

प्रश्न 9. महासागरीय जल का तापमान।  

उत्तर- महासागरों की सतह के जल का औसत तापमान लगभग 27°होता है और यह विषुवत् वृत्त से ध्रुवों की ओर क्रमिक ढंग से कम होता जाता है। उच्चतम तापमान विषुवत् वृत्त पर नहीं बल्कि इससे उत्तर की ओर दर्ज किया जाता है। उत्तरी एवं दक्षिणी गोलार्द्ध का औसत वार्षिक तापमान क्रमशः 19°तथा 16°के आसपास होता है। 

प्रश्न 10. महासागरीय जल के तापमान का क्षैतिज वितरण।  

उत्तर- भूमध्यरेखा पर सतह का तापमान 26.7°होता है। इसके ध्रुवों की ओर तापमान में क्रमिक रूप से कमी आती है जो प्रत्येक अक्षांश पर 0.5°की दर से कम होता है। 20°अक्षांश के पास 22°C, 40°C अक्षांश के पास 14° तथा 60° अक्षांश के पास 1°एवं ध्रुवों के पास 0°तापमान पाया जाता है।  

इकाई -7(II) – महासागरीय जलधाराओं का परिभ्रमण एवं ज्वार-भाटा 

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय जलधाराओं की उत्पत्ति के क्या कारण हैं? महासागरों की मुख्य जलधाराओं का वर्णन कीजिये तथा उनके महत्त्वपूर्ण प्रभाबों को बताइए। 

अथवा  

महासागरीय धाराओं की उत्पत्ति के प्रमुख भौगोलिक कारक क्या हैं? प्रशान्त महासागर की धाराओं का वर्णन कीजिए। 

अथवा  

महासागरीय धाराओं की उत्पत्ति की व्याख्या कीजिए तथा प्रशान्त महासागर की धाराओं का वर्णन कीजिए। 

महासागरों की दूसरी गति धाराएँ हैं। इनमें महासागरों की ऊपरी सतह का जल निश्चित दिशा में लगातार चला करता है। महासागरीय जलतल पर स्थल की नदियों की भाँति धाराओं की चाल स्पष्ट दिखाई पड़ती है। मांकहाउस महोदय के मतानुसार, “समुद्री सतह की जलराशि का एक विशिष्ट दिशा में प्रवाह ही धारा कहलाती है।“ विभिन्न महासागरों की धाराओं की चाल भिन्न-भिन्न होती है। इनकी औसत चाल 3 से 10 किलोमीटर प्रति घण्टा तक होती है। 

जलधाराओं की उत्पत्ति के कारण:- 

सागरों की धाराओं के उत्पन्न होने के अनेक कारण बतलाये जाते हैं। ये कारण विभिन्न अवस्थाओं में अलग-अलग  या सम्मिलित रूप में धाराओं की उत्पत्ति के कारण होते हैं। 

  1. उष्णता की विभिन्नता- वर्ष भर कड़ी गरमी पड़ने के कारण भूमध्य रेखीय प्रदेशों के महासागरों का जल गर्म होता रहता है और गर्म होने के कारण हल्का भी हो जाता है, परन्तु ध्रुवीय प्रदेशों में सागरों का जल समुद्रों की सतह पर ध्रुवों की ओर प्रवाहित होने लगता है और ध्रुवीय प्रदेशों के सागरों का जल सागरीय तल पर भूमध्य रेखा की ओर चलता है।
  2. लवणता में भिन्नता- सागरों की सतह पर ऊष्मा के अनुसार वाष्पन होता रहता है। सागरों का खारापन वाष्पन पर निर्भर करता है। जहाँ वाष्पन होता है वहाँ का जल अधिक खारा होता है, परन्तु नदियों एवं वर्षों के द्वारा स्वच्छ जल की पूर्ति से खारापन बढ़ने नहीं पाता है, किन्तु फिर भी सागरों के विभिन्न भागों के जल, उष्णता, वाष्पन एवं वर्षा के कारण विभिन्न मात्रा में लवणता पायी जाती है। जल में जितना अधिक खारापन होता है वह जल उतना ही अधिक घना और भारी होता है तथा कम खारेपन के सागरों का घनत्व कम और जल हल्का होता है। अधिक घनत्व का भारी जल समुद्र की सतह पर बैठ जाता है, जबकि घनत्व का हल्का जल सतह पर आ जाता है। सागरों की सतह पर जब विभिन्न घनत्व का जल एक-दूसरे से मिला हुआ होता है तो कम घनत्व वाले सागरीय सतह का जल अधिक घनत्व वाले सागरीय सतह की ओर प्रवाहित होने लगता है।
  3. घनत्व में भिन्नता- तापमान एवं लवणता की भिन्नता के कारण घनत्व भी भिन्न पाया जाता है। अधिक घनत्व का जल भारी होने के कारण नीचे तली में बैठ जाता है और कम घनत्व का जल हल्का होने के फलस्वरूप ऊपरी सतह पर फैलता है। भूमध्यरेखीय एवं ध्रुवीय प्रदेशों के जल में घनत्व की भिन्नता है और इन देशों में धाराएँ चलती हैं।
  4. पृथ्वी के घूर्णन- पृथ्वी के घूर्णन के कारण धाराओं की आकृति गोल हो जाती है। धाराओं पर भी फेरल का नियम लागू होता है। उत्तरी गोलार्द्ध में ये अपनी दायीं ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बायीं ओर मुड़ जाती हैं। उत्तरी अटलाण्टिक सागर में कनारी धारा पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखायी पड़ता है। इस प्रकार महासागरों में धाराओं के भँवर बन जाते हैं। पृथ्वी के विशेष बल के कारण वायु की दिशा एवं धारा की दिशा में भिन्नता मिलती है। उत्तरी गोलार्द्ध में दाहिने तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में धाराएँ बायीं ओर मुड़ जाती हैं। एकमेन महोदय ने वायु की दिशा तथा धाराओं की दिशा में 45° का अन्तर बताया है, किन्तु सतह से समुद्र की तली पर पहुंचते ही सतह के विपरीत धारा चलती है। एकमेन द्वारा निर्धारित कोणात्मक अन्तर सर्वत्र एक समान नहीं है। भूमध्य सागर में यह कोण 42° तथा अन्य सागर में 24° पाया जाता है। तीव्र गति से चलने वाली हवा धारा को अपनी दिशा से दूर कर देता है।
  5. वायु का प्रभाव- सागरीय सतह पर चलने वाली वायु तथा धाराओं का संबंध धाराओं पर स्थायी हवाओं का है। हवाएँ अपनी दिशा में सतह के जल को घसीट लेती हैं, परन्तु जल के भारी होने का कारण वायु की अपेक्षा जल का प्रवाह मन्द गति से होता है। बीच-बीच में स्थल भाग के उपस्थित हो जाने के कारण धाराओं की दिशा सदा वायु की दिशा में नहीं रहने पाती हैं, बल्कि भंग हो जाती हैं। भूमध्यरेखीय प्रदेशों में हवाएँ सतह के हल्के जल को बहा देती हैं। इस प्रकार का जल अनुगमन धारा कहलाता है। परन्तु स्थाई हवाओं का प्रभाव इसकी अपेक्षा बहुत अधिक होता है, क्योंकि संसार की प्रमुख धाराओं का जन्म संमार्गी और पछुआ हवाओं के प्रभाव से ही हुआ है। इसका उत्तम उदाहरण हिन्द महासागर में मिलता है जहाँ मानसूनी हवाओं द्वारा समुद्री धाराएँ निश्चित दिशा में चलती हुई पायी जाती हैं। शीतकालीन और ग्रीष्मकालीन मानसून के दिशा-परिवर्तन के साथ- साथ धाराएँ भी अपनी गति एवं दिशा को वायु के अनुकूल बना लेती हैं।
  6. स्थल की बनावट- धाराओं के प्रवाह में महाद्वीपों की बनावट का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। धूमध्यरेखीय धारा दक्षिणी अमेरिका के सेन रोक अन्तरीप के द्वारा दो भागों में विभक्त हो जाती है और एक शाखा मैक्सिको की खाड़ी की ओर तथा दूसरी शाखा दक्षिण की ओर दक्षिण अमेरिका के किनारे-किनारे प्रवाहित होती है।

जलधाराओं के प्रकार:- 

उष्ण प्रदेशों का जल गरमी के कारण गरम हो जाता है। यह गरम जलधाराओं के द्वारा उत्तर तथा दक्षिण के उच्च अक्षांशों की ओर बहाकर ले जाता है। अतः उष्ण प्रदेशों के जल की पूर्ति के लिए ध्रुवों की ओर से भूमध्यरेखा की ओर धाराएँ चलने लगती हैं। ध्रुव प्रदेशों से भूमध्यरेखा की ओर चलने वाली धाराओं का जल ठण्डा होता है। जिस धारा का जल उष्ण होता है, उसे उष्ण धारा तथा जिसका जल ठण्डा होता है उसे शीतधारा कहते हैं। अतः उष्ण प्रदेशों से ध्रुवों की ओर गरम धाराएँ और ध्रुवों से भूमध्यरेखा की ओर ठण्डी धाराएँ चलती हैं। 

प्रशान्त महासागर की जलधाराएँ:- 

प्रशान्त महासागर में भूमध्यरेखीय प्रदेशों में उत्तरी भूमध्यवर्ती गरम धारा, भूमध्यवर्ती प्रतिधारा तथा दक्षिणी भूमध्यवर्ती गरम धारा बहती है। उत्तरी भूमध्यवर्ती धारा भूमध्यरेखा के उत्तर मध्य अमेरिका के तट की ओर से पूर्वी द्वीपसमूह की ओर चला करती है। यह धारा पूरबी तट के सहारे जापान द्वीपसमूह के पूर्वी भाग तक जाती है। इस भाग में इस धारा को कुरोशिओ धारा कहते हैं। यह गरम पानी की धारा होने के कारण अपना प्रभाव पूर्वोत्तर चीन, कोरिया और जापान पर उसी प्रकार डालती है, जैसे गल्फस्ट्रीम उत्तरी- पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका के सेण्ट लॉरेन्स खाड़ी के निकटवर्ती प्रदेश एवं न्यूफाउण्डलैण्ड पर। इसके जल का तापमान ४०° सेग्रे० तथा लवणता 35% हजार होती है। जापान के निकट 35° उत्तरी अक्षांश पर यह धारा पछुआ हवा के प्रभाव में आकर पूरब की ओर मुड़ जाती है और उत्तरी अमेरिका के पश्चिमी तट तक चली जाती है। पछुआ हवा के प्रभाव में आने पर यह धारा पछुआ वायु की अनुगमन धारा अबताती है। इसको ‘उत्तरी प्रशान्त की धारा’ भी कहते हैं। इसकी प्रवाह सीमा 150° ५० देशान्तर है। उत्तरी अमेरिका, के पश्चिमी तट पर यह धारा दो भागों में विभक्त हो जाती है। सीक धारा तट के सहारे दक्षिण की ओर जाकर मध्य अमेरिका के निकट उत्तरी भूमध्यवर्ती धारा से मिल जाती है। उसे ‘कैलिफोर्निया की धारा’ कहते हैं, परन्तु एक शाखा तट के सहारे उत्तर की ओर जाती है और अलास्का तट के समीपं दक्षिण की ओर मुड़कर पछुआ वायु-अनुगमन-धारा में विलीन हो जाती है। कैलिफोर्निया की धारा उत्तर की ओर जाने के कारण ठण्डे पानी की धारा है। 

कुरोशिओ की जलधारा:- 

जापान द्वीपसमूहों के दक्षिण से कुरोशिओ की धारा की एक शाखा द्वीपों के पश्चिमी तट के सहारे उत्तर में जापान सागर में चली जाती है। यह धारा सुशीमा धारा के नाम से विख्यात है। अधिक तापमान तथा लवणता के फलस्वरूप इस धारा से जापान सागर का तापमान बहुत गिरने नहीं पाता है। 

क्यूराइल की जलधारा:- 

उत्तर प्रशान्त महासागर में उत्तरी सागर में बेहरिंग जलडमरूमध्य से होकर एक ठण्डे पानी की धारा जाती है जो एशिया के पूर्वी तट के सहारे क्यूराइल द्वीपों के दक्षिणी तट तक आती है। यह क्यूराइल की धारा या ओखोटस्क सागर की ठण्डी धारा के नाम से विख्यात है। इस धारा के कारण पूर्वोत्तरी एशिया के तट पर ब्लाडीबोस्टक तक कई मुहाने बर्फ से ढके रहते हैं। यह धारा जापान के पूर्व के कुरोशिओ धारा  से मिल जाती है जिससे यह भाग घने कुहरे से ढक जाता है। 

आस्ट्रेलिया की उष्ण जलधारा:- 

दक्षिणी भूमध्यवर्ती गर्म धारा प्रशान्त महासागर में भूमध्यरेखा के दक्षिण दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी तट से ऑस्ट्रेलिया तक पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर पहुँचते ही स्थलीय प्रभाव के कारण यह धारा दक्षिण की ओर मुड़ जाती है और आस्ट्रेलिया के पूर्वी तट के सहारे ऑस्ट्रेलिया के दक्षिण तक चली जाती है। यहाँ यह पूर्वी ऑस्ट्रेलिया की उष्ण धारा कहलाती है। यह धारा आगे बढ़कर 40° अक्षांश पर पछुआ हवा के प्रभाव में आ जाती है और पछुआ वायु अनुगमन धारा के द्वारा दक्षिणी अमरीका के पश्चिमी तट तक चली जाती और पुनः महाद्वीपीय प्रभाव के कारण यह दक्षिणी अमरीका के पश्चिमी तट के सहारे दक्षिण से उत्तर की ओर चलने लगती है। यह ठण्डे पानी की धारा है। आगे बढ़ने पर यह धारा दक्षिणी भूमध्यवर्ती धारा से मिल जाती है। 

भूमध्यवर्ती प्रतिधारा उत्तरी तथा दक्षिणी भूमध्यवर्ती गर्म धाराओं के बीच पश्चिमी से पूर्व की ओर चलती है और मध्य अमेरिका के पश्चिमी तट के समीप जाकर दो भागों में विभक्त हो जाती है। इसकी सीमा 2° से 8° उत्तरी अक्षांश तक रहती है। उत्तर की शाखा उत्तर की ओर बढ़कर उत्तरी भूमध्यवर्ती धारा में मिल जाती है और दक्षिण की शाखा के तट के सहारे भूमध्यरेखा से कुछ ही अक्षांश दक्षिण तक जाकर दक्षिणी भूमध्यवर्ती धारा में मिल जाती है। 

कुरोशिओ की प्रति जलधारा:- 

उपर्युक्त धाराओं के अलावा उत्तरी प्रशान्त महासागर के पूर्वी भाग में एक प्रकार की चमकदार जलधारा चलती है। हवाई द्वीपसमूह एवं एलुशियन द्वीपसमूहों के बीच इसका प्रभाव रहता है। इसको कुरोशिओ प्रतिधारा कहते हैं। 

प्रश्न 2. अटलांटिक महासागर की धाराओं का वर्णन कीजिए। 

अथवा  

अन्ध महासागर की धाराओं का उल्लेख कीजिए। 

अटलांटिक महासागर की धाराएँ:- 

अटलांटिक महासागर में मन्द व तीव्र दोनों प्रकार की धाराएँ प्रवाहित होती हैं। इसके साथ ही गर्म व ठंडी धाराएँ भी चलती हैं। अटलांटिक महासागर की प्रमुख धाराएँ निम्न हैं- 

  1. उत्तरी अटलांटिक विषुवतीय धारा- अटलांटिक महासागर में विषुवत् रेखीय प्रदेशों में 0° से 10° उत्तरी अक्षांश तक उत्तरी विषुवतीय धारा बहती है। व्यापारिक हवाओं के कारण इस धारा की प्रवाह दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर है। यह अफ्रीका के तट को छोड़ने के बाद अपने गुणों को प्राप्त करती है- गर्म एवं कम घनत्व। अटलांटिक की मध्य कगार पार करने पर इस धारा की दिशा परिवर्तित हो जाती है और उत्तर-पश्चिम की ओर मुड़कर दो धाराओं में बँट जाती है। एक भाग पश्चिमी द्वीप समूह के पूर्व में ‘एंटीलिज’ के नाम से व दूसरा कैरीबियन समुद्र से होता हुआ मैक्सिको की खाड़ी में प्रवेश कर जाता है। इसके प्रभाव के कारण व्यापारिक हवाएँ प० द्वीप समूह व मध्य अमेरिकी देशों में वर्षा करती हैं। यह एक गर्म धारा है। 
  2. दक्षिणी अटलांटिक विषुवतीय धारा- इस धारा का प्रवाह क्षेत्र 0° से 20° दक्षिणी अक्षांशों के मध्य मिलता है। यह पश्चिमी अफ्रीकी तट से प्रारम्भ होकर द० अमेरिका के पूर्वी तट पर जाकर सैन रॉक नामक टापू से टकरा कर दो भागों में बँट जाती है। इसकी एक शाखा उत्तरी विषुवतीय धारा से तथा दूसरी शाखा ब्राजील तट के पास से दक्षिण की ओर गुजरती है। यह ब्राजील गर्म धारा के नाम से जानी जाती है। दक्षिणी अटलांटिक विषुवतीय धारा की अपेक्षा उत्तरी अटलांटिक विषुवतीय धारा को अधिक जलराशि की प्राप्ति होती है। ये दोनों धाराएँ मौसम के परिवर्तन के साथ गर्मी की ऋतु में उत्तरी गोलार्द्ध में ऊपर खिसक जाती हैं और जाड़े की ऋतु में दक्षिण गोलार्द्ध में नीचे आ जाती हैं।  
  3. विपरीत भूमध्यरेखीय धारा- इस धारा की दिशा उत्तरी तथा दक्षिणी विषुवतीय धारा के प्रतिकूल या विपरीत दिशा में होती है। यह पश्चिम से पूर्व की ओर प्रवाहित होती है। यह एक गर्म तथा कम शक्तिशाली धारा है। पश्चिमी भाग में यह धाराओं के बीच में लुप्त हो जाती है, जबकि पूर्वी भाग में दिखाई पड़ती है। इस धारा को ‘गिनी धारा’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। इसकी सीमा व तीव्रता मौसम के अनुसार बदलती रहती है। जनवरी में इनकी गति धीमी तथा 2°-3° उत्तरी अक्षांशों के बीच तथा जुलाई में गति तीव्र व सीमा 7° से उत्तरी अक्षांश तक मिलती है। विद्वानों द्वारा यह धारा दोनों विषुवतीय धाराओं द्वारा अधिक जलराशि के पश्चिम की ओर हट जाने से रिक्त पड़े अंश को सन्तुलित करने के अभिप्राय से दोनों के विपरीत दिशा में चलती है। कुछ लोग विपरीत भूमध्यरेखीय धारा की उत्पत्ति उत्तरी व दक्षिणी विषुवतीय धाराओं के जल को दोनों अमेरिकी महाद्वीपीय तटों से टकराकर वापस पीछे लौटे जल से मानते हैं। 
  4. फ्लोरिडा धारा- यह उत्तरी अटलांटिक विषुवतीय धारा का अग्र भाग है जो यूकाटन चैनल से होती हुई मैक्सिको की खाड़ी में प्रवेश करती है। मैक्सिको की खाड़ी अर्द्ध-चन्द्राकार रूप में है। इसके पूर्वी भाग पर फ्लोरिडा जलडमरूमध्य है। बुस्ट महोदय के अनुसार यह गर्म धारा औसतन 26 मिलियन m³/ scc वार्षिक जलराशि फ्लोरिडा जलडमरूमध्य से होकर अटलांटिक महासागर में लाती है। फ्लोरिडा धारा का प्रवाह क्षेत्र 30° उत्तरी अक्षांश तक रहता है। भूमध्य रेखा से मैक्सिको की खाड़ी तक इस धारा का तापक्रम 75° फारेनहाइट तथा सतह की लवणता 36 रहती है। फ्लोरिडा जलडमरूमध्य से गुजरने पर संकरा रास्ता तथा तीव्र ढाल के कारण यह कम चौड़ी व तीव्र गति से बहती है। आगे चलकर इसकी चौड़ाई पुनः बढ़ जाती है तथा सेन्ट आगस्टाइन तट से स्थान के निकट यह धारा 30 समुद्री मील दूर स्थित है। 15° उत्तरी अक्षांश पर यह 85 मील दूर हो जाती है। आगे बढ़ने पर केपहैटरस के समीप पुनः यह धारा तट के समीप आ जाती है। इसकी उत्तर पूर्व की दिशा पछुआ पवनों के कारण है। फ्लोरिडा के समीप इसकी चौड़ाई 30 मील, केप कैनवरेल के पास 60 मील तथा चार्ल्सटन के समीप इसकी चौड़ाई 120-150 मील तक हो जाती है। 30° उत्तरी अक्षांश तक इसी धारा को फ्लोरिडा धारा के नाम से जानते हैं। इससे आगे यह एण्टीलीज से मिल जाती है। 
  5. गल्फस्ट्रीम- यह एक गर्म धारा है। इसकी खोज 1513 ई० में ने की थी। फ्लोरिडा की धारा का जहाँ अन्त होता है वहीं से यह धारा प्रारम्भ होती है। फ्रेंकलिन ने इस धारा की दिशा का पता लगाया। यह धारा पूर्व में सारगैसो सागर के गर्म व खारे जल तथा पश्चिम के तटीय ठंडे जल से अलग दिखाई पड़ती है। मैक्सिको की खाड़ी में जन्म लेने के कारण इसका नाम गल्फस्ट्रीम पड़ा है। यह सेन्ट लॉरेस नदी के मुहाने तक निर्विघ्न रूप से चलती है। 40° उत्तरी अक्षांश के पास तक यह 30 पूर्वी दिशा में बहती है और इसके बाद एकदम पूर्व की ओर मुड़ जाती है। न्यूफाउण्डलैंड तट के पास यह उत्तर से आने वाली लैब्रेडोर ठंडी धारा से मिलकर घना कोहरा उत्पन्न करती है, जिससे इसके अनेक मौलिक गुण भी बदल जाता है। 45° पश्चिमी देशान्तर के बाद गल्फस्ट्रीम कई शाखाओं में बंट जाती है। बिस्के की खाड़ी में बहने वाली धारा रेनेल धारा कहलाती है। यह इंग्लिश चैनल में भी प्रवेश करती है। इस समूचे क्षेत्र में इस धारा का संयत रूप नजर नहीं आता। सतह पर तापक्रम 16° सेग्रे० तथा गहराई पर और कम हो जाता है। मुख्य गल्फस्ट्रीम धारा विविले थाम्पसन कगार पार करके कई उपधाराओं में बाँटती है। नार्वे के तट को पार कर यह आर्कटिक समुद्र में पहुँच जाती है। जहाँ इसे नार्वेजियन धारा के नाम से जाना जाता है। इसका एक भाग स्पेन तट के पास टकराकर दक्षिण की किनारे ठंडी धारा से मिल जाता है। गल्फस्ट्रीम की दिशा व प्रवाह-गति पर पछुआ पवनों का विशेष प्रभाव पड़ता है। 40° उत्तरी अक्षांश पर इसकी दिशा पृथ्वी के विक्षेपक बल के कारण बदलती है, जहाँ से गल्फस्ट्रीम धारा अनेक उपधाराओं में विभाजित होती है, उसे गल्फस्ट्रीम का डेल्टा कहते हैं। लैब्रेडोर की ठंडी धारा से टकराने के बाद इसकी गति में कमी आ जाती है और तापक्रम में थोड़ा अन्तर आ जाता है। न्यूफाउण्डलैंड तट के समीप कोहरा उत्पन्न होने के कारण प्लैंकटन घास बहुतायत में उगती है तथा कोहरे के प्रभाव में जलयानों का रास्ता कुछ समय के लिए बन्द हो जाता है। 
  1. कनारी धारा- उत्तरी अटलांटिक ड्रिफ्ट जब स्पेन के तट के निकट पहुँचकर दो धाराओं में विभक्त हो जाती है तो एक शाखा उत्तर की ओर ग्रेट ब्रिटेन के पश्चिमी और उत्तरी तट पर बहती हुई 30 ध्रुव सागर की ओर बढ़ जाती है, किन्तु दूसरी शाखा दक्षिण की ओर मुड़कर कनारी द्वीपों के निकट तथा अफ्रीका के पश्चिमी तट पर प्रवाहित होती हुई 30 पूर्वी व्यापारिक पवनों के प्रभाव के कारण उत्तरी विषुवतीय धारा से मिल जाती है। कनारी ठंडे जल की धारा है। पूर्व में कनारी, प० में गल्फस्ट्रीम और दक्षिण में 30 विषुवतीय धारा से घिरा हुआ एक शान्त सागर है जिसे सारगैसो कहते हैं। इसकी स्थिति 20° से 40° उत्तरी अक्षांश तथा 35°-75° पश्चिमी देशान्तर के बीच है। इसकी सतह पर सारगैसम घास तैरती रहती है। कुमेल का मत है कि यह घास पश्चिमी द्वीप समूह के द्वीपों से बहकर आई है। सारगैसो सागर का औसत तापमान 26° सेग्रे० तथा लवणता 37% है।  
  1. लैबेडोर धारा- उत्तरी अटलांटिक महासागर में लैब्रेडोर तट के सहारे उत्तर पश्चिम में दक्षिण पूर्व की ओर एक ठण्डी धारा प्रवाहित होती है। इसे लैब्रेडोर धारा के नाम से पुकारते हैं। यह 30 ध्रुव महासागर का ठण्डा जल खींचकर ले जाती है। सेन्ट लॉरेन्स नदी के मुहाने पर न्यूफाउण्डलैण्ड द्वीप के समीप यह गल्फस्ट्रीम से मिलती है जिससे घना कोहरा उत्पन्न होता है।
  2. ब्राजील की गर्म धारा- द० विषुवतीय धारा दक्षिणी अमेरिका के पूर्वी तट पर सैन रॉक अन्तरीप से टकराकर दो भागों में विभक्त हो जाती हैं। एक शाखा तट के सहारे उत्तर की ओर चली जाती है तथा दूसरी ब्राजील तट के सहारे दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है। यह दक्षिण की ओर प्रवाहित होने वाली गर्म जल की धारा ही ब्राजील धारा कहलाती है। इस धारा का जल 40° दक्षिणी अक्षांश के निकट पहुँचकर फाकलैंड की धारा से मिल जाता है तथा प्रवाह के रूप में पश्चिम से पूर्व दिशा में बहने लगता है।
  3. फाकलैण्ड की ठण्डी धारा- दक्षिणी अटलांटिक महासागर में फाकलैंड द्वीप के समीप एक ठण्डी धारा का जन्म होता है जो अर्जेन्टाइना तट के सहारे बहती हुई लाप्लाटा नदी के मुहाने के निकट ब्राजील गर्म धारा से मिलती है। अण्टार्कटिका ड्रिफ्ट का एक अंश होने के कारण यह एक ठण्डी धारा है।
  4. बेंगुएला ठंडी धारा- दक्षिणी ध्रुव वृत्तीय धारा का कुछ जल पृथ्वी की दैनिक गति के कारण थोड़ा-सा उत्तर की ओर मुड़ जाता है यह धारा द० अफ्रीका के पश्चिमी तट से टकराकर उत्तर की ओर प्रवाहित होती है। उत्तर में गिनी तट के निकट यह धारा पश्चिम की ओर मुड़ जाती है और दक्षिणी विषुवतीय धारा से मिल जाती है।
  5. दक्षिणी अटलांटिक ड्रिफ्ट- जब 40° दक्षिणी अक्षांश के समीप ब्राजील व फाकलैंड धाराएँ पछुआ पवनों के प्रभाव में आती हैं तो समुद्री धारा का प्रवाह प० से पूर्व की ओर होने लगता है। इसे पश्चिमी वायु प्रवाह भी कहते हैं। यह एक ठण्डी धारा है। अण्टार्कटिका महाद्वीप के समीप प्रवाहित होने वाली इस ठण्डी धारा को अण्टार्कटिका ड्रिफ्ट भी कहते हैं। यह 40° से 60° दक्षिणी अक्षांश के मध्य बहती है। केप ऑफ गुड होप से 17° दक्षिणी अक्षांश के मध्य में यह तीव्रतम है। तट के निकट ही व्यापारिक हवाओं के प्रवाह से तली का कम खारा एवं ठण्डा जल भी ऊपर आ जाता है और गर्म जल पश्चिम में बह जाता है

प्रश्न 3. ज्वार-भाटा से आप क्या समझते हैं? ज्वार-भाटा से सम्बन्धित सिद्धान्तों का वर्णन करते हुए इसके प्रभाव बताइए। 

ज्वारा भाटा का अर्थ:- 

ज्वार-भाटा वे सागरीय तरंगें हैं जो पृथ्वी, चन्द्रमा और सूर्य के पारस्परिक आकर्षण से उत्पन्न होते हैं। समुद्री जल के नियमित चढ़ाव को ज्वार तथा उतार को भाटा कहते हैं। प्रसिद्ध समुद्रशास्त्री मरे के अनुसार, “सूर्य और चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के कारण समुद्र तल के नियमित रूप से ऊपर उठने और जल के नीचे जाने की क्रिया को ज्वार-भाटा कहते हैं।“  

मारमर के अनुसार, “समुद्र का जल प्रतिदिन दो बार ऊपर उठता है और दो बार नीचे गिरता है। आकर्षण के फलस्वरूप समुद्र जल के ऊपर उठने या आगे बढ़ने को ज्वार और नीचे उतरने अथवा पीछे हटने को भाटा कहते हैं। इस प्रकार समुद्र जल का नियमित रूप से उठाव और गिराव ज्वार-भाटा कहलाता है।“ 

विभिन्न सामुद्रिक गतियों में सम्भवतः ज्वार-भाटा ही ऐसी गति है, जो नियमित रूप से पायी जाती है। इनके क्रमवत ऊपर उठने और गिरने में थोड़ा भी अन्तर नहीं पाया जाता और इसके द्वारा समुद्र की सतह से तली तक का जल प्रभावित होता है।  

ज्वार-भाटा की उत्पत्ति से सम्बन्धित सिद्धान्त:- 

प्रमुख ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के विषय में अनेक विद्वानों ने अपने मौलिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं। इनमें सिद्धान्त निम्न हैं- 

1.न्यूटन का सन्तुलन सिद्धान्त, 

2.विलियम वेवेल का प्रगामी तरंग सिद्धान्त, 

3.हैरिस का स्थायी तरंग सिद्धान्त। 

1. न्यूटन का सन्तुलन सिद्धान्त-

सर आइजक न्यूटन ने 1687 ई० में गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के आधार पर ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के विषय में ‘सन्तुलन सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड के ग्रह, उपग्रह व नक्षत्र आपस में प्रत्येक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यह आकर्षण शक्ति इनके बीच की दूरी के वर्ग की विपरीत समानुपाती होती है। इसे निम्न सूत्र से ज्ञात करते हैं। 

             G.F.=M1×M2/d^2 

अर्थात् G.F . = गुरुत्व बल, M1 तथा M2, = अलग-अलग पिंडों की संगतियाँ, d = दोनों पिंडों के सामान्य की अंतिम दूरी। 

इसी सिद्धान्त के अनुसार सूर्य व चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति पृथ्वी को प्राप्त होती है। लाप्लास ने इस सिद्धान्त को अधिक विकसित रूप प्रदान किया। इस सिद्धान्त के अनुसार पृथ्वी पर ज्वार उपकेन्द्री बल तथा आकर्षण बल का परिणाम है। जब किसी गतिशील वस्तु का आकर्षण होता है, तो आकर्षण शक्ति के विरुद्ध उपकेन्द्री बल का जन्म होता है। अतः पृथ्वी पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति और गतिशील पृथ्वी के उपकेन्द्री बल के सन्तुलन से ज्वार उत्पन्न होता है। 

सूर्य की अपेक्षा चन्द्रमा पृथ्वी के अधिक निकट है। इसलिये इसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव अधिक पड़ता है। चन्द्रमा के ठीक सामने वाला पृथ्वी का भाग केन्द्र की अपेक्षा 6400 किमी० चन्द्रमा के निकट होता है तथा ठीक इसके विपरीत वाला भाग चन्द्रमा से 12800 किमी0 अधिक दूर होता है। अतः चन्द्रमा के सम्मुख वाले भाग पर अधिक आकर्षण शक्ति का प्रभाव पड़ता है। यहाँ आकर्षण बल का प्रभाव उपकेन्द्री बल की अपेक्षा अधिक होता है, जिससे दीर्घ ज्वार उत्पन्न होता है। पृथ्वी पर चन्द्रमा के ठीक विपरीत वाले भाग पर दूरी बढ़ जाने के कारण चन्द्रमा के आकर्षण बल का प्रभाव कम होता है। यहाँ उपकेन्द्री बल का प्रभाव अधिक होने से जल बाहर की ओर आकर एकत्रित हो जाता है जिससे ज्वार उत्पन्न होता है। इस प्रकार पृथ्वी पर एक ही समय दो ज्वार आते हैं। इससे उपकेन्द्री व गुरुत्व बलों में सन्तुलन बना रहता है। 

आलोचना- 

न्यूटन के सन्तुलन सिद्धान्त की आलोचना निम्न आधारों पर की गयी है 

(i).महासागरों में ज्वार एक लहर के रूप में उत्पन्न होता है और यदि पृथ्वी के धरातल पर केवल जल ही जल होता तो इस सिद्धान्त के क्रियाशील होने की सम्भावना थी, परन्तु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। यहाँ जल व थल का वितरण असमान है। यहाँ लहरे चन्द्रमा के साथ पृथ्वी की परिक्रमा करते हुए प्रत्येक देशान्तर पर समान रूप से उत्पन्न नहीं होतीं। इनके विस्तार एवं दिशा में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। 

(ii).सागरों की गहराई सर्वत्र समान नहीं है। अतः गहराई में भिन्त्रता, ज्वारीय लहरों की गति व ऊँचाई में भिन्त्रता पैदा कर देती है। 

(iii).सागर की दूसरी गतियों का प्रभाव ज्वारीय तरंगों पर भी पड़ता है। 

(iv).चन्द्रकलाओं के घटने व बढ़ने से भी ज्वारीय लहरों की ऊँचाई में अन्तर आ जाता है।  

(v) एअरी के अनुसार यह सिद्धान्त पर्याप्त दोषपूर्ण है। यह भौतिक तथ्यों की अवहेलना करता है। सागर तली के उच्चावच का ज्वारीय तरंगों पर प्रभाव पड़ता हैl 

2. प्रगामी तरंग सिद्धान्त-

ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विलियम वेवेल ने 1833 ई० में है। सागर तली के उच्चावच का ज्वारीय तरंगों पर प्रभाव पड़ता है। ‘प्रगामी तरंग सिद्धान्त’ का प्रतिपादन किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी देशान्तर के चन्द्रमा के सामने होने पर उस देशान्तर पर स्थिति सभी स्थानों पर ज्वार का समय एक व समान होना चाहिये, परन्तु वास्तविक रूप से ऐसा नहीं होता क्योंकि पृथ्वी पर सभी जगह जल नहीं पाया जाता। बीच-बीच में स्थल खण्ड पाये जाते हैं। यदि सभी जगह जल होता तो चन्द्रमा द्वारा उत्पन्न की गयी ज्वार तरंग ठीक चन्द्रमा की गति के अनुरूप पूर्व से पश्चिम दिशा में निरन्तर चला करती। स्थल खण्डों के कारण इन तरंगों को अवरोध का सामना करना पड़ता है। द० ध्रुव महासागर या अण्टार्कटिका में स्थल की कहीं रुकावट नहीं है। अतः यहाँ चन्द्रमा का आकर्षण सर्वाधिक रहता है। यहाँ ज्वारीय तरंग की प्रगति चन्द्रमा के साथ पूरब से पश्चिम को होती है इसे प्राथमिक ज्वारीय लहर का नाम दिया गया है। यह लहर अन्य तरंगों को जन्म देती है जो उत्तर में अटलांटिक, प्रशान्त व हिन्द महासागर में प्रवेश कर जाती हैं। इन द्वितीय तरंगों का वेग चन्द्रमा की अवधि पर निर्भर नहीं करता, बल्कि जल की गहराई पर निर्भर करता है। इन द्वितीयक तरंगों का ‘उठाव ज्वार’ तथा ‘गिराव भाटा’ कहलाता है। ये ज्वार तरंगें देशान्तरों के अनुरूप उत्तर की ओर बढ़ती हैं। मार्ग में बाधा (स्थल) आने पर इनकी प्रगति रुक जाती है। इसलिये लहरों के समय तथा उनकी ऊँचाई में अन्तर विकसित हो जाता है। आलोचना-यद्यपि प्रगामी तरंग सिद्धान्त सरल व बोधगम्य है, परन्तु फिर भी इस पर आपत्तियाँ की गई हैं, जो निम्न हैं- 

(i).प्रगामी तरंग सिद्धान्त के अनुसार ज्वारीय तरंगें दक्षिण महासागर में उत्पन्न होती हैं। वहीं से गौण लहरें की आयु उत्तरी महासागर में कम होनी चाहिये। उत्तरी महासागरों में पहुँचती हैं। अतः ज्वार वास्तविकता यह है कि ज्वार की आयु दक्षिणी सागरों से उत्तरी सागरों की ओर बढ़ती जाती है। 

(ii) वृहद् ज्वार का समय हार्न अन्तरीप से ग्रीनलैंड तक ही है जो सिद्धान्त के विपरीत है। ज्वार आने का समय दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ना चाहिये। 

(iii) उत्तरी अटलांटिक व 30 प्रशान्त महासागर में एक ही अक्षांश पर दैनिक व अर्द्ध-दैनिक ज्वारीय तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं तथा एक ही समय दो स्थानों पर वृहद् ज्वार भी उठते पाया गया है। इन समस्याओं का समाधान प्रगामी तरंग सिद्धान्त में नहीं है। 

(iv) ज्वार एक स्थानीय तथा प्रादेशिक घटना है, इसकी उत्पत्ति दक्षिणी महासागर में सीमित नहीं हो सकती। 

(v) इस सिद्धान्त में महासागरीय तली की रचना तथा किनारों द्वारा उत्पन्न बाधाओं को ज्वारीय तरंगों की प्रगति से भली-भाँति सम्बद्ध नहीं किया जा सकता। 

(vi) 1812 ई० में एअरी महोदय ने इसी प्रकार की कल्पना की थी जिसे नहर सिद्धान्त की संज्ञा दी गई थी। 

3. स्थायी तरंग सिद्धान्त-

ज्वार भाटा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ‘स्थायी तरंग सिद्धान्त’ का प्रतिपादन अमेरिकी विद्वान् हैरिस ने किया था। इसे ‘दोलन सिद्धान्त’ की भी संज्ञा दी जाती है। हैरिस ने इस सिद्धान्त को एक प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया है। इनके अनुसार यदि किसी छिछले जल वाले टैंक को टेढ़ा करें तो जल की सतह स्वयमेव टेढ़ी हो जाती है और उसी के अनुसार तरंगें उत्पन्न होती हैं। जल की सतह दो प्रकार से टेढ़ी होती है-

(i).जल की पहली सतह की अपेक्षा एक ओर तल ऊँचा और दूसरी ओर नीचा हो जाये। इस स्थिति में एक केन्द्रीय बिन्दु होता है जहाँ पर जल का स्तर समान ही रहेगा। 

(ii).जल की सतह बीच में ऊँची और दोनों ओर नीची हो, अतः केन्द्रीय बिन्दु दो होंगे। इस असमतल तल के होने से तरंगें उठेंगी और समुद्र में एक तल के सहारे आन्दोलन करेंगी। ये तरंगें धीरे-धीरे हल्की होती जायेंगी और अन्त में विलीन हो जायेंगी। यदि पुनः टैंक को टेढ़ा कर दिया जाये तो फिर से तरंगें उत्पन्न होंगी। 

हैरिस ने महासागरों में भरे पानी को टैंक में भरे पानी के समान माना है जिस पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति के कारण मटकों में महासागरों में दोलन क्रिया प्रारम्भ होती है। दूसरे शब्दों में, महासागरों में जब चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति द्वारा जल का खिंचाव होता है, जल में एक प्रकार की तरंगें प्रारम्भ हो जाती हैं जिन्हें स्थायी तरंगें कहते हैं। महासागरों में यह तरंगें एक ही ओर चलती हैं जिससे उस सागर में जहाँ यह पहुँचती हैं, जल का स्तर बढ़ जाता है। इस समय चन्द्रमा अपनी आकर्षण शक्ति से सागरीय जल को अपनी ओर खींचता है, जिसे ज्वार कहते हैं।  

इसके विपरीत जब चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति कम हो जाती है तो पृथ्वी अपने पूर्व स्थान की ओर खिंचती है जिससे सागरीय जल में तरंगें पीछे को हटने लगती हैं, इसे भाटा कहते हैं। 

हैरिस महोदय ने अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने तथा आलोचना से बचने के लिये सभी महासागरों में जाकर स्थायी तरंगों का अध्ययन किया। उनके अनुसार अलग-अलग महासागरों में स्थायी तरंगें भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं जिनसे ज्वार की उत्पत्ति होती है। महासागरों में जल के दोलन पर सागर की तली की बनावट, समुद्री तट की बनावट, समुद्र की गहराई आदि का प्रभाव पड़ता है। दोलन पर पृथ्वी के परिक्रमण का भी प्रभाव पड़ता है। 

स्थायी तरंगें सभी महासागरों में लगातार एक ही गति से नहीं चलती हैं। इनमें बड़े-बड़े द्वीप व महाद्वीप बाधा उत्पन्न करते हैं। ये बाधाएँ अलग-अलग भँवर बिन्दुओं की उत्पत्ति करते हैं। ये भंवर बिन्दु ही प्रत्येक महासागर में अपने चारों ओर दोलन की क्रिया प्रारम्भ कर देते हैं। हैरिस के प्रयोग द्वारा यह सिद्ध हो जाता है कि दोलन भँवर बिन्दुओं के चारों ओर घूमते रहते हैं। हैरिस ने इस बात पर जोर दिया है कि महासागरों में जल का दोलन एक सीधी रेखा में हीं होता। भँवर बिन्दुओं के चारों ओर अनेक प्रकार की ज्वारीय तरंगें एक-सी दिखाई देती हैं, इन्हें सम ज्वार रेखाओं की संज्ञा दी जाती है। हैरिस महोदय द्वारा प्रस्तुत ‘स्थायी तरंग सिद्धान्त’ ज्वार-भाटा की उत्पत्ति का वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है। 

ज्वार-भाटा का मानव-जीवन पर प्रभाव:- 

ज्वार-भाटा का मानव-जीवन पर अनेक प्रकार से प्रभाव पड़ता है। इससे होने वाले लाभ व हानियाँ निम्न प्रकार हैं- 

1.ज्वार के समय समुद्र तटों पर समुद्र की गहराई बढ़ जाती है। ज्वार के साथ जलयान बन्दरगाहों के समीप आ जाते हैं। माल को लादने के बाद जलयान भाटे के साथ पुनः गहरे समुद्र में वापस चले जाते हैं। इससे समुद्री यातायात व व्यापार में सहायता मिलती है। 

2.ज्वार-भाटा के जल से ज्वारीय शक्ति उत्पन्न की जाने लगी है। ज्वार के समय ऊँचे-ऊँचे विशाल जलाशयों को भर लिया जाता है तथा ऊँचाई से गिराकर विद्युत उत्पन्न कर ली जाती है। 

3.ज्वार-भाटा बन्दरगाहों के समीप एकत्रित कूड़ा-कचरा बहाकर दूर ले जाता है जिससे बन्दरगाह स्वच्छ रहते हैं। नदियों के मुहानों की गन्दगी भी बह जाती है इससे जलयानों को बन्दरगाह में पहुँचने में बड़ी सुविधा मिलती है। 

4.कभी-कभी ज्वार-भाटा के जल में जो हलचल मचती है, उससे छोटी-छोटी नौकाएँ डूब जाती हैं। 5. कभी-कभी ज्वारीय तरंगें तट के समीप इतनी रेत व कंकड़ जमा कर देती हैं जिससे जलयानों को आने-जाने में कठिनाई होती है। इसको हटाने के लिये ड्रेजिंग मशीनों का प्रयोग किया जाता है। 

5.समुद्री खारे जल का मिश्रण नदियों के मीठे जल से होता है। 

6.ज्वार के समय खारे जल को एकत्रित करके बाद में सुखाकर नमक बना लिया जाता है। 

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय धारायें क्या हैं? 

उत्तर-जिस प्रकार धरातल पर नदियाँ अपनी जलधाराओं के साथ एक दिशा से दूसरी दिशा में प्रवाहित होती हैं, उसी प्रकार महासागरों में जलराशि एक निश्चित दिशा में प्रवाहित होती है जिन्हें महासागरीय जलधारा कहा जाता है। 

मोन्क हाउस के अनुसार, “समुद्री सतहों की जलराशि के एक निश्चित दिशा में प्रवाहित होने की सामान्य गति को महासागरीय धाराएँ कहते हैं।“ 

प्रीस तथा वुड के शब्दों में, “महासागरों के जल के नियमित रूप से एक स्थान से दूसरे स्थान के प्रवाह को महासागरीय धराएँ कहा जाता है।“ 

प्रश्न 2. महाद्वीपीय मग्नतट। 

उत्तर- महाद्वीपीय मग्नतट-मग्नतट से अर्थ डूबे हुए तट से होता है। अतः महाद्वीपीय मग्नतट निश्चय ही स्थल के डूबे हुए भाग हैं। महाद्वीपों के तट के समीप जो भूमि जलमग्न हो जाती है वह मग्नतट बन जाती है। अतः समुद्र के तल का अति मन्द ढालयुक्त वह भाग जो महाद्वीपों के चारों ओर फैला रहता है; महाद्वीपीय मग्नतट कहलाता है। 

महाद्वीपीय मग्नतटः एक प्रकार के छिछले संमुद्री मैदान हैं जो कहीं भी 600 फुट (180 मीटर) से अधिक गहरे नहीं होते, किन्तु कुछ भागों में सीढ़ीदार कटाव के कारण यह गहराई 1200 व 1800 फुट (360 से 450 मीटर) तक पहुँच जाती है। इनका विस्तार भी तटीय भूमि की रचना के अनुसार न्यूनाधिक होता है। इसका विस्तार सामान्यतः 30 मील माना जाता है, किन्तु यदि तट के समीप समतल मैदान हैं और उनका ढाल क्रमशः है तो मग्नतट का विस्तार अधिक होगा। किन्तु यदि तटीय भूमि की रचना पर्वतीय हुई तो मग्नतट कर्का विस्तार अपेक्षाकृत कम होगा। जैसे-आयरलैण्ड के पश्चिमी तट के समीप भूमि-रचना समतल होने से मग्नतट 50 मील चौड़ा है, उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट पर 60 से 75 मील चौड़े, पूर्वी द्वीपसमूह के निकट कई सौ मील चौड़े, आर्कटिक समुद्र में 100 से 300 मीटर चौड़े मग्नतट पाये जाते हैं, परन्तु दक्षिणी अमरीका के पश्चिमी तट पर एण्डीज पर्वत स्थित होने से मग्नतट की विस्तार केवल 10 मील ही है। प्रायः विस्तृत मग्नतट हिमनदीय तटों से सम्बन्धित पाये जाते हैं। 

प्रश्न 3. गति, विस्तार तथा सीमा के आधार पर महासागरीय धाराओं के वर्गीकरण का उल्लेख कीजिए। 

उत्तर- गति, विस्तार तथा सीमा के आधार पर महासागरीय धाराओं को निम्नलिखित तीन रूपों में वर्गीकृत किया जाता है 

1.प्रवाह या ड्रिफ्ट-जब महासागरीय जलधाराएँ वायु के मन्द वेग से 1 से 2 किमी. प्रति घण्टा की चाल से चलती हैं तो इन्हें प्रवाह कहा जाता है। प्रवाह में केवल महासागरों का ऊपरी जल ही गतिशील रहता है तथा प्रवाह की महासागरों में कोई सीमा निर्धारित नहीं होती है। 

2.धारा-जब महासागरीय जल एक निश्चित दिशा तथा निश्चित सीमा में अपेक्षाकृत तीव्र गति से प्रवाहित होता है तो वह धारा कहलाता है। सामान्यतया धाराओं की गति 28 से 42 किमी. प्रति घण्टा रहती हैं। क्यूरोसिओ धारा तथा पीरू धारा इसके उत्तम उदाहरण हैं। 

3.स्ट्रीम या विशाल धारा- जब महासागरीय जल एक निश्चित दिशा तथा निश्चित सीमा में सर्वाधिक तीव्र गति से प्रवाहित होता है तो उसे स्ट्रीम कहा जाता है। सामान्यतया स्ट्रीम की गति 50 से 100 किमी० प्रति घण्टा तक हाती है। गल्फस्ट्रीम इसका उत्तम उदाहरण है। 

प्रश्न 4. अटलांटिक महासागर की धाराएँ। 

उत्तर- फ्लोरिडा धारा-उत्तरी भूमध्यरेखीय जलधारा का जल जब कैरेबियन सागर से होकर मैक्सिको की खाड़ी में पहुँचता है तो यह जलधारा जलडमरूमध्य से होकर फ्लोरिडा के पूर्वी तट के सहारे- सहारे बहती है। इसीलिए इसे फ्लोरिडा धारा कहते हैं। यह धारा हेटरस अन्तरीप और फ्लोरिडा जलडमरूमध्य के मध्य मैक्सिको की खाड़ी में बहती है। फ्लोरिडा धारा के विकास में सर्वाधिक योगदान पूर्व से पश्चिम की ओर बहती व्यापारिक हवाओं का है।  

गल्फस्ट्रीम या खाड़ी की धारा-यह धारा 20° उत्तरी अक्षांश के पास से मैक्सिको की खाड़ी में विकसित होती है, इसलिए इसे खाड़ी की धारा कहते हैं। फ्लोरिडा जलधारा के उत्तरी भाग से निकलकर यह धारा उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट के सहारे सहारे 45° उत्तरी अक्षांश तक बहती है। 40° उत्तरी अक्षांशों के निकट इन धाराओं की दिशा पछुआ हवाओं के प्रभाव से पूर्व की ओर मुड़ जाती है। जहाँ यह धारा लैब्रोडोर की ठण्डी की धारा से मिलकर तापमान प्रतिलोमन की दशाएँ उत्पन्न करती हैं, वहाँ घना कुहरा छा जाता है। 

उत्तरी अटलांटिक धारा-45° उत्तरी अक्षांश तथा 35° पश्चिमी देशान्तर के समीपवर्ती सागरीय क्षेत्र से गल्फस्ट्रीम पूर्व दिशा में बहती हुई ब्रिटेन तथा नार्वे तक जाती है। जहाँ यह सागरीय धारा उत्तरी । अटलांटिक धारा कहलाती है। 

कनारी धारा-उत्तरी अटलांटिक धारा स्पेन के निकट आकर दो भागों में विभक्त हो जाती है। मूल धारा उत्तर की ओर उत्तरी अटलांटिक धारा के रूप में बहती है, जबकि दूसरी धारा स्पेन तट से दक्षिण की ओर मुड़कर कनारी द्वीप से होती हुई अफ्रीका के उत्तरी-पश्चिमी तट के साथ-साथ बहती है। इस धारा के प्रवाह पर व्यापारिक पवनों का प्रभाव पड़ता है। व्यापारिक पवनों के कारण यह धारा सागर तल के ऊपर का गर्म जल क्रमशः हटाती जाती है, जिससे नीचे का ठण्डा जल ऊपर आ जाता है और यह एक ठण्डी जलधारा बन जाती है।  

लैब्रेडोर धारा-यह एक ठण्डी जलधारा है जो बेफिन की खाड़ी तथा डिवेस-जलडमरूमध्य के मध्य बहती है। डिवेस जलडमरूमध्य के दक्षिण में यह जलधारा गल्फ स्ट्रीम से मिल जाती है। इस धारा के साथ बर्फ के शिलाखण्ड भी उत्तर की ओर से बहकर आते हैं। 

प्रश्न 5. दक्षिणी अटलांटिक महासागर की धाराओं में दक्षिणी भूमध्यरेखीय धारा तथा ब्राजील धारा पर टिप्पणी लिखिए। 

उत्तर- दक्षिणी अटलांटिक महासागर में निम्नलिखित चार धाराएँ प्रवाहित होती हैं- 

दक्षिणी भूमध्यरेखीय धारा-व्यापारिक हवाएं जिस प्रकार उत्तरी अटलांटिक सागर में उत्तरी भूमध्यरेखीय धारा उत्पन्न करती हैं, उसी प्रकार से हवाएँ दक्षिणी अटलांटिक सागर में दक्षिणी भूमध्यरेखीय धारा को जन्म देती हैं। यह गर्म जलधारा पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हुई ब्राजील के सनराक अन्तरीप से टकराकर दो भागों में विभाजित हो जाती हैं। उत्तरी शाखा उत्तर-पश्चिम में बहती हुई उत्तरी भूमध्यरेखीय धारा से मिल जाती है। दक्षिणी शाखा ब्राजील तट के सहारे बहती है तथा ब्राजील धारा के नाम से जानी जाती है। 

ब्राजील धारा- ब्राजील की गर्म धारा दक्षिणी अमेरिका के तट के समानान्तर 40° दक्षिणी अक्षांश पर प्रवाहित होती है। 40° दक्षिणी अक्षांश पर पछुआ पवनों के प्रभाव में आने के कारण ब्राजील धारा पूर्व की ओर से ठण्डी फाकलैण्ड धारा ब्राजील धारा से आकर मिलती है।  

प्रश्न 6. बृहत् ज्वार। 

उत्तर-बृहत् ज्वार-भाटा-पृथ्वी पर केवल चन्द्रमा का ही खिंचाव नहीं होता, वरन् सूर्य भी उसे अपनी ओर खींचता है। इस तरह ज्वार के आने में सूर्य और चन्द्रमा दोनों का ही प्रभाव काम करता है, परन्तू सूर्य चूंकि पृथ्वी से चन्द्रमा की अपेक्षा बहुत दूर है, इसलिए प्रतिदिन ज्वार के आने से इसका प्रभाव ज्ञात नहीं होता। किन्तु इसके प्रभाव का महत्त्व उस समय स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, जबकि चन्द्रमा सूर्य के योग से सबसे ऊँचा ज्वार उत्पन्न करता है। हम जानते हैं कि पूर्णिमा और अमावस्या के दिन सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी तीनों ही एक सीधी रेखा में होते हैं। इस कारण इन तिथियों पर चन्द्रमा और सूर्य का सम्मिलित प्रभाव पृथ्वी पर होता है। अतः इन दोनों तिथियों को अन्य दिनों की अपेक्षा ज्वार की ऊंचाई अधिक होती है। इसी को बृहत् ज्वार के नाम से पुकारते हैं। 

इकाई:-7(III) – समुद्री निक्षेप एवं प्रवालभिति 

 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. गम्भीर सागरीय निक्षेपों के प्रकार, वितरण एवं विशेषताओं का विश्लेषण कीजिए।  

अथवा  

महासागरीय निक्षेप से क्या तात्पर्य है? विविध प्रकार के निक्षेपों का वर्णन कीजिए। 

समुद्री निक्षेप का अर्थ:- 

स्थलीय निक्षेपों के समान समुद्र की तली पर भी अनेक कारणों से कणों का जमाव पाया जाता है। समुद्री निक्षेप, स्थल की विभिन्न प्रकार की चट्टानों के शैल चूर्ण के नदियों द्वारा समुद्र में जमा करने से बनते हैं। शैल चूर्ण के अलाबा समुद्री निक्षेपों में समुद्री जीवों के अवशेष भी पाये जाते हैं। इनकी जमाव क्रिया में क्रम का महत्त्वपूर्ण स्थान है। टूबेनहोफेल के अनुसार, “समुद्री निक्षेपों के विषय में उन स्रोतों पर विचार किया जाता है जिससे उनकी उत्पत्ति हुई है, उत्पत्ति के स्थान से जमाव के स्थान तक परिवहन के माध्यम तथा अवसादों की क्षैतिज व ऊर्ध्वाधर विभिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है।“ 

समुद्री निक्षेपों के प्रकार:- 

समुद्र की तली लगभग प्रत्येक स्थान पर विभिन्न प्रकार के ढीले पदार्थों से ढकी हुई है। इसकी सही मोटाई का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका है। समुद्र वैज्ञानिकों ने निक्षेपों की ऊपरी परत (एक या दो फीट) के विषय में पर्याप्त खोज की है। समुद्री निक्षेप के निम्न चार स्रोत हैं- 

1.स्थलजात्सामग्री:- 

समुद्र की तली में जमा हुए अधिकतर पदार्थ स्थलीय भागों से प्राप्त होते हैं। स्थल की आग्नेय व परतदार चट्टानों पर अपक्षय व अनाच्छादन की क्रियाएँ घटित होती रहती हैं, जिससे शैल चूर्ण की प्राप्ति होती है। यह शैल-चूर्ण अपरदन के साधनों द्वारा सागरों में निरन्तर ले जाया जाता है, जहाँ यह जमा होता रहता है। समुद्रों में जो निक्षेप या जमाव पाये जाते हैं, उनका अधिकांश भाग स्थलीय चट्टानों के अपरदन से प्राप्त होता है। नदियाँ इस कार्य में सर्वाधिक योगदान देती हैं। स्थलजात पदार्थों की उत्पत्ति, कणों की आकृति, रासायनिक संगठन आदि के आधार पर इन्हें निम्न प्रकार के पदार्थों में विभाजित किया जा सकता है 

गोलाश्म व बजरी-गोलाश्म या बोल्डर के टुकड़ों का व्यास 256 मिमी होता है, जबकि बजरी बड़े कणों वाला स्थलीय पदार्थ है। इसका व्यास 2 से 256 मिलीमीटर पाया जाता है। बजरी की उत्पत्ति विशेषतया चट्टानी तटों पर लहरों के कटाव से होती है। बजरी समुद्र में दूर तक नहीं पहुँचती है। इसका जमाव निमग्न स्थलों व छिछली खाड़ियों में पाया जाता है। 

रेत-रेत या बालू के कण बजरी से महीन होते हैं। इसके कणों का व्यास 2 मिमी से 18 मिमी के बीच पाया जाता है। रेत के कणों में भी कई किस्में होती हैं। बहुत मोटी रेत, मोटी रेत, मध्यम रेत, बारीक रेत तथा बहुत बारीक रेत इसकी किस्में हैं। गोलाश्म, बजरी व रेत का निर्माण धरातलीय चट्टानों के विघटन से होता है। विघटित पदार्थ नदियों व हवा के द्वारा समुद्रों में पहुंचाये जाते हैं। 

सिल्ट व मृत्तिका-सिल्ट, मृत्तिका व पंक के कण बहुत बारीक होते हैं। इनके कणों का व्यास 1/ 8 मिमी से 8/192 मिमी के बीच पाया जाता है। मृत्तिका के कण सिल्ट से छोटे और पंक से बड़े होते हैं। पंक या कीचड़ के कण जोड़ने का कार्य करते हैं। इनमें एल्यूमिना का अंश अधिक होता है। छिछली व शान्त खाड़ियों में मृत्तिका व पंक के कण बारीक होने के कारण समुद्री जल में लटके रहते हैं। इन्हें लटकते कण कह सकते हैं। इनकी उपस्थिति से समुद्री जल मटमैला दिखाई देता है। सिल्टं, मृत्तिका तथा के जमाव सागरों में गहराई पर दूर-दूर तक मिलते हैं। 

पंक पंक या कीचड़-पंक के कण रेत अथवा मृत्तिका के कणों से भी सूक्ष्म होते हैं। ये पानी में झूलती अवस्था में या घुलकर महासागरों में काफी दूर तक जमा होते हैं। तट से दूर 100 फैदम की गहराई की समोच्च रेखा के आगे इनका जमाव होता है। मरे महोदय के अनुसार पंक का जमाव महाद्वीपीय निमग्न स्थल एवं बालों पर होता है। यह विभिन्न रंगों का होता है। ये रंग वास्तव में कीचड़ में मिले खनिज पदार्थों के कारण उत्पन्न होते हैं। 

  1. जैविक पदार्थ:-

स्थलजात सामग्री के अतिरिक्त समुद्र तली में उन पदार्थों का जमाव भी मिलता है जो विशेषतया समुद्र से ही उत्पन्न होते हैं। इनमें सागरीय जीवों की हड्डियाँ, ढाँचे व चूने के बने घर आदि नष्ट होने के बाद प्राप्त पदार्थ मुख्य हैं। इन पदार्थों में चूने की मात्रा अधिक होती है, केवल कुछ जीवों के खोल सिलिका से बनते हैं। समुद्री जैव पदार्थों का जमाव गर्न समुद्रों में अधिक पाया जाता है। इनके गुणों के आधार पर समुद्री जैव पदार्थ को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है- 

A.नेरिटिक जमाव-समुद्रों में पाये जाने वाले विभित्र जीव-जन्तुओं की हड्डियों, मछलियों, प्रवाल, सीप, स्पंज आदि के अस्थिपंजर अवशेषों के जमाव को नेरिटिक जमाव कहते हैं। इनमें बेन्थास, मूंगा, स्पंज, नेक्टन आदि हैं। नेरिटिक जमाव समुद्र तली में किसी विशिष्ट स्थान पर नहीं पाये जाते हैं, परन्तु ये जमाव तापक्रम, खारेपन व धाराओं आदि के अनुसार बदलते रहते हैं। प्रवाल जैसे जीव केवल गर्म व छिछले समुद्रों में ही पाये जाते हैं, अतएव इन्हीं भागों में इनके अवशेष भी प्राप्त होते हैं। विभिन्न प्रकार के ऐसे अवशेष समुद्री लहरों के निरन्तर प्रहार से और रासायनिक परिवर्तन से बारीक चीका व रेत में बदल जाते हैं। अधिकांशतः स्थलीय पदार्थ के जमाव से ये ‘नेरिटिक जमाव’ ढक जाते हैं। गहरे समुद्रों में ये जमाव द्वीपों के निकट मिलते हैं। 

B.पेलॉजिक जमाव-ये विशिष्ट प्रकार की Algae हैं, जो बिना सहारे के समुद्र में बढ़ती हैं। इनमें कुछ प्रोटोजोआ, डायटम, एम्फीपोड्स आदि मुख्य हैं। ये पंक के समान हैं और ऊज (ooze) कहलाता है। पेलॉजिक जमाव विशेषतया गहरे समुद्रों में (75.53) विस्तृत रूप से पाये जाते हैं। 

  1. ज्वालामुखी पदार्थ:-

समुद्री निक्षेपों में ज्वालामुखी पदार्थों का भी योगदान रहता है। समुद्र की तली में ज्वालामुखी से प्राप्त पदार्थ दो प्रकार का होता है- 

(i).वह पदार्थ जो ज्वालामुखी द्वारा धरातल पर जमा कर दिया जाता है। इसमें रासायनिक व भौतिक अपक्षय द्वारा परिवर्तन आता है। यह वायुमण्डल की विभिन्न शक्तियों (नदी, वायु, हिम) द्वारा समुद्र तली में धीरे-धीरे पहुँचता है।  

(ii) वह पदार्थ जो समुद्र में ही ज्वालामुखी के उपरान्त होते हैं। 

उपर्युक्त दोनों पदार्थ यद्यपि ज्वालामुखी क्रिया से ही प्राप्त होते हैं, परन्तु उनके गुणों में अपक्षय की भिन्त्रता के कारण भेद आ जाता है। ज्वालामुखी से निकलने वाली राख बहुत बारीक कणों वाली होती है और इसमें खनिज तत्त्वों की मुख्यता होती है। ज्वालामुखी पदार्थ समुद्र की तली में आग्नेय चट्टानों एवं ज्वालामुखी पर्वतों के क्षय से प्राप्त होता है। महाद्वीपीय निमग्न स्थलों पर जमा होने वाले ज्वालामुखी पदार्थ के कण गहरे सागरों की तुलना में बड़े होते हैं, इन्हें ज्वालामुखी रेत कहते हैं। इसका रंग भूरा, स्लेटी और काले के बीच में पाया जाता है तथा इसका विस्तार विशेषतया समुद्री द्वीपों के आस-पास होता है। 

समुद्री निक्षेपों का वितरण:- 

मौक हाउस महोदय ने समुद्री निक्षेपों का लम्बवत् वितरण निम्न चार भागों में प्रस्तुत किया है-  

  1. तटीय जमाव-ये उच्च व निम्न ज्वार तथा समुद्र तल बजरी, रेत आदि का जमाव पाया जाता है। तट के इन जमावों में क्रमबद्धता पायी जाती है अर्थात् मोटा के बीच का क्षेत्र है। इसमें कंकड़, पत्थर, व भारी पदार्थ तट के निकट तथा बारीक तट से दूर जमता है। तटीय जमाव का आधार लहरों द्वारा किया गया कटाव ही है।
  2. छिछले जल के जमाव-भाटा तल से 183 मीटर की गहराई तक के भागों में पाये जाने वाले निक्षेपों को छिछले जल के जमाव कहते हैं। इनमें बालू तथा प्रवाल कंकालों के निक्षेप पाये जाते हैं।
  3. बेथाइल पेटी के जमाव-इसके अन्तर्गत महाद्वीपीय ढालों पर पाये जाने वाले सागरीय निक्षेप शामिल किये जाते हैं। इनमें विविध प्रकार के पंक-नीली, हरी व लाल तथा प्रवालों के जमाव पाये जाते हैं।
  4. अगाध सागरीय निक्षेप – गहरे सागरीय मैदानों तथा महासागरीय गतों में पाये जाने वाले निक्षेपों को अगाध सागरीय निक्षेप कहा जाता है। इनमें ऊज-टेरोपॉड, ग्लोबीजेरीना, डायटम व रेडियोलेरियन, लाल मृत्तिका तथा उल्का धूल मुख्य होते हैं।

समुद्री निक्षेप की विशेषताएँ:- 

समुद्री निक्षेपों के जमाव की दर बहुत कम है। जमाव को प्रभावित करने वाली दशाएँ कणों के आकार, रचना, समुद्री जल की लवणता, गतियों आदि पर निर्भर करती हैं। चूने का जमाव 14 सेमी प्रति 1000 वर्ष में होता है। उथले सागरीय जल में निक्षेप की गति अपेक्षाकृत अधिक है। 

प्रश्न 2. प्रवाल किसे कहते हैं? संसार में इसकी उत्पत्ति एवं वितरण की भौगोलिक परिस्थितियों का वर्णन कीजिए। 

अथवा 

प्रवालभित्ति से आप क्या समझते हैं? इसकी उत्पत्ति और वितरण के लिए कौन-से भौगोलिक कारक सहायक हैं? 

अथवा 

प्रवालभित्ति से आप क्या समझते हैं? इसकी उत्पत्ति एवं विकास के लिए कौन-कौन से भौगोलिक कारक सहायक हैं? 

जलराशि अनेक अल्पाकार जीवों में हरा, लाल, पीला आदि रंग का मूँगा भी एक कीट है। इसमें चूने का अंश अधिक होता है और ये अपने शरीर को सुरक्षित रखने के लिए चूने का घोल बनाते हैं। इनमें आपस में मिलने की प्रवृत्ति होती है, ये झुंड में रहते हैं। जब ये कीड़े मृत हो जाते हैं तो इनके अवशेष समुद्र तल पर एकत्र होते रहते हैं। अन्य समुद्री जीवों के अवशेष भी एकत्र होते रहते हैं। इनका प्रसार मक्खियों के छत्ते या वृक्ष की तरह हो जाता है और कालान्तर में शैले पानी की सतह पर आ जाती हैं। ऊपरी भार के कारण जीवांश पत्थर की भाँति कठोर हो जाते हैं। इन मूँगे के अवशेषों के आधिक्य से एक श्रेणी बन जाती है जिसको प्रवाल भित्ति कहते हैं। 

तापमान की अनुकूलता:- 

1.भौगोलिक अवस्थाएँ-प्रवाल भित्तियाँ गर्म समुद्रों में पनपती हैं। इसके लिए कम से कम 20° सेग्रे. का तापमान चाहिए। इसी कारण उष्ण एवं उपोष्ण समुद्री भागों में 30° उत्तर से 30° दक्षिण अक्षांशों के मध्य इनकी अधिकता रहती है। 

2.स्वच्छ जल की आवश्यकता:- 

ये छिछले जल में बढ़ती हैं। ये 45 मीटर से अधिक गहरे जल में नहीं पनपती हैं। इनकी वृद्धि के लिए पानी स्वच्छ होना आवश्यक होता है। कीड़ों के विकास के निमित्त नदियों का निक्षेप वर्जित है। 

मटमैले जल में ये कीड़े नहीं पनप पाते हैं। अटलांटिक महासागर में अधिक नदियों के गिरने तथा तापमान बहुत ऊँचा न होने के कारण प्रवाल-रचना बहुत कम होती है, किन्तु प्रशान्त एवं हिन्द महासागरों में प्रवाल-रचना के लिए पूर्णतः अनूकूल परिस्थितियाँ हैं। महाद्वीपों के पूर्वी किनारों पर प्रवाल-रचना अधिक होती है, क्योंकि वहाँ पर उष्ण संमार्गी वायु चलती हैं। पश्चिमी किनारे पर ठण्डी तीव्र धाराओं के चलने से प्रवाल-रचना नहीं होती है। अधिक लवणता युक्त जल भी प्रवालों के लिए हानिकारक होता है। 

प्रवाल भित्तियों के भेद:- 

आकृतियों के आधार पर प्रवाल भित्तियाँ चार प्रकार की होती हैं-  

  1. तटीय प्रवाल भित्ति-ये मूँगे की शैलें महाद्वीपीय तट या ज्वालामुखी शंकु के निकट बनती हैं। ये सदैव जलमग्न रहती हैं। इनकी सतह ऊबड़-खाबड़ होती हैं। इसका प्रसार बाहर पार्श्व की ओर अधिक होता है और ऊँचाई की ओर कम। अतः इनका बाह्य भाग समुद्र की सतह के निकट पहले पहुँच जाता है और इस दशा में प्रवाल भित्ति और समुद्र तट के मध्य सँकरा एवं उथला अनूप बन जाता है। इस भित्ति का बाह्य किनारा कदाचित् ही 45 मीटर की गहराई तक पहुँचता है। इसका ढाल स्थल की ओर साधारण और महासागर की ओर तीव्र होता है।
  2. प्रवाल भित्ति रोधिका-ये समुद्र तट से कुछ दूरी पर स्थित होती हैं और स्थल एवं इन भित्तियों के मध्य की चौड़ाई अधिक होती है। फलतः अनूप चौड़े तथा गहरे भी होते हैं। इनकी रचना स्थल की ओर भी होती रहती है। अतः ढाल साधारण होता है। इन भित्तियों का प्रसार बाहर की ओर अधिक नहीं होता है, अतः महासागर की ओर ढाल तीव्र होता है। कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि ये भित्तियाँ निम्न आकार पर निर्मित हैं या इनके निर्माण के पश्चात् समुद्र की गहराई बढ़ गयी है। प्रवाल भित्ति गोलाश्म पर प्रवाल, चूर्ण तथा रेत का निक्षेप पाया जाता है।
  3. प्रवाल द्वीप वलय-इनका आकार घोड़े की नाल या अंगूठी की तरह वृत्ताकार होता है। इसके मध्य में उथली-झील होती है। झील के मध्य में कभी-कभी द्वीप मिलता है। यह भित्ति भी असम्बद्ध होती हैं और जहाँ खुली होती हैं वहाँ ये अनूप भी खुले समुद्र से सम्बद्ध हो जाते हैं। हवाई टापू के समीप बिकनी टापू इस भित्ति का उदाहरण है।
  4. प्रवाल द्वीप-स्थल खण्डों के सुदूर स्थित प्रवाल शैलों के चबूतरे होते हैं। ये समुद्री तरंगों के प्रहार से सपाट तथा चौरस बन जाते हैं। समुद्र की सतह से इनकी ऊँचाई अधिक नहीं होती है। ये द्वीप कई किलोमीटर लम्बे चौड़े भी हो जाते हैं। उत्पादन-क्रिया के फलस्वरूप प्रवाल द्वीप कभी ऊँचे उठ जाते हैं और वायु एवं समुद्र तरंगों के द्वारा इन पर विभिन्न प्रकार के बीज पहुँच जाते हैं और कालान्तर में वनस्पति का आवरण उग आता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. महासागरीय निक्षेप से आशय स्पष्ट कीजिए। 

अथवा  

महासागरीय निक्षेप का विवरण दीजिए। 

उत्तर- धरातल के प्रमुख अपरदन कारक नदियाँ तथा वायु, धरातलीय अवसादों को सागर में डालते हैं। सागरों को कुछ अवसाद ज्वालामुखी उद्‌गारों से तथा कुछ अवसाद समुद्री जीवों तथा वनस्पतियों से भी मिलते हैं। दूसरे शब्दों में, हम यह भी कह सकते हैं कि वे समस्त पदार्थ जो महासागरीय तली पर निक्षेपित मिलते हैं, महासागरीय निक्षेप कहलाते हैं। 

संदर्भ में यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि महासागरीय निक्षेप असंगठित अवसादों के रूप इस में होते हैं, संगठित चट्टानों के रूप में नहीं। 

प्रश्न 2. प्रवाल भित्ति से क्या आशय है? व्याख्या कीजिए। अथवा प्रवाल भित्तियाँ। 

उत्तर – 25° उत्तरी अक्षांश से 25° दक्षिणी अक्षांश के मध्य स्थित उष्ण महासागरों में एक छोटा-सा कोरल पॉलिप्स नामक जीव पाया जाता है, जिसके चूना प्रधान अवशेष तथा अस्थि-पंजर सागर की तली पर निक्षेपित होते रहते हैं। इन अवशेषों के जमाव से निर्मित चट्टानों को प्रवाल भित्ति कहा जाता है। 

वस्तुतः सागर तल के नीचे कोरल या मूँगा नामक जीव मधुमक्खी के छत्तों की भाँति पनपते हैं। यह कोरल नामक जीव अपने चारों ओर एक चूना प्रधान आवरण या खोल बनाकर रहते हैं। जब कोरल मर जाता है तो उसके खोल के ऊपर ही दूसरा कोरल अपना खोल तैयार करने लग जाता है। इस प्रकार एक खोल के ऊपर क्रमशः दूसरा खोल आता चला जाता है। इस क्रिया से कुछ समय के अन्तराल में एक विस्तृत भित्ति का निर्माण हो जाता है, जिसे प्रवाल भित्ति कहा जाता है। 

प्रश्न 3. तटीय प्रवाल भित्तियों पर टिप्पणी लिखिए। 

अथवा 

प्रवाल भित्तियों की उत्पत्ति एवं प्रकारों का वर्णन कीजिए। 

उत्तर- जो प्रवाल भित्ति द्वीपों या महाद्वीपों के किनारों पर (महाद्वीपों से सटी हुई) उथले सागरों की तली पर निर्मित होती है, वह तटीय प्रवाल भित्ति कहलाती है। इस प्रकार की प्रवाल भित्ति एक प्लेटफार्म बनाती है। यह प्लेटफार्म प्रायः कम ढालू अथवा अवतल ढाल वाला होता है। इस प्लेटफार्म का समुद्र की ओर का ढाल अत्यन्त खड़ा होता है। तटीय भाग तथा प्लेटफार्म के बाहरी किनारे के बीच में एक उथली लैगून होती है। कुछ समय बाद यह लैगून मृत प्रवालों के कंकाल से भरती जाती है जिससे लैगून का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। अण्डमान-निकोबार द्वीपों तथा फ्लोरिडा अन्तरीप के समीपवर्ती सागरीय भागों में यह प्रवाल भित्तियाँ प्रमुखता से मिलती हैं। 

अवरोधक प्रवाल भित्तियाँ:- 

ये भित्तियाँ भी तटीय प्रवाल भित्तियों की भाँति होती हैं, लेकिन ये भित्तियाँ तट से सैकड़ों किलोमीटर दूर बनती हैं तथा इन प्रवाल भित्तियों और तट के मध्य एक चौड़ी तथा गहरी लैगून होती है जिसे चैनल भी कहते हैं। इस गहरी लैगून की तली में तट की ओर तक प्रवाल भित्तियाँ मिलती है। संसार की सबसे बड़ी अवरोधक प्रवाल भित्ति ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर भित्ति है तथा तट से लगभग 120 किमी दूर तटीय भागों में समानान्तर 2,028 किमी की लम्बाई में विस्तृत है। कैरोलाइना द्वीप के चारों ओर इस प्रकार की प्रवाल भित्तियाँ प्रमुखता से मिलती हैं। 

एटोल या वलयाकार प्रवाल भित्ति:- 

प्रायः एटोल किसी द्वीप के चारों ओर अण्डाकार रूप में मिलती है। एटोल कहीं न कहीं खुली अवश्य मिलती है। एटोल के मध्य लैगून की गहराई 40 से 70 फैदम होती है तथा चौड़ाई कई किमी हो सकती है। कभी-कभी किसी गोलाकार द्वीप के चारों ओर तटीय प्रवाल भित्ति निर्मित होती है। बाद में तट से दूर अवरोधक प्रवाल भित्ति बन जाती है। इस तरह तटीय प्रवाल भित्ति तथा अवरोधक प्रवाल भित्ति के मध्य एक गहरी तथा चौड़ी लैगून बन जाती है तथा इस प्रकार एटोल बन जाता है। 

प्रश्न 6. प्रवाल भित्तियों की क्रमिक विकासीय अवस्थाएँ क्या हैं? वर्णन कीजिए। 

उत्तर- 

  1. प्रथम अवस्था-सर्वप्रथम किसी ज्वालामुखी द्वीप अथवा स्थलीय भाग के सहारे तटीय प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है।  
  2. द्वितीय अवस्था-इस अवस्था में स्थल खण्ड का धीरे-धीरे विकास होना प्रारम्भ होता है जिससे प्रवाल भी गहरे जल की ओर पहुँचते हैं, लेकिन प्रवाल भी साथ-साथ ऊपर तथा बाहर की ओर विकसित होते जाते हैं। धँसाव की गति प्रवाल के ऊपर बढ़ने की गति से कम होती है। अतः जैसे-जैसे धँसाव होता जायेगा, वैसे-वैसे प्रवाल श्रेणी ऊपर के बीच एक लैगून विकसित हो जाती है तथा अवरोधक प्रवाल भित्ति का निर्माण होता है।
  3. तृतीय अवस्था-अवरोधक प्रवाल भित्ति के निर्माण के बाद भी धँसाव होता रहता है और द्वीप का समस्त स्थलीय भाग समुद्र में डूब जाता है। ऐसी अवस्था में समुद्र की ऊपरी सतह पर वलयाकार प्रवाल श्रेणी शेष रह जाती हैं, जिसके बीच में स्थलीय भाग के समुद्र में डूबने से एक लैगून बन जाती है। इस प्रकार एटोल का निर्माण हो जाता है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. समुद्री निक्षेप। 

उत्तर- महासागरीय नितल पर मिलने वाले अवसादों के आवरण को महासागरीय निक्षेप कहते हैं। ये अवसाद सघन रूप से महासागरीय तली पर जमे रहते हैं। इन अवसादों की प्राप्ति चट्टानों पर निरंतर क्रियाशील प्रक्रमों के कारण उनके अपक्षय व अपरदन से प्राप्त होने वाले अवसादों तथा महासागरीय जीवों तथा वनस्पतियों के अवशेषों से निर्मित व विकसित होती हैं।  

प्रश्न 2.सागरीय निक्षेप की विशेषताएँ। 

उत्तर-(i).सागरीय निक्षेप में कुल समुद्री तल का 75% हिस्सा होता है।  

(ii).सागरीय निक्षेप में कार्बनिक एवं अकार्बनिक दोनों तरह की सामग्री होती है।  

प्रश्न 3. केल्प वन। 

उत्तर- केल्प वन, केल्प (सागरीय घास) के उच्च घनत्व के साथ पानी के नीचे के क्षेत्र होते हैं, जो संसार के समुद्र तटों के 25% को आवृत्त करता है। केल्प बड़े भूरे रंग के शैवाल हैं जो तट के करीब ठण्डे, अपेक्षाकृत उथले पानी में रहते हैं। केल्प के ये अण्डरवाटर टॉवर हजारों मछलियों, अकशेरुकी और समुद्री स्तनपायी प्रजातियों के लिए भोजन और आश्रय प्रदान करते हैं। केल्प वन पूरे विश्व में समशीतोष्ण और ध्रुवीय तटीय महासागरों में पाए जाते हैं। 

प्रश्न 4. प्रवाल भित्ति। 

उत्तर- ये समुद्र के भीतर स्थित चट्टान है जो प्रवाल द्वारा छोड़े गए कैल्सियम कार्बोनेट से निर्मित होती है। वस्तुतः ये छोटे जीवों की बस्तियाँ हैं। साधारणतः प्रवाल शैल श्रेणियाँ, उच्च एवं उथले सागरों, विशेषकर प्रशान्त महासागर में स्थित, अनेक उष्ण अथवा उपोष्ण देशीय द्वीपों के सामीप्य में बहुतायत में पायी जाती हैं।  

प्रश्न 5. प्रवाल रोधिकाएँ। 

उत्तर- इस प्रकार की शैल भित्तियाँ, समुद्र तट से थोड़ी दूर हट कर पायी जाती हैं जिससे कि इनके और तट के बीच में छिछले लैगून पाए जाते हैं। यदि कहीं पर ये लैगून गहरे हो जाते हैं तो वे अच्छे बंदरगाह का निर्माण करते हैं। प्रशान्त महासागर में पाए जाने वाले अनेक ज्वालामुखी द्वीप इस प्रकार की भित्तियों से घिरे हुए हैं। 

प्रश्न 6. ग्रेट बैरियर रीफ।  

उत्तर- ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर स्थित ग्रेट बैरियर रीफ विश्व अवरोधक प्रवाल भित्ति है। यह आस्ट्रेलिया के स्वीन्सलैण्ड के के समानान्तर 1200 मील तक फैली हुई है। इसकी चौड़ाई महाद्वीपीय तट से इसकी दूरी 10 से 150 मील तक दूर है। की सबसे बड़ी और प्रमुख उत्तर-पूर्वी तट में मरीन पार्क 10 मील से 90 मील तक है। 

प्रश्न 7. अवरोधक प्रवाल भित्ति।  

उत्तर- अवरोधक प्रवाल भित्ति, तटीय प्रवाल भित्ति की अपेक्षा अधिक मोटी प्रवाल संरचना होती है, इसमें लैगून की गहराई अधिक होती है। ग्रेट बैरियर रीफ की औसत ऊँचाई 160 मीटर है। 

प्रश्न 8. वलयाकार प्रवाल भित्ति। 

उत्तर- 6 वलयाकार प्रवाल भित्ति, तटीय व अवरोधक प्रवाल भित्ति की तुलना में अधिक गहरी लैगून वाली होती है। इन्हीं से प्रवाली द्वीपों का विकास हुआ है। प्रशान्त महासागर में स्थित मार्शल द्वीप समूह के बिकनी द्वीप की प्रवाल संरचना 180 मीटर होती है l